कोई आदमी अंधेरे से कितना ही लड़े, वह चाहे गामा पहलवान ही क्यों न हो या
मोहम्मद अली क्यों न हो, लड़ता रहे
अंधेरे से, खूब ठोंके
ताल--खुद ही हारेगा, अंधेरा नहीं
हारेगा! धक्के दे अंधेरे को, बांधे
पोटलियां, फेंक आए बाहर; पोटलियां फिंक जाएंगी, अंधेरा वहां का वहां रह जाएगा। अंधेरे को
इंच भर सरकाया नहीं जा सकता।
और इसी में जिंदगी बीतेगी तो निश्चित
हीनता की ग्रंथि पैदा होगी कि मैं कैसा महापापी हूं कि यह छोटी सी बात से मेरा
छुटकारा नहीं होता! कामवासना में जकड़ा बैठा हूं, कैसा महापापी हूं! और तुम्हारे सारे धर्मगुरु समझा रहे हैं, लड़ो कामवासना से तो छुटकारा होगा! और तुम
यह भी नहीं देखते कि यह धर्मगुरु हजारों साल से कह रहे हैं। कम से कम पांच हजार
साल का तो लिखित इतिहास है; उससे भी पहले
से कह रहे हैं। पांच हजार साल में लड़वाते रहे, अब तक कामवासना का कुछ हल हुआ है? कामवासना बढ़ी है, घटी नहीं।
तुम्हारे लड़ने से तुम कमजोर हुए हो, शक्तिशाली नहीं। तुम्हारे लड़ने से तुम दीन
हुए हो, हीन हुए हो। क्योंकि
जब बार-बार हार हाथ लगती है तो आदमी के मन में विषाद पैदा होता है। जब बार-बार हार
हाथ लगती है तो आदमी के मन में अपने ही प्रति निंदा और घृणा पैदा होती है; अपनी दीनता, हीनता, असहाय अवस्था
का भाव पैदा होता है। आदमी दुर्बल होता गया। आत्मविश्वास खो दिया है आदमी ने, क्योंकि उसे ऐसी चीजें करने को कही गई हैं
जो हो ही नहीं सकतीं।
जैसे कोई तुमसे कहे कि इस वर्तुल को चौकोर
करो! अब अगर वर्तुल को चौकोर करोगे तो वह वर्तुल न रहा। अगर वर्तुल को वर्तुल
रखोगे तो चौकोर नहीं हो सकता। उलझा दिया किसी ने तुम्हें एक झंझट में। अब तुम फंस
गए। न कभी वर्तुल चौकोर होगा, न कभी तुम इस
जाल के बाहर आओगे। और स्वभावतः जितने तुम फंस जाओगे उतने ही तुम पूछने जाओगे। और
तुम्हें पता नहीं कि जिनसे तुम पूछने जा रहे हो वे भी तुम जैसे ही फंसे हैं; किन्हीं औरों ने उन्हें फंसाया है। फंसाव
बड़े पुराने हैं, बड़े प्राचीन, उनकी बड़ी लंबी परंपराएं हैं।
मैं तुम्हें सीधे सूत्र की बात कह रहा
हूं। मैं कहता हूं, अंधेरे से मत
लड़ो। पाप से लड़ना ही मत। सिर्फ भीतर प्रकाश है, उसकी तरफ आंख मोड़ो। तुम पीठ किए खड़े हो; प्रकाश को जलाना भी नहीं है, सिर्फ मुड़ना है। यह मुड़ना पल भर में हो
सकता है। पल भर में ही होगा। इसके लिए कोई जन्म-जन्म लगेंगे मुड़ने के लिए? एक झटके में हो जाएगा। इधर आंख बंद कि उधर
दिखाई पड़ जाएगा। और जैसे ही तुम्हें प्रकाश दिखाई पड़ा, अंधेरा गया। फिर तुम करना भी चाहो पाप तो
न कर सकोगे।
फिरोज, कितने ही गुनाह किए हों, क्या खाक गुनाह किए होंगे! परमात्मा की करुणा तुम्हारे
गुनाहों से बहुत बड़ी है। जरा सोचो,
क्या गुनाह करोगे, जो परमात्मा
की करुणा की बाढ़ आएगी उसमें बह न जाएंगे?
सब बह जाएंगे। तुम्हारा प्रश्न तो ऐसे ही है जैसे कोई पूछे कि क्या बीमार आदमी
की भी चिकित्सा हो सकती है?
बीमार की न होगी तो और किसकी होगी? अगर कोई चिकित्सक यह शर्त लगा दे कि केवल
मैं स्वस्थ लोगों की चिकित्सा करूंगा,
तो तुम उसको क्या कहोगे? चिकित्सक
कहोगे या पागल कहोगे?
गुनहगार हो, अच्छे लक्षण हैं। बीमारी का पता है, इलाज हो सकता है। निदान हो ही गया, अब औषधि की जरूरत है। क्या तुम सोचते हो
औषधि केवल स्वस्थ लोगों पर काम करती है?
तो वह क्या औषधि है! औषधि बीमारी पर काम करती है। और बीमारी पहले नहीं छोड़नी
पड़ती; औषधि पहले लेनी पड़ती
है, बीमारी फिर छूटती है।
ध्यान औषधि है।
उत्सव आमार जाती आनंद आमार गोत्र
ओशो
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