अर्जुन मोह से भरा है। मोह का अर्थ है, संसार से जुड़ा होना। मोह का अर्थ है, जिससे तुम्हारे और संसार के बीच सेतु बन जाए। मोह सेतु है, जिससे तुम पराए की यात्रा पर निकलते हो। आसक्ति की, ममत्व की, संसार की दौड़
पर जाते हो।
अर्जुन को दिखाई पड़ रहा है, मेरे हैं, पराए हैं, मित्र हैं, प्रियजन हैं, शत्रु हैं। इन सब को मारकर अगर मैं सिंहासन को पा भी लिया, तो अपनों को ही मारकर पाए गए सिंहासन में क्या अर्थ होगा!
इस योग्य मालूम नहीं पड़ती इतनी बड़ी हिंसा कि सिंहासन के लिए पाने चलूं।
तो यहां थोड़ा समझने जैसा है। जो ऊपर से
देखेगा, उसे तो लगेगा कि अर्जुन लोभ के ऊपर उठ रहा
है। क्योंकि वह कह रहा है, क्या करूंगा
इस सिंहासन को! क्या करूंगा इस राज्य—साम्राज्य को!
क्या करूंगा धन—संपदा को! अगर अपनों को ही मारकर यह सब
मिलता हो, इतने खून—खराबे पर अगर
यह महल मिलता हो। रक्त से भर जाएगा सब और खाली सिंहासन पर मैं बैठ जाऊंगा, इसका क्या मूल्य है?
ऊपर से देखने पर लगेगा कि अर्जुन का लोभ
टूट गया है। लेकिन लोभ तो टूट नहीं सकता, जब तक मोह है।
और भीतर तो वह यह कह रहा है, ये मेरे हैं, इन्हें मैं कैसे मारूं! अगर ये पराए होते, तो उसे मारने में कोई अड़चन न होती। यह प्रश्न ही न उठता
उसके मन में।
इनके साथ ममत्व है, भाईचारा है, बंधु—बांधव हैं। कितनी ही शत्रुता हो, तो भी साथ ही बड़े हुए हैं, एक ही परिवार
में बड़े हुए हैं। एक ही घर के दीए हैं। मोह है।
अगर अर्जुन का लोभ सच में ही समाप्त हो
गया होता, तो मोह। की जड़ें नहीं हो सकती थीं, क्योंकि लोभ का वृक्ष मोह की जड़ों पर ही खड़ा है।
कृष्ण को देखते अड़चन न हुई होगी कि यह बात
तो बड़ी। अलोभ की करता है, लेकिन मोह पर
आधार है। इसलिए यह झूठा आधार है।
जब तक मोह न टूट जाए तब तक लोभ टूटेगा
नहीं। और पत्तों को कांटने से कभी भी कुछ नहीं होता, जड़ें ही
कांटनी चाहिए। लोभ तो पत्तों जैसा है, मोह जड़ों जैसा
है। मोह संसार से जोड़ता है।
कभी—कभी ऐसा भी हो
सकता है कि मोह के कारण ही तुम संसार भी छोड़ दो। लेकिन वह छोड़ना झूठा होगा।
किसी की पत्नी मर गई। बहुत लगाव था, बड़ी आसक्ति थी।
और अब लगा कि पत्नी के बिना कैसे जी
सकूंगा; नहीं जी सकता हूं। वैसा आदमी संसार छोड्कर
हिमालय चला गया।
उसने संसार छोड़ा? नहीं छोड़ा। क्योंकि वह कहता है, पत्नी के बिना कैसे जी सकूंगा। उसने संसार छोड़ा नहीं है।
पत्ते काटे हैं; जड़ को सम्हाला। वह यह कह रहा है, पत्नी के बिना मैं जी ही नहीं सकता। पत्नी होती, तो बड़े मजे से जीता।
उसकी शर्त थी संसार के साथ। वह शर्त पूरी
नहीं हुई। वह संसार छोड़ नहीं रहा है। वह बड़ा गहरा संसारी है। शर्त को पूरा करना
चाहता था। वह पूरी नहीं हुई। तो छोड़ता है। लेकिन छोड़ना पछतावे में है, पीड़ा में है।
जो त्याग पीड़ा से और दुख से पैदा हो, वह त्याग नहीं है। जो आनंद और अहोभाव से पैदा हो।
संसार छोड़ा जाए किसी असफलता के कारण—कि दिवाला निकल गया, कि जीवन में
असफलता मिली, कि बेटा मर गया, कि घर में आग लग गई—ऐसी अवस्थाओं
में अगर कोई संसार छोड़ दे, तो वह छोड़ना
छोड़ना है ही नहीं। क्योंकि मेरा घर था, जिसमें आग लग
गई, उसकी पीड़ा है। घर मेरा था ही नहीं. कभी। पत्नी मेरी थी, जो चल बसी। पत्नी मेरी कभी थी ही नहीं। तो सारी भांति होगी।
अर्जुन बात तो अलोभ की करता मालूम पड़ता है; लेकिन भीतर मोह छिपा है। तो कृष्ण उसे मोह से तोड्ने की
चेष्टा कर रहे हैं। पूरी गीता में मोह से तोड्ने का उपाय है। और जिस दिन मोह से
कोई टूट जाता है, स्वयं से जुड़ जाता है।
मोह दूसरे से जोड़ता है, अन्य से, पराए से, अपने से, भिन्न से।
पत्नी हो, बेटा हो, पति हो, मित्र हो, धन हो, राज्य हो, स्वयं के
अतिरिक्त से जोड्ने वाला तत्व मोह है।
मोह टूट जाए तो दूसरे से तो हम अलग हुए।
और मोह की जगह जीवन में श्रद्धा आ जाए तो हम स्वयं से जुड़े, सत्य से जुड़े, परमात्मा से
जुड़े। जैसे मोह जोड़ता है संसार से, वैसे ही
श्रद्धा जोड़ती है परमात्मा से। मोह अहंकार का विस्तार है, श्रद्धा समर्पण का। इसलिए गीता के प्रत्येक अध्याय को कहा
गया है, योग—शास्त्र। वह
तोड़ता भी है, जो गलत है उससे। और जोड़ता भी है, जो सही है उससे।
गीता दर्शन
ओशो
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