एक सुबह, ईसाई फकीर अगस्तीन से एक युवक ने आकर पूछाः “मैं
पढ़ा-लिखा नहीं हूं; ग्रामीण हूं, गंवार हूं। धर्मशास्त्र की बातें मेरी समझ
में नहीं आतीं। बड़े उपदेश मेरे पल्ले नहीं पड़ते। आपने तो उस प्रभु को देखा
है, आप मुझे दो शब्दों में सार की बात कह दें–ऐसी कि मैं उसे गांठ बांध
लूं; ऐसी कि भुलाना भी चाहूं अपने अज्ञान में तो भी भुला न पाऊं; ऐसी कि
चिंगारी बन जाए मेरे भीतर।’
कहते हैं, अगस्तीन, जो कभी किसी प्रश्न के उत्तर देने में न झिझका था,
क्षणभर को झिझक गया और उसने आंखें बंद कर लीं। उसके शिष्य बड़े चकित हुए।
बड़े विद्वान आते हैं, बड़े पंडित आते हैं, बड़े धर्मशास्त्री आते हैं–अगस्तीन
उनके प्रश्नों में कभी आंख बंद नहीं किया। उत्तर तत्क्षण होते हैं।
बड़ा मेधावी पुरुष था अगस्तीन। और आज एक छोटे-से प्रश्न के उत्तर में आंखें
बंद कर ली हैं। और बड़ी देर लगी, जैसे अगस्तीन भीतर बहुत खोजता रहा। फिर
उसने आंखें खोलीं और उसने कहा : “तो फिर एक शब्द याद रखो–प्रेम। उसमें सब आ
जाता है–सब धर्म, सब धर्मशास्त्र, सब नीतियां, सब आदर्श। एक शब्द याद रखो
फिर–प्रेम। और प्रेम जीवन में आ गया तो सब आ जाएगा। फिर तुम फिकर छोड़ो
परमात्मा की। तुम प्रेम को संभाल लो, प्रेम के धागे में बंधा हुआ परमात्मा
अपने-आप आ जाता है।’
अगस्तीन का यह उत्तर अत्यधिक मूल्यवान है। सारे धर्मों का सार प्रेम है।
और प्रेम संभल जाए तो सब संभल गया। और प्रेम न संभल पाए तो तुम सब संभालते
रहो, फिर सब औपचारिक है, उसका कोई मूल्य नहीं है। और यह बात भी
महत्त्वपूर्ण है कि अगस्तीन को सोचना पड़ा।
किसी ने रूज़वेल्ट को एक बार पूछा कि आप व्याख्यान देते हैं, तो आपको
तैयारी करनी पड़ती होगी? कितनी तैयारी करनी पड़ती है? रूज़वेल्ट ने कहा :
निर्भर करता है। अगर दो घंटे बोलना हो तो तैयारी बिल्कुल नहीं करनी पड़ती;
फिर तो जो भी बोलना है बोले चला जाता हूं। अगर आधा घंटा बोलना हो तो तैयारी
करनी पड़ती है; दिनभर लगाना पड़ता है। और अगर दस मिनट ही बोलना हो तो दो दिन
भी लग जाते हैं। और अगर दो ही मिनट में बात कहनी हो तो सप्ताह बीत जाते
हैं, तब कहीं मैं तैयार कर पाता हूं।
यह बात सोचने जैसी है। जितने संक्षिप्त में कहनी हो बात, उतनी देर लग
जाती है। और अगर एक ही शब्द में कहनी हो, तो स्वभावतः अगस्तीन को बड़ा मंथन
करना पड़ा। बहुत-से शब्द उठे होंगे उसके भीतर, जब वह सोचने लगा कि क्या
उत्तर दूं इस ग्रामीण को। सारे शास्त्र घूम गए होंगे उसके भीतर। शास्त्रों
का ज्ञाता था; बाइबिल उसे कंठस्थ थी। उन सभी शब्दों ने सिर उठाए होंगे।
लेकिन उन्होंने सबको इनकार कर दिया। सारे मंदिर, सारे मस्जिद, सारी
प्रार्थनाएं, सब इनकार कर दीं। और उस सब में से चुना एक शब्द, जो शायद भीड़
में कहीं खो ही जाता। क्योंकि प्रेम ऐसा है कि अंत में खड़ा होता है।
पंक्तियों के आगे खड़े होने का प्रेम का कोई आग्रह नहीं है। लेकिन अगस्तीन
ने खोज लिया सूत्र, सारसूत्र खोज लिया।
अजहुँ चेत गँवार
ओशो
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