कोई भी कृत्य करने वाले को अछूता नहीं
छोड़ता है। विचार भी करने वाले को अछूता नहीं छोड़ता है। अगर आप घंटेभर बैठकर किसी
की हत्या का विचार कर रहे हैं,
माना कि अपने कोई हत्या नहीं की,
घंटेभर बाद विचार के बाहर हो जाएंगे। लेकिन घंटेभर तक हत्या के विचार ने आपको
पतित किया, आप नीचे गिरे।
आपकी चेतना नीचे उतरी। और आपके लिए हत्या करना अब ज्यादा आसान होगा, जितना घंटेभर के पहले था। आपकी हत्या करने
की संभावना विकसित हो गई। अगर आप मन में किसी पर क्रोध कर रहे हैं, नहीं किया क्रोध तो भी, तो भी आपके अशांत होने के बीज आपने बो दिए, जो कभी भी अंकुरित हो सकते हैं।
हमारी कठिनाई यही है कि मनुष्य की चेतना
में जो बीज हम आज बोते हैं, कभी-कभी हम
भूल ही जाते हैं कि हमने ये बीज बोए थे। जब उनके फल आते हैं, तो इतना फासला मालूम पड़ता है दोनों
स्थितियों में कि हम कभी जोड़ नहीं पाते कि फल और बीज का कोई जोड़ है।
जो भी हमारे जीवन में घटित होता है, उसे हमने बोया है। हो सकता है, कितनी ही देर हो गई हो किसान को अनाज डाले, छः महीने बाद आया हो अंकुर, सालभर बाद आया हो अंकुर, लेकिन अंकुर बिना बीज के नहीं आता है।
हम अशांति को उपलब्ध होते चले जाते हैं।
जितनी अशांति बढ़ती जाती है, उतना ही
ब्रह्म से संबंध क्षीण मालूम पड़ता है;
क्योंकि ब्रह्म से केवल वे ही संबंधित हो सकते हैं, जो परम शांत हैं। शांति ब्रह्म और स्वयं
के बीच सेतु है। जैसे ही कोई शांत हुआ,
वैसे ही ब्रह्म के साथ एक हुआ। जैसे ही अशांत हुआ कि मुंह मुड़ गया।
अशांत चित्त संसार से संबंधित हो सकता है।
शांत चित्त संसार से संबंधित नहीं हो पाता। अशांत चित्त परमात्मा से संबंधित नहीं
हो पाता। शांत चित्त परमात्मा में विराजमान हो जाता है।
गीता दर्शन
ओशो
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