बुद्ध-पुरुषों के पास होना सौभाग्य है।
लेकिन उनकी लीक पर चल पड़ना दुर्भाग्य है। उनसे तुम बुद्धत्व सीखना, आचरण नहीं। उनके जीवन की बाह्य रूपरेखा को
तुम अपने जीवन का नक्शा मत बनाना। क्योंकि एक व्यक्ति के जीवन की बाह्य रूपरेखा
दूसरे के लिए कारागृह सिद्ध होती है। क्योंकि तुम पृथक हो, तुम भिन्न हो। तुम बस, तुम ही जैसे हो।
तो किसी भी दूसरे के नक्शे से अगर तुमने
अपने जीवन का ढांचा बनाया, तो तुम्हारा
अपना ढांचा कुंद हो जाएगा। तुम्हारे अपने विकसित होने की संभावनाएं क्षीण हो
जाएंगी। वह दूसरा तुम्हारे लिए कारागृह बन जाएगा।
बुद्ध-पुरुषों के पास कारागृह निर्मित कर
लेना बहुत आसान है। दुनिया के सभी कीमती कारागृह बुद्ध-पुरुषों के आसपास निर्मित
हुए हैं। उनका नाम चाहे इस्लाम हो,
चाहे हिंदू हो, बौद्ध हो, चाहे जैन हो। ये जो बड़े-बड़े कारागृह
हैं--संप्रदायों के, ये
बुद्ध-पुरुषों के पास निर्मित हुए हैं।
और बुद्ध-पुरुषों के पास जब कोई कारागृह
निर्मित होता है, तो वह
करीब-करीब स्वर्ण का है। उसे छोड़ने का मन भी न होगा। उससे तुम चिपटोगे, उसे तुम पकड़ोगे। और इन कारागृहों के बाहर
किसी भी संतरी को खड़ा करने की जरूरत नहीं है। तुम खुद ही भागना न चाहोगे।
इस बात को स्मरण रखना।
लेकिन मध्य का बिंदु क्या होगा? प्रभावित भी होना, अनुकरण भी मत करना। बड़ी विरोधाभासी बात
है। क्योंकि तुम तो जैसे ही प्रभावित होते हो, वैसे ही अंधानुकरण पैदा हो जाता है। तुम्हारे लिए तो
प्रभावित होने का अर्थ ही यह होता है कि अनुकरण करो।
बुद्ध-पुरुषों से जो भी तुम लेना, बस वैसे ही ज्योति लेना, जैसे एक दीया--बुझा हुआ दीया दूसरे जलते
हुए दीये से ज्योति ले लेता है,
फिर स्वयं चल पड़ता है--अपनी यात्रा पर। फिर उसकी ज्योति-धारा अपनी ही होती है; अपना ही तेल जलता है, अपना ही दीया होता है।
एक झलक, एक छलांग और आग एक दीये से दूसरे दीये में प्रवेश कर जाती
है। प्रभावित होने का इतना ही अर्थ है कि बुद्ध पुरुषों के पास तुम्हारी प्यास जग
जाए, आग पकड़ जाए।
जीसस ने कहा हैः ‘जो मेरे पास हैं, वे आग के पास हैं। और जो मेरे पास नहीं
हैं, परमात्मा का राज्य
उनसे बहुत दूर है। ... जो मेरे पास हैं,
वे आग के पास हैं। जो मेरे पास नहीं हैं,
परमात्मा का राज्य उनसे बहुत दूर है।’
आग के पास होना, बस,
इतने ही अर्थ में उपयोगी है कि एक छलांग लगे और आग तुम्हें पकड़ जाए। लेकिन तुम
नकल मत करना, क्योंकि नकल
की आग झूठी होगी। उसे तुम ऊपर से तो धारण करोगे, भीतर तुम अंधेरे रहोगे।
कितना आसान है--बुद्ध-पुरुषों जैसे वस्त्र
पहन लेना। कितना आसान है--उनके जैसे उठना,
बैठना, चलना, और कितना कठिन है, उनके जैसा हो जाना! वह जो भीतर है, वह जो जीवंत ज्योति भीतर है, उसके जैसा हो जाना अति कठिन है। इसलिए हम
सुगम मार्ग खोजते हैं।
मन सदा ही लीस्ट रेसिस्टेंस--जहां कम से
कम असुविधा हो, उसको चुनता
है। असुविधा इसमें कुछ भी नहीं है कि तुम बुद्ध जैसा वस्त्र पहन लो, कि तुम बुद्ध जैसे उठो--बैठो; बुद्ध जो भोजन करें, तुम भी करो; बुद्ध जब सोएं,
तब तुम भी सो जाओ। तुम बाहर से बिल्कुल अभिनय करो।
अभिनेता हो जाना सबसे सरल है। लेकिन
अभिनेता प्रामाणिक नहीं है। अभिनेता एक झूठ है। और तुम भलीभांति जानते रहोगे कि
अभिनय बाहर-बाहर है। भीतर तुम्हें अपना अंधकार, अपनी नग्नता,
अपनी सड़ी-गली स्थिति दिखाई पड़ती रहेगी।
तुम उसे कैसे छिपाओगे? वस्त्र कितने ही सुंदर हों, और आभूषण कितने ही मूल्यवान, लेकिन तुम्हारे भीतर के नासूर उनसे
मिटेंगे नहीं, छिपेंगे भी
नहीं।
तो बुद्ध-पुरुषों से यह सीखना कि तुम अपने
मार्ग पर कैसे चलो। बुद्ध-पुरुषों से अनुकरण मत सीखना। उनसे तुम यह सीखना कि
तुम्हारा बुद्धत्व कैसे जगे। आंख बंद करके अंधे की भांति उनके पीछे मत चलना।
क्योंकि उनका मार्ग, तुम्हारा
मार्ग कभी भी होने वाला नहीं है। इसलिए जो अनुकरण करेगा, वह भटक जाएगा।
सहज समाधि भली
ओशो
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