लोग धन भी जोड़ते अहंकार के लिए और त्याग भी करते अहंकार के लिए। पहले
अकड़कर चलते हैं कि कितना उनके पास है, फिर अकड़कर चलते हैं कि कितना
उन्होंने छोड़ दिया। जितना उनके पास है, उसे भी बहुत बहुत गुना करके बतलाते
हैं। जो छोड़ा है, उसे भी बहुत बहुत गुना करके बतलाते हैं। लेकिन हर हालत
में आदमी अपने अहंकार को ही भजता है। मैं कुछ विशिष्ट हूं; मैं कुछ अनूठा
हूं? अद्वितीय हूं; मैं कुछ अलग हूं औरों जैसा नहीं हूं; मैं असाधारण हूं
सामान्य नहीं; इसी चेष्टा में आदमी लगा रहता है। कभी धन कमाकर, कभी बड़ी
दुकान चलाकर, कभी किसी बड़े पद पर प्रतिष्ठित होकर, कभी सबको लात मारकर,
लेकिन सबके पीछे मूल आधार एक ही है कि मैं कोई साधारण आदमी नहीं।
आदमी साधारण से बड़ा डरता है, सोचो, यह भाव ही कि मैं साधारण हूं छाती पर
पत्थर जैसा रख जाता है, यह खयाल ही कि मैं असाधारण हूं? विशिष्ट हूं कुछ
अनूठा हूं और तुम्हें पंख लग जाते हैं।
लेकिन अगर तुम असाधारण हो, तो सभी कुछ असाधारण है। पत्ते, फूल, पत्थर,
चांद तारे, सभी कुछ असाधारण है। और अगर सभी कुछ असाधारण है, तो फिर
साधारण असाधारण का भेद ही क्या! जिन्होंने जाना है, उन्होंने कहा है, न तो
कोई साधारण है, न कोई असाधारण। अस्तित्व एक है, इसलिए कौन साधारण होगा, कौन
असाधारण होगा।
तो या तो कहो, सभी साधारण हैं, तब भी सच या कहो, सभी असाधारण हैं, तब भी
सच, लेकिन एक को साधारण और एक को असाधारण करने में भूल हो जाती है। कोटिया
बांटी कि भूल हो जाती है, वर्ग बांटे कि भूल हो जाती है, वर्ण बनाए कि भूल
हो जाती है। कहा कि ब्राह्मण शूद्र, भूल हो गयी; कहा कि ऊंचा नीचा, भूल हो
गयी, कहा कि शुभ अशुभ, भूल हो गयी। जहां तक भेद है और जहा तक द्वंद्व है,
वहां तक संसार है।
तो एक आदमी कहता है कि देखो, मैं कितना बुद्धिमान; और एक आदमी कहता है,
देखो मेरे पास कितना धन, और एक आदमी कहता है, देखो मेरे पुण्य, मैंने कितना
पुण्य किया इनमें कोई फर्क है? इनमें कोईभी फर्क नहीं। जब तक आदमी कहता
है, देखो, मैं विशिष्ट, तब तक कोई फर्क नहीं है।
इस जगत में जो आदमी साधारण होने को राजी है, वही असाधारण है। जो यह कहने
को राजी है कि मैं अति साधारण हूं उसकी ही असाधारणता सुनिश्चित है। क्यों?
क्योंकि प्रत्येक को असाधारण होने का खयाल है, इसलिए असाधारण का भाव तो
बड़ा साहगरण है। तुम अगर कुत्ते से पूछो, घोड़े से पूछो, पशु—पक्षियों से
पूछो, अगर वे बोल सकते तो वे भी कहते कि तुम हो क्या! आदमी मात्र! असाधारण
हम हैं। तुम पत्थर से पूछो, अगर पत्थर बोल सकता तो वह भी कहता कि तुम तो बस
आदमी हो, आज हुए, कल गए, हम सदा रहते हैं, हम असाधारण हैं। कोई न कोई बात
खोज ही लेगा जिसके कारण असाधारण की घोषणा हो सके। असाधारण की घोषणा में
अहंकार है। साधारण होने के भाव में अहंकार विसर्जित हो गया। और मजा यह है
कि साधारण होते ही तुम असाधारण हो जाते हो। क्योंकि साधारण होने की भावदशा
बड़ी असाधारण भावदशा है। कभी कोई बुद्ध, कभी कोई कृष्ण, कभी कोई क्राइस्ट उस
दशा को उपलब्ध होते है।
एस धम्मो सनंतनो
ओशो
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