योग की दृष्टि से अगर अंतर्मिलन संभव हो जाए, तो बाहर संभोग की वृत्ति तत्काल विलीन हो जाती है; क्योंकि जिस आकांक्षा के लिए वह की जा रही थी, वह आकांक्षा तृप्त हो गई। मैथुन के जो चित्र मंदिरों की दीवालों पर खुदे हैं, वे अंतमैंथुन की ही दिशा में इंगित करनेवाले चित्र हैं।
अंतमैंथुन ध्यान की प्रक्रिया है। और इसलिए बहिर्मैथून और अंतमैंथुन में एक विरोध खयाल में आ गया। और वह विरोध इसीलिए खयाल में आ गया कि जो भी अंतमैंथुन में प्रवेश करेगा उसका बाहर के जगत से यौन का सारा संबंध विच्छिन्न हो जाएगा। स्त्री जब अपने पहले शरीर से दूसरे शरीर से मिलेगी.. .तो यह भी समझ लेने जैसा है कि जब स्त्री अपने पहले शरीर से दूसरे शरीर से मिलेगी, तो जो यूनिट बनेगा दोनों के मिलने पर वह फिर स्त्रैण होगा पूरा यूनिट; और पुरुष का पहला शरीर जब दूसरे शरीर से मिलेगा तो जो इकाई बनेगी वह फिर पुरुष की होगी पूरा शरीर। क्योंकि जो प्रथम है वह द्वितीय को आत्मसात कर लेता है। जो प्रथम है वह द्वितीय को आत्मसात कर लेता है; दूसरा उसमें समाविष्ट हो जाता है।
लेकिन अब ये स्त्री और पुरुष भी बहुत दूसरे अर्थों में हैं; उस अर्थों में नहीं जैसा कि हम बाहर स्त्री पुरुष को देखते हैं। क्योंकि बाहर जो पुरुष है वह अधूरा है, इसलिए सदा अतृप्त है; बाहर जो स्त्री है वह अधूरी है, इसलिए सदा अतृप्त है।
अगर हम जैविक विकास को खोजने जाएं तो यह पता चलेगा कि जो प्राथमिक प्राणी हैं जगत में, उनमें स्त्री और पुरुष के शरीर अलग अलग नहीं हैं। जैसे अमीबा है, जो कि प्राथमिक जीव है। अमीबा के शरीर में दोनों एक साथ मौजूद हैं स्त्री और पुरुष। उसका आधा हिस्सा पुरुष का है, आधा स्त्री का। इसलिए अमीबा से तृप्त प्राणी खोजना बहुत कठिन है। उसमें कोई अतृप्ति नहीं है। उसमें डिसकटेंट जैसी चीज पैदा नहीं होती। इसलिए वह विकास भी नहीं कर पाया; वह अमीबा अमीबा ही बना हुआ है। तो बिलकुल जो प्राथमिक कड़ियां हैं बायोलाजिकल विकास की, वहां भी शरीर दो नहीं हैं, वहां एक ही शरीर है और दोनों हिस्से एक ही शरीर में समाविष्ट हैं।
जिन खोज तीन पाइआ
ओशो
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