जीवन दुख है, यह कोई दार्शनिक
धारणा नहीं। ऐसा बुद्धपुरुष सोचते नहीं हैं कि जीवन दुख है, ऐसी उनकी मान्यता नहीं है कि जीवन दुख है, जीवन को दुख सिद्ध करने में उनका कोई आग्रह
नहीं है, जीवन ऐसा है। यह जीवन का
तथ्य है। इसे तुम लाख झुठलाओ, झुठला न पाओगे।
इसे तुम लाख दबाओं, दबा न पाओगे। यह
उभर—उभरकर प्रगट होगा। और जब
उभरेगा, तब बहुत दुखी कर जाएगा।
क्योंकि तुम तो मानकर जीते हो कि जीवन सुख है, फिर उभरता है दुख। सुख की धारणा जब—जब टूटेगी, तभी—तभी तुम दुखी हो जाओगे।
तुम्हारे जीवन की विपन्नता जीवन के दुख—स्वभाव के कारण नहीं है, तुम्हारे जीवन की विपन्नता जीवन को सुख मानना और फिर सुख न
पाने के कारण है। तुमने कांटे को फूल समझा, फूल समझकर छाती से लगाया, तुमने बड़ी आशाएं कीं, बड़े सपने संजोए, और फिर कांटा चुभा, तुम्हारे सपने टूटे,
तुम्हारी आशाएं सी, तो विपन्नता पैदा होती है।
अगर तुमने कांटे को काटा समझा तो पहली तो बात, तुम छाती से न लगाओगे। तुम चुभने के खतरे से बाहर हो गए। और
तुमने कांटे को काटा समझा और अगर वह चुभ भी गया, तो भी तुम विपन्न न हो जाओगे। तुम समझोगे कि कांटा तो कांटा
है, चुभेगा ही, सावधानी से चलना चाहिए, होशियारी से चलना चाहिए, बोध से चलना चाहिए। रोने का क्या है, अगर कांटा चुभ जाए तो इसमें छाती पीटने को क्या है! लेकिन
तुम मानते हो फूल, निकलता है काटा,
फिर तुम बहुत छाती पीटते हो, फिर तुम जार—जार रोते हो। तुम्हारी विपन्नता तुम्हारी मान्यता की असफलता
के कारण पैदा होती है।
अगर बुद्धपुरुषों की बात तुम्हें खयाल में आ जाए, तो तुम्हारी विपन्नता तो समाप्त हो गयी। जो जैसा है,
उसको वैसा ही जान लिया। अपेक्षा न रही, तो अपेक्षा के टूटने का उपाय भी न रहा। और जब
अपेक्षा टूटती नहीं, फिर कैसी
विपन्नता! दूर मरुस्थल में तुम भटके हो, प्यासे तडूफ रहे हो और दिखायी पड़ा मरूद्यान, अगर है मरूद्यान, तब तो ठीक, पहुंचकर तुम सुखी
हो जाओगे। मरूद्यान अगर नहीं है, तो यह जो दौड़—
धाप करोगे, इसमें और प्यासे हो जाओगे। और मीलों चलने के बाद जब पाओगे
कि मरूद्यान नहीं है, तो मूर्च्छित
होकर न गिर पड़ोगे तो क्या करोगे! फिर जो श्रम इस झूठे मरूद्यान को खोजने में लगाया,
वही श्रम सच्चे मरूद्यान को खोजने में लग सकता
था।
तो पहली बात, जीवन दुख है,
यह कोई धारणा नहीं है, ऐसा जीवन का तथ्य है। ऐसा जीवन है। बुद्ध कहते हैं, जैसा जीवन है उसे वैसा जान लो। जानते ही दो
बातें घटेंगी। एक, तब जीवन से
तुम्हारी कोई अपेक्षा न रह जाएगी। कभी कितना ही दुख होगा फिर, तो भी तुम जानोगे—होना ही था। एक स्वीकार होगा। एक सहज स्वीकार होगा। उस सहज
स्वीकार में विपन्नता खड़ी नहीं होती, हो नहीं सकती। अगर पत्थर पत्थर है, तो क्या विपन्नता है! मिट्टी मिट्टी है, तो क्या विपन्नता है! लेकिन मिट्टी को तुम तिजोड़ी में
सम्हालकर रखे रहे और एक दिन खोला और पाया मिट्टी है, और अब तक सोचते थे सोना है, तो विपन्नता है। विपन्नता का अर्थ है, जैसा सोचा था वैसा न पाया। कुछ का कुछ हो गया।
जहां प्रेम सोचा था, वहां घृणा पायी,
जहा मित्रता सोची थी, वहां शत्रुता मिली, जहा धन सोचा था, वहा धोखा था।
तो पहली तो बात, तुम धोखे से
मुक्त हो गए, अगर तुमने जीवन
को दुख की तरह देख लिया, जैसा कि जीवन है।
जो धोखे से मुक्त हो गया, उसके जीवन में
बड़ी शांति आ जाती है।
एस धम्मो सनंतनो
ओशो
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