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Friday, February 14, 2020

एक मित्र ने पूछा है कि इजिप्त के पिरामिड के संबंध में आपने कहा कि उनकी सभ्यता, संस्कृति ऊंचाई के एक शिखर पर थी। लेकिन उन लोगों ने पिरामिडों के भीतर मनुष्यों के मृत शरीर रखे हैं, ममीज रखी हैं; और उनमें खाना-पीना, कपड़े, जवाहरात, इस तरह का सामान भी रखा है, ताकि उनको मरने के बाद के सफर में काम आए। तो यह समझाएं कि जो इतनी ऊंचाई पर पहुंचे हुए सभ्य लोग थे, क्या उन्हें यह भी पता नहीं था कि मरने के बाद यह कुछ भी काम नहीं आता है?


इस संबंध में दो बातें समझ लेनी चाहिए। एक तो जब कोई व्यक्ति मर जाता है, तो जो हम करते हैं, उसका संबंध हमसे है, उस व्यक्ति से नहीं है। आपकी मां मर गई है, या पिता मर गए हैं, ऐसे ही घर के बाहर फेंक दे सकते हैं; दफनाने की कोई भी जरूरत नहीं है, मरघट तक ले जाने का भी कष्ट उठाना फिजूल है। क्योंकि लाश का अब क्या मरघट तक ले जाना? शरीर को ही ले जा रहे हैं न, आत्मा तो उड़ चुकी है। अब इस शरीर को आप बैंड-बाजे से ले जाएं तो पागलपन है। मरघट पर जाकर आप इस मरे हुए शरीर पर आंसू गिराएं, पागलपन है। ध्यान रहे, जो आप कर रहे हैं, वह मरे हुए पिता या मां के लिए नहीं है, वह आपके लिए है।

जिन्होंने इजिप्त के ममीज में कपड़े रखे हैं, रोटी रखी है, और सामान रखा है, उन्होंने केवल इतनी खबर दी है, यह जानते हुए भी कि मरे हुए आदमी के यह कुछ भी काम नहीं आएगा, उनका प्रेम नहीं मानता है, उनका प्रेम चाहता है कि वे जो कुछ कर सकें मरे हुए आदमी के लिए, वह भी करें।


इस फर्क को ठीक से समझ लें। मरा हुआ आदमी कहां है, आपको पता नहीं; उसके लिए क्या उपयोगी है, यह भी पता नहीं। प्रार्थना, पूजा, उसकी आत्मा की शांति का प्रयास, यह सब अब आप उसके लिए कर सकते हैं; उस तक पहुंचेगा, यह भी आपको पता नहीं। लेकिन आप कर रहे हैं। अगर ठीक से समझें तो यह आप अपने लिए कर रहे हैं। यह आपके प्रेम का प्रदर्शन है। और इससे आपको राहत मिलेगी, मरे हुए आदमी को नहीं।


आपके पिता मर गए हैं और पितृपक्ष में आप कुछ कर रहे हैं। इससे कोई आपके पिता को कुछ हो जाने वाला है, ऐसी भूल में मत पड़ जाना। पर कुछ आप कर रहे हैं, यह आपके लिए, यह आपके हृदय के लिए, आपके प्रेम के लिए है। यह आपकी अपनी सांत्वना है।


किसी का पति मर गया है। और अगर उसने उसके साथ भोजन का सामान रख दिया है, तो यह पति मरा हुआ भोजन करेगा, ऐसा नहीं है। लेकिन जिसने जीवन भर इस पति के लिए भोजन बनाया था, वह मृत्यु के क्षण में भी इस भोजन को साथ रख देना चाहेगी।


अगर इस तरह देखेंगे तो खयाल आएगा कि सभ्यता का अर्थ ही क्या होता है? सभ्यता का अर्थ ही होता है, प्रेम का गहन और विस्तीर्ण हो जाना।

निश्चित ही वे लोग सभ्य थे और उनका हृदय भी सभ्य था। और केवल मस्तिष्क की सभ्यता होती तो आप जो कह रहे हैं, वही उन्होंने भी सोचा होता कि क्या फायदा है? क्या फायदा है? सच तो यह है कि बाप की हड्डी-पसली निकाल कर बेच देना चाहिए। कुछ पैसे मिल सकते हैं, वह फायदे की बात है। शरीर को व्यर्थ जला आते हैं, उसका कोई मतलब भी तो नहीं है। सब बेचा जा सकता है सामान। लेकिन वह आप न कर पाएंगे; यह जानते हुए भी कि बाप की आत्मा को अब इससे कुछ नुकसान होने वाला नहीं है। जो शरीर छूट गया, वह छूट गया। अब इसको जला दे रहे हैं, इससे तो बेहतर है बाजार में बेच दें। अगर बुद्धि ही पास में होगी तो यही उत्तर ठीक मालूम पड़ेगा। लेकिन फिर भी आप बेचना न चाहेंगे। भीतर हृदय में कहीं चोट लगेगी।


यह शरीर ही बचा है अब, और मिट्टी है, यह बात साफ है। और इस मिट्टी के साथ अब कुछ पैसे और हीरे-जवाहरात रख देना असभ्यता का लक्षण नहीं है; हृदय भी एक ऊंचाई पर रहा होगा, इसकी खबर है।

पर बड़ी कठिनाई होती है; क्योंकि जो सभ्यताएं खो जाती हैं, उनके बाबत हम कुछ भी सोचते हैं, वह हमारा ही विचार होता है। पश्चिम के जिन लोगों ने इन ममीज को खोदा है और इनमें सामान पाया है, उन्होंने यही सोचा कि मरा हुआ आदमी इनका उपयोग कर सकेगा, इसलिए ये चीजें रखी गई हैं।

ये चीजें इसलिए नहीं रखी गई हैं। प्रेम मरे हुए को भी मरा हुआ नहीं मान पाता है। और जहां प्रेम नहीं है, वहां जिंदा आदमी भी मरा हुआ ही है।

ताओ उपनिषद 

ओशो

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