रूपचंद! तुमसे कहा किसने कि मुझे समझो? समझने की कोशिश करोगे, थक ही जाओगे। क्योंकि यह काम यहां समझदारों का है ही नहीं। यह काम दीवानों का है, परवानों का है। यह बस्ती मस्तों की है। यहां कोई पंडित बनाने को थोड़े ही मैं बैठा हूं।
और तुम क्या समझोगे अभी? तुम पहले से ही काफी समझे बैठे होओगे। उसी में तालमेल बिठा रहे होओगे। उसी मैं जुगाड़ बिठा रहे होओगे। ऐसा तो आदमी खोजना मुश्किल है जो पहले से समझे न बैठा हो। बस वहीं से अड़चन शुरू हो जाती है। अज्ञानी को समझना कठिन नहीं है, ज्ञानी को समझना मुश्किल हो जाता है।
तुम ज्ञानी मालूम पड़ते हो। तुम छुपे रूस्तम हो--छिपे पंडित!
‘अरे चंदूलाल, करोड़पति सेठ धन्नालाल की मौत पर तुम क्यों आंसू बहा रहे हो?’ ढब्ब ूजी ने पूछा।
‘क्या वे तुम्हारे करीब के
रिश्तेदार थे?’
चंदूलाल ने दहाड़ मार कर रोते हुए कहा: ‘नहीं थे, इसीलिए तो रो रहा हूं!’
अपनी-अपनी समझ। तुम अपनी समझ लेकर यहां आओगे तो मैं जो कह रहा हूं, वह नहीं समझ सकते।
एक प्रसिद्ध विदेशी डाक्टर अपने विश्वभ्रमण के दौरान भारत आया। मरीजों का तांता लग गया उसके पास। एक मरीज ने अपनी बीमारी बतलाते हुए कहा कि उसे नींद नहीं आती। विदेशी डाक्टर ने आश्चर्यचकित होकर कहा: ‘नहीं-नहंी, ऐसा तो हो ही नहीं सकता। तुम्हें जरूर भ्रम हुआ है। तुमने नींद में ही समझा होगा कि तुम्हें नींद नहीं आती, क्योंकि मुझे तो अच्छी तरह से मालूम है कि भारत में लोग सोने के सिवा कुछ भी नहीं करते। कोई दूसरी तकलीफ?’
पहले ही से अगर तय करके आया है आदमी, तो वह यह मानेगा ही नहंी कि यह बीमारी तुम्हे हो सकती हैं। असंभव! तो तुमने नींद में ही सपना देखा होगा कि मुझे नींद नहीं आती।
रूपचंद, अपनी समझ दरवाजे के बाहर छोड़ कर आओ। फिर तुम देखोगे, बातें मेरी बहुत सीधी-साफ हैं। इतनी सीधी-साफ बात कभी कही नहीं गयी है जैसी मैं तुमसे कह रहा हूं। दो टूक है।
नसरुद्दीन तेजी से एक जानवरों को बेचने वाली दुकान में घुसा और दुकानदार से बोला: ‘महोदय मुझे पांच सौ खटमल और करीबन दो हजार मच्छर चाहिए।’
दुकानदार तो चैंका और बोला कि महोदय, मिल तो जाएंगे, मगर आप उनका करेंगे क्या? नसरुद्दीन बोला जनाब दरअसल बात यह है कि मकान मुझे उसी हालत में छोड़ना चाहिए जैसा कि वह किराए पर लेने के वक्त था। तो वह खटमल और मच्छर और चुहे सब इकट्ठे कर रहा है। दीवालें खोद रहा है, फर्श में गड्ढे बना रहा है, छप्पर तोड़ रहा है। पूर्व-अवस्था में करके जाएगा।
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी गुलजान को किसी कारणवश अदालत जाना पड़ा। मजिस्ट्रेट ने उससे पूछा कि क्या आप बताएंगी, आपकी उम्र क्या है?
गुलजान बोली: ‘जी यही बाईस साल, कुछ महिने।’
मजिस्ट्रेट ने शक से पूछा: ‘बाईस साल कुछ महिने! आखिर कितने महिने?’
