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Saturday, February 8, 2020

उस दिन आपने कहा कि भगवान बुद्ध अपने भिक्षुओं के पास गए और उन्हें धन, काम और पद को छोड्कर बुद्धत्व प्राप्त करने और धर्म— श्रवण करने का बोध दिया। बुद्ध जीवन छोड़ने को कहते हैं और आप जीवन को उत्सव बनाकर जीने को कहते हैं, इससे हमें दुविधा पैदा होती है। इस पर कुछ प्रकाश डालने की अनुकंपा करें।




मन तो दुविधा पैदा करता ही है। दुविधा की बात जरा भी नहीं है, सीधीसीधी बात है। बुद्ध भी यही कह रहे हैं जो मैं कह रहा हूं मैं भी वही कह रहा हूं जो बुद्ध कह रहे हैं। बुद्ध कह रहे हैं, बाहर के जीवन में दुख है, इसे छोड़ो, ताकि तुम भीतर के अमृतमयी, आनंदमयी सुख को पा सको। मैं कह रहा हूं भीतर के आनंदमयी, अमृतमयी को पा लो, ताकि बाहर का जो है छूट जाए। बस कहने का भेद है। बुद्ध कहते हैं, आधा गिलास खाली है; और मैं कहता हूं आधा गिलास भरा है। दुविधा की कोई बात नहीं है। मेरा जोर भरे पर है, बुद्ध का जोर खाली पर है।

और भरे पर जोर देने का कारण है। क्योंकि तुम खाली की भाषा को न समझ पाओगे। तुम खाली से एकदम घबड़ा जाते हो, तुम डर जाते हो। खाली! तुम भाग खड़े होते हो। मैं तुम्हें भरे की बात कह रहा हूं भागने का कोई कारण नहीं है। मैं तुमसे यह नहीं कहता कि जीवन दुख है। मैं कहता हूं जीवन महासुख है, आओ भीतर। मगर मैं कह वही रहा हूं जो बुद्ध कहते हैं। बुद्ध कहते हैं, वहा दुख है, यहां आओ, मैं कहता हूं, यहां सुख है, यहां आओ। बाहर की बात मैंने छोड़ दी है। यहां तुम आने लगोगे तो बाहर का दुख अपने आप छूट जाएगा। इसलिए संसार छोड़ने पर मेरा जोर नहीं, संन्यास लेने पर जोर है। बुद्ध का संसार छोडने पर जोर है। मगर बात वही है। यह एक ही सूत्र को पकड़ने के दो ढंग हैं।

दुनिया बहुत बदल गयी बुद्ध के समय से। पच्चीस सौ साल में गंगा का बहुत पानी बह गया है। पच्चीस सौ साल पहले जो भाषा सार्थक मालूम होती थी, अब सार्थक नहीं मालूम होती। तुम्हें जो भाषा समझ में आ सकेगी वही मैं बोल रहा हूं। तो मैं कहता हूं परमात्मा उत्सव है। बुद्ध कहते हैं, दुखनिरोध। मैं कहता हूं आनंदउपलब्धि। मैं कहता हूं परमात्मा नृत्य है। बुद्ध कहते हैं, जीवन दुख है। मैं कहता हूं, अंतर्जीवन कमल का फूल है। बुद्ध कहते हैं, यह बहिर्जीवन कांटे ही कांटे हैं।

तुम फर्क समझ लेना। एक पहलू को बुद्ध कह रहे हैं, दूसरे पहलू को मैं कह रहा हूं। मगर ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। दुविधा तो मन पैदा कर देता है। मन तो दुविधा पैदा करना ही चाहता है। मन तो यही कहता है, दुविधा हो जाए तो झंझट मिटे। झंझट हो गयी, तो झंझट मिटी। झंझट मिटी यानी अब कुछ करने को नहीं रहाजब दुविधा ही खड़ी हो गयी तो अटके रह गए। अब दुविधा हल होगी जब देखेंगे।

तो मन तो दुविधा में बड़ा रस लेता है। वह कहता है, अब क्या करें, बुद्ध की मानें कि इनकी मानें! मैं तुमसे कहता हूं तुम किसी की भी मान लो, दोनों की मान ली। एक की मान लोदोनो की मान ली। या तो तुम बुद्ध की मानकर चल पड़ोअगर तुम्हें शून्य की भाषा जमती हो। कुछ लोग हैं जिन्हें जमती है। अगर तुम्हें जमती हो शून्य की भाषा तो बुद्ध की भाषा को सुन लो और मानकर चल पड़ो। अगर तुम्हें शून्य से भय लगता हो, तो मैं पूर्ण की भाषा बोल रहा हूं। तो तुम पूर्ण की भाषा मान लो।

दुविधा में मत अटके रहो। क्योंकि दुविधा में जो अटका, वह बहुत खो देता है। वह द्वार पर ही खड़ा रह जाता है, न भीतर जाता, न बाहर जाता, वह अटक गया।

दुविधा में दोई गए, माया मिली न राम।

एस धम्मो सनंतनो 

ओशो


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