खलील जिब्रान ने अपनी
पहली किताब, प्रोफेट, इक्कीस साल की उम्र में लिखी, बस चुक गया। फिर बहुत किताबें लिखीं, लेकिन वे सब पुनरुक्तियां हैं। फिर
प्रोफेट के आगे कोई बात नहीं कह सका। इक्कीस साल में मर गया, एक अर्थ में। एक अर्थ में, खलील जिब्रान इक्कीस साल में मर जाए, तो कोई बड़ी हानि होने वाली नहीं थी। जो वह
दे सकता था, दिया जा चुका
था, चुक गया।
अगर पिकासो के चित्र
उठाकर देखें, तो पुनरुक्ति
ही है फिर। फिर वही-वही दोहरता रहता है। फिर आदमी जुगाली करता है, जैसे भैंस घास खा लेती है और जुगाली करती
रहती है। अंदर जो डाल लिया, उसी को
निकालकर फिर चबा लेती है।
लेकिन परमात्मा जुगाली
नहीं करता, अनंत है उसकी
सृजनशीलता, इनफिनिट
क्रिएटिविटी। जो एक दफा बनाया,
बनाया। उस माडल को फिर नहीं दोहराता। लेकिन हमारा मन होता है कि किसी को देखकर
हम आकर्षित हो जाते हैं कि ऐसे हो जाएं। बस,
भूल की यात्रा शुरू हो गई।
परधर्म लुभाता है, क्योंकि परधर्म खिला हुआ दिखाई पड़ता है।
स्वधर्म का पता नहीं चलता, क्योंकि वह
भविष्य में है। परधर्म अभी है,
पड़ोस में खिला है; वह आकर्षित
करता है कि मैं भी ऐसा हो जाऊं।
कृष्ण जब कहते हैं कि
स्वधर्म में हार जाना भी बेहतर है,
परधर्म में सफल हो जाने के बजाए,
तो वे यह कह रहे हैं कि परधर्म से सावधान। परधर्म भयावह है। इससे बड़ी फिअरफुल
कोई चीज नहीं है जगत में, परधर्म से।
दूसरे को अपना आदर्श बना लेने से बड़ी और कोई खतरनाक बात नहीं है, सबसे ज्यादा इससे भयभीत होना। लेकिन हम
इससे कभी भयभीत नहीं हैं। हम तो अपने बच्चों को कहते हैं कि विवेकानंद जैसे हो जाओ, रामकृष्ण जैसे हो जाओ, बुद्ध जैसे हो जाओ, मोहम्मद जैसे हो जाओ। जैसे कि परमात्मा
चुक गया हो, कि मोहम्मद को
बनाकर अब कुछ और अच्छा नहीं हो सकता है,
कि कृष्ण को बनाकर अब कुछ होने का उपाय नहीं रहा है। जैसे परमात्मा हार गया और
अब आपके लिए सिर्फ रिपिटीशन के लिए भेजा है,
पुनरुक्ति के लिए, डिट्टो आपको
लगाकर भेज दिया है कि बस हो जाओ किसी के जैसे। जैसे कार्बन कापी होने का ही आपका
अधिकार है।
नहीं, परमात्मा चुकता नहीं है। कृष्ण के इस
सूत्र में बड़े कीमती अर्थ हैं,
भयावह है परधर्म। अगर भयभीत ही होना है,
तो मौत से भयभीत मत होना। कृष्ण नहीं कहेंगे कि मौत से डरो। जो आदमी कहता है, मौत से मत डरो, वह आदमी कहता है, परधर्म से डरो! मौत से भी ज्यादा खतरनाक
है परधर्म! क्यों? क्योंकि
परधर्म स्युसाइडल है। जिस आदमी ने दूसरे के धर्म को स्वीकार कर लिया, उसने आत्महत्या कर ली। उसने अपनी आत्मा को
तो मार ही डाला, अब वह दूसरे
की आत्मा की कापी ही बनने की कोशिश में रहेगा।
और कोई कितनी ही कोशिश
करे, आवरण ही बदल सकता है।
भीतर की आत्मा तो जो है अपनी, वही है। वह
कभी दूसरे की नहीं हो सकती। भयावह है मृत्यु से भी ज्यादा परधर्म, क्योंकि आत्मघात है। आत्मघात जिसे हम कहते
हैं, उससे भी ज्यादा भयावह
है। क्योंकि जिसे हम आत्मघात कहते हैं,
उसमें सिर्फ शरीर मरता है,
और जिसे कृष्ण भयावह कह रहे हैं,
उसमें आत्मा को ही हम दबाकर मार डालते हैं, आत्मा को ही घोंट डालते हैं।
दूसरे के धर्म से
सावधान होने की जरूरत है और स्वधर्म पर दृष्टि लगाने की जरूरत है। इस बात की खोज
करने की जरूरत है कि मैं क्या होने को हूं?
मैं क्या हो सकता हूं? मेरे भीतर
छिपा बीज क्या मांगता है? और साहसपूर्वक
उस यात्रा पर निकलने की जरूरत है।
गीता दर्शन
ओशो
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