‘बाईस साल चैरासी महिने।’ गुलजान ने जवाब दिया।’
तुम्हारी धारणाओं का मुझे पता नहीं, कौन सी बातें अड़चन दे रही हैं। लेकिन जरूर कुछ धारणाएं होंगी, अन्यथा मैं कोई कठिन बात कह रहा हूं? सीधी-सीधी बात कह रहा हूं, सरल सी बात कह रहा हूं कि मन को साक्षी-भाव से देखना है, ताकि तुम धीरे-धीरे मन से हट जाओ और साक्षी हो जाओ। मन से हट जाओ और अपनी अवस्था में पहुंच जाओ। अब इससे सरल और क्या है?
मुल्ला नसरुद्दीन का नयी-नयी शादी हुई। सुहागरात की रात गुलजान ने जल्दी से अपने कपड़े उतारे, साज-संवार की, बिस्तर पर लेट गयी। लेकिन नसरुद्दीन खिड़की के पास कुर्सी रख कर बैठा है सो बैठा है। थोड़ी देर गुलजान ने राह देखी।....जीवन भर की प्रतीक्षा, और इसको क्या हुआ है! आखिर उसने कहा कि नसरुद्दीन, बिस्तर पर नहीं आना है? सुहागरात नहीं मनानी है?
नसरुद्दीन ने कहा: ‘वही मना रहा हूं। तू सो जा, बीच में बकवास न कर! मेरी मां ने मुझसे कहा था कि सुहागरात की रात बस एक ही बार आती है, सो खिड़की के पास बैठ कर रात को देख रहा हूं। आत रात सोऊंगा नहीं। यह रात फिर दुबारा नहीं आनी। तू सो जा। तुझसे तो कल मिल लेंगे। मगर यह सुहागरात की रात, यह चांद, ये तारे, ये फिर दुबारा नहीं आने। मेरी मां ने बार बार मुझे जता कर कहा था कि बेटा नसरुद्दीन, सुहागरात एक ही बार आती है। अब तू दखलंदाजी न कर।’
जरूर रूपचंद कुछ अदभुत समझ ले कर तुम यहां आए होओगे। हिंदू की समझ, मुसलमान की समझ, ईसाई की, जैन की, पता नहीं कौन सी समझ! कौन सी किताबें तुम्हारी खोपड़ी में भरी हैं,पता नहीं! कौन-सी दीवालों को पार करके मेरे शब्द तुम्हारे भीतर पहुंच रहे हैं, पता नहीं! मगर दीवारें होगी।
तुम बहरे हो, अन्यथा मैं जो कह रहा हूं इसको समझने के लिए क्या कोई बहुत बड़ी गणित, विज्ञान, कोई बहुत बड़ी कला चाहिए? दो और दो चार होते हैं, ऐसी सीधी बात कह रहा हूं।
रात को होटल का कमरा बहुत ठंडा हो गया था। चंदूलाल एक कम्बल के नीचे ठिठुरा जा रहा था। तो उसने सोचा कि एक कंबल बुलाने के लिए उसने रिसेप्शनिस्ट को फोन किया: ‘सुनिए मिस, मुझे बहुत सर्दी लग रही है। आपकी बड़ी मेहरबानी होगी अगर आप...’
चंदूलाल पूरी बात भी नहीं कह पाया था कि जवाब मिला: ‘अच्छा-अच्छा, मैं अभी दो मिनिट के अंदर आपकी खिदमत में पेश होती हूं। तब तक आप कपड़े वगैरह उतार कर तैयार रहिए।’
तुम अपनी समझ छोड़ो। मेरी बातें तो सीधी-साफ हैं।
तुम पूछते हो: ‘मैं तो आपको समझने की कोशिश करते थक गया।’
अच्छा हुआ थक गये। अगर सच में थक गये हो तो अब छोड़ दो अपनी समझ। अब और न लड़ो। अब गिर जाने दो अपनी समझ को। उसी की वजह से कुछ समझ में नहीं आ रहा है।
उडियो पंख पसार
ओशो
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