… लेकिन तभी तक, जब तक परमात्मा से दूर है। मनुष्य
दुर्बल है, दरिद्र है, दीन है, लेकिन तभी तक, जब तक परमात्मा से दूर है।
उससे हमारी दूरी ही हमारी दरिद्रता है। और जितने हम उससे दूर होते जाते
हैं, उतना ही जीवन अर्थहीन होता जाता है।
पश्चिम में इस सदी में बहुत से विचारक हुए, जिनकी ऐसी प्रतीति है कि जीवन में न कोई अर्थ है, न कोई प्रयोजन है, न कोई नियति है। जीवन एक व्यर्थ की कथा है। ए टेल टोल्ड बाई एन ईडियट, फुल आफ फ्यूरी एंड न्वायज सिग्नीफाइंग नथिंग–जैसे कोई मूढ़ कहे एक कहानी, शोरगुल बहुत मचाए लेकिन अर्थ उसमें बिलकुल न हो।
ऐसा लगेगा ही। ऐसी प्रतीति होगी। तुम अपने ही जीवन को देखो, शोरगुल बहुत है। बड़े काम में तुम संलग्न हो। चल ही नहीं रहे, दौड़ रहे हो। लेकिन कभी पूछा अपने से, कहां पहुंच रहे हो? दौड़-दौड़ कर भी वहीं खड़े हो जहां जन्म के बाद तुमने अपने को पाया था। रत्ती भर तो उपलब्धि नहीं हुई। पाया क्या है? अगर हाथ देखोगे तो खाली है। तिजोड़ी भर गयी हो भला। लेकिन तिजोड़ी यहीं पड़ी रह जाएगी। तुम खाली हो। और तुम जितने भी भरेपन के सपने देख रहे हो, उनमें सच्चाई जरा भी नहीं है।
तुम कितना ही इकट्ठा कर लो संसार का, लेकिन मरते क्षण संसार छूट जाएगा। और जो छूट ही जाना है, वह तुम्हारा हो कर भी तुम्हारा नहीं हो पाता। जिन्होंने इस जगत की संपदा को अपना आधार बनाया उन्होंने रेत पर महल खड़े किए हैं, वे गिरेंगे। और तुम कितनी देर अपने को धोखा दे पाओगे? कभी तो जागोगे, कभी तो होश आएगा, कभी तो तुम विचार करोगे कि चला इतना, पहुंचा कहीं भी नहीं। तुम्हारी अवस्था कोल्हू के बैल जैसी है। चलता बहुत है। चलता ही रहता है। दिन-भर शोरगुल भी बहुत होता है उसके आसपास। क्योंकि तेल पिरता है, घानी चलती है। पहुंचता कहां है? सांझ वहीं पाता है जहां सुबह अपने को पाया था। फिर कल सुबह वहीं से यात्रा होगी।
तुम्हारा जीवन भी कोल्हू के बैल जैसा है। तुम कितना ही सजाओ, तुम कितना ही छिपाओ, तुम कितने ही ऊपर से रंग-रोगन करो, भीतर तुम्हें भी पता है कि भिखारी का पात्र है तुम्हारा हृदय। मांगता है और खाली है। और भरता कभी भी नहीं। जितना दूर आदमी होता जाता है परमात्मा से, उतना ही दरिद्र होता जाता है। स्वामित्व तो उसके साथ है।
और हम केवल दूर ही होते तो भी ठीक था, हम उसके विपरीत हैं। दूर होना भी इतना बुरा नहीं जितना विपरीत होना है। हम जो भी कर रहे हैं, उससे विपरीत है। दूर हो कर भी अगर हम उसके साथ हों, तो तत्क्षण क्रांति हो जाए।
इक ओमकार सतनाम
ओशो
पश्चिम में इस सदी में बहुत से विचारक हुए, जिनकी ऐसी प्रतीति है कि जीवन में न कोई अर्थ है, न कोई प्रयोजन है, न कोई नियति है। जीवन एक व्यर्थ की कथा है। ए टेल टोल्ड बाई एन ईडियट, फुल आफ फ्यूरी एंड न्वायज सिग्नीफाइंग नथिंग–जैसे कोई मूढ़ कहे एक कहानी, शोरगुल बहुत मचाए लेकिन अर्थ उसमें बिलकुल न हो।
ऐसा लगेगा ही। ऐसी प्रतीति होगी। तुम अपने ही जीवन को देखो, शोरगुल बहुत है। बड़े काम में तुम संलग्न हो। चल ही नहीं रहे, दौड़ रहे हो। लेकिन कभी पूछा अपने से, कहां पहुंच रहे हो? दौड़-दौड़ कर भी वहीं खड़े हो जहां जन्म के बाद तुमने अपने को पाया था। रत्ती भर तो उपलब्धि नहीं हुई। पाया क्या है? अगर हाथ देखोगे तो खाली है। तिजोड़ी भर गयी हो भला। लेकिन तिजोड़ी यहीं पड़ी रह जाएगी। तुम खाली हो। और तुम जितने भी भरेपन के सपने देख रहे हो, उनमें सच्चाई जरा भी नहीं है।
तुम कितना ही इकट्ठा कर लो संसार का, लेकिन मरते क्षण संसार छूट जाएगा। और जो छूट ही जाना है, वह तुम्हारा हो कर भी तुम्हारा नहीं हो पाता। जिन्होंने इस जगत की संपदा को अपना आधार बनाया उन्होंने रेत पर महल खड़े किए हैं, वे गिरेंगे। और तुम कितनी देर अपने को धोखा दे पाओगे? कभी तो जागोगे, कभी तो होश आएगा, कभी तो तुम विचार करोगे कि चला इतना, पहुंचा कहीं भी नहीं। तुम्हारी अवस्था कोल्हू के बैल जैसी है। चलता बहुत है। चलता ही रहता है। दिन-भर शोरगुल भी बहुत होता है उसके आसपास। क्योंकि तेल पिरता है, घानी चलती है। पहुंचता कहां है? सांझ वहीं पाता है जहां सुबह अपने को पाया था। फिर कल सुबह वहीं से यात्रा होगी।
तुम्हारा जीवन भी कोल्हू के बैल जैसा है। तुम कितना ही सजाओ, तुम कितना ही छिपाओ, तुम कितने ही ऊपर से रंग-रोगन करो, भीतर तुम्हें भी पता है कि भिखारी का पात्र है तुम्हारा हृदय। मांगता है और खाली है। और भरता कभी भी नहीं। जितना दूर आदमी होता जाता है परमात्मा से, उतना ही दरिद्र होता जाता है। स्वामित्व तो उसके साथ है।
और हम केवल दूर ही होते तो भी ठीक था, हम उसके विपरीत हैं। दूर होना भी इतना बुरा नहीं जितना विपरीत होना है। हम जो भी कर रहे हैं, उससे विपरीत है। दूर हो कर भी अगर हम उसके साथ हों, तो तत्क्षण क्रांति हो जाए।
इक ओमकार सतनाम
ओशो
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