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Friday, September 11, 2015

मैं कौन हूं?’

ऐसा हुआ एक बार मैं एक स्टेशन पर ट्रेन में सवार हो रहा था। भीड़ भाड़ थी डब्बे के बाहर। लोग बड़ा धक्कम धुक्की कर रहे थे। एक आदमी के पैर पर मेरा पैर पड़ गया। वह बोला कि ‘ आप देखते नहीं, अंधे हैं? देखते नहीं मैं कौन हूं?’ 

मैंने कहा : मैं एक ज्ञानी की तलाश में ही था, आप मुझे बतायें कौन हैं? छोड़े यह ट्रेन, जाने दें।

मैंने कहा : यह बिस्तर रहा नीचे, आप बैठें। आप कृपा करके विराजे। अब और तो यहां कुछ है नहीं, सूटकेस पर ही बैठ जायें और मैं यहां स्टेशन पर प्लेटफार्म पर बैठ कर आपसे निवेदन करता हूं आप मुझे समझा दें कि कौन हैं।

वे कहने लगे कि आप पागल हैं।

‘तुम्हीं कहे कि आपको पता है कि मैं कौन हूं तो मैं समझा कि कम से कम आपको तो पता होगा ही।’

तुम्हें पता नहीं तुम कौन हो। सारी दुनिया को पता करवाना चाह रहे हो कि पता चल जाये कि मैं कौन हूं! पहले खुद तो पता लगा लो। जिसने खुद पता लगाया वह तो हंसने लगता है। वह तो कहता है. मैं हूं ही नहीं। अब यह बड़े मजे की बात है। यह खूब मजाक रही. जिसको पता चल जाता है कि मैं कौन हूं वह तो कहता मैं हूं ही नहीं; और जिसको पता नहीं, वह लाख उपाय कर रहा है सिद्ध करने के कि मैं कौन हूं मैं यह हूं मैं वह हूं! हजार उपाधियां इकट्ठी कर रहा है, लेबिल चिपका रहा है, रंग रोगन कर रहा है मैं यह हूं! अशानी सिद्ध करने की कोशिश में लगा है कि मैं हूं और ज्ञानी जानता है कि मैं हूं ही नहीं, केवल परमात्मा है।

कोई हर्जा नहीं। अगर अभी अज्ञान है तो अज्ञान है। तुम जरा भीतर जाओ। जरा खोजो। इस अंधेरे में कहीं परमात्मा बैठा है, तुम जरा दीया जलाओ।

हम ऐसे मूर्च्छित हैं कि हमें पता नहीं।

अष्टावक्र महागीता

ओशो 

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