हमारी सारी विचार की संपत्ति उधार है और
पराई है और दूसरों की है। यह चित्त की पहली परतंत्रता है और चित्त को सबसे पहले इस
परतंत्रता से मुक्त होना ही चाहिए। मनुष्य का नया जन्म तभी संभव होता है जब उसकी
चेतना उधार विचारों और पराई धारणाओं से मुक्त हो जाए। इसलिए स्वतंत्रता को मैं
पहला तत्व कहता हूं।
जो भी सत्य की खोज में जाना चाहते हैं, जिनके भीतर भी प्यास जगी है कि वे जानें
कि जीवन का अर्थ क्या है? जिनके भीतर भी
यह अभीप्सा सरकी है कि वे समझें कि यह सब जो है विराट, यह जो चारों तरफ फैली हुई सत्ता है, इसका प्रयोजन क्या है? यदि वे चाहते हैं कि जानें कि क्या है
अमृत और क्या है आनंद और क्या है परमात्मा?
तो स्मरण रखें, पहली शर्त, पहली भूमिका होगी, वे अपने चित्त को स्वतंत्रता की तरफ ले
जाएं, चित्त को स्वतंत्र कर
लें। अगर अंततः स्वतंत्रता चाहिए,
तो प्रथम चरण में ही स्वतंत्रता के आधार रख देने होंगे।
लेकिन हम सारे बंधे हुए लोग हैं। हम सारे
लोग किसी न किसी विश्वास से बंधे हुए हैं। और क्यों बंधे हुए हैं? इसलिए बंधे हुए हैं कि ज्ञान के लिए साहस
और श्रम करना होता है। और विश्वास के लिए कोई साहस और कोई श्रम करने की जरूरत नहीं
है। विश्वास करने के लिए किसी तरह की तपश्चर्या की, किसी तरह की साधना की कोई जरूरत नहीं है। किसी दूसरे पर
विश्वास कर लेने के लिए आपके भीतर अत्यंत साहस की कमी, श्रम की कमी, तपश्चर्या की कमी, गहरा आलस्य और तामसिक वृत्ति हो, तो विश्वास सहज हो जाता है। जो खुद नहीं
खोजना चाहता, वह मान लेता
है कि जो दूसरे कहते हैं, ठीक ही कहते
होंगे।
सत्य के प्रति जिसके मन में कोई श्रद्धा
नहीं है, वही सत्य के
संबंध में प्रचलित सिद्धांतों में श्रद्धा कर लेता है। सत्य के प्रति जिसकी प्यास
सच्ची नहीं है, वही केवल
दूसरों के दिए हुए विचारों पर विश्वास कर लेता है। अगर सत्य की अभीप्सा हो, तो कोई किसी धर्म में, कोई किसी सिद्धांत में, कोई किसी संप्रदाय में आबद्ध नहीं होगा।
खोजेगा, निज खोजेगा। अपने सारे
प्राणों की शक्ति लगा कर खोजेगा। और जो उस भांति खोजता है, वह निश्चित पा लेता है। और जो इस भांति
विश्वास करता चला जाता है, वह जीवन तो खो
देता है, लेकिन
जीवन-सत्य उसे उपलब्ध नहीं होता है।
जीवन-सत्य की उपलब्धि श्रम मांगती है और
तप मांगती है। लेकिन हम विश्वास कर लेते हैं। हम डरे हुए भयभीत लोग हैं। हम किसी
के चरण पकड़ लेते हैं। हम किसी की बांह पकड़ लेना चाहते हैं और जीवन के समाधान को
उपलब्ध हो जाना चाहते हैं। किसी गुरु की,
किसी साधु की, किसी संत की
छाया में हम भी तैर जाना चाहते हैं और तर जाना चाहते हैं। यह असंभव है। यह बिलकुल
ही असंभव है। इससे ज्यादा असंभव कोई दूसरी बात नहीं हो सकती है।
स्वतंत्रता चित्त की अनिवार्य शर्त है।
अमृत की दशा
ओशो
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