तैमूरलंग का नाम आपने सुना होगा, वह जब हिंदुस्तान आया, उसने
एक बहुत बड़े वृद्ध फकीर से पूछा, कि मैं सुनता हूं कि बहुत
अधिक नींद लेना बुरा है, बहुत सोना बुरा है। मैं तो बहुत
सोता हूं, क्या यह बुरा है? उस वृद्ध
फकीर ने कहा: तुम जैसे मनुष्यों का चौबीस घंटे सोना ही बेहतर है। बुरा आदमी सोया
रहे यह शुभ है। भले आदमी का जागना शुभ होता है, बुरे आदमी का
नहीं। उस फकीर ने कहा: जिस किताब में यह लिखा हो उसमें यह भी जोड़ लेना।
ऐसे ही मैं आपसे कहना चाहूंगा: शक्ति सदा शुभ नहीं है। शक्ति
केवल ज्ञान के ही हाथों में ही शुभ है,
अज्ञानपूर्ण हाथों में अशुभ और दुर्भाग्य है।
मनुष्य के जीवन का दुख इस केंद्रीय तथ्य पर निर्भर हो गया है:
भीतर है अज्ञान, बाहर है शक्ति। भीतर है अंधकार, बाहर है विज्ञान की
ज्योति। हाथ हैं अज्ञान के और शक्ति है महत्। उस शक्ति से जो भी हो रहा है वह घातक
हो रहा है। उस शक्ति से हमने जो भी जाना है, वही हमारे जीवन
के विरोध में खड़ा हो गया है। हमने जो भी बनाया है, वही हमारा
विनाश हो रहा है। इसलिए एक और प्रगति दिखाई पड़ती है, दूसरी
और मनुष्य के जीवन में एक आंतरिक ह्रास होता चला जाता है।
क्या हो? क्या रास्ता है? एक रास्ता है, उन लोगों ने सुझाया, जो मानते हैं कि मनुष्य पीछे
वापस लौट चले--वैज्ञानिक खोजों को छोड़ दे, वह जो शक्ति हाथ
में आई है उसे त्याग दे, वापस लौट चले पीछे की तरफ। यंत्रों
को छोड़ दे, यंत्र-विज्ञान को, टेक्नालॉजी
को छोड़ दे, जो उसने जान लिया है उसे भूल जाए और पीछे वापस
लौट चले। रीचर्ड से लेकर गांधी तक के लोगों ने यही सुझाव दिया है--पीछे वापस लौट
चलो।
लेकिन मैं आपसे कहूं,
जीवन में पीछे लौटना असंभव है। पीछे लौटने जैसी बात ही असंभव है।
कोई पीछे नहीं लौटता। और जो हमने जान लिया है उसे भूला नहीं जा सकता। वस्तुतः पीछे
की तरफ कोई रास्ता ही नहीं होता है कि लौटा जा सके। जिस समय से हम गुजर कर आगे आ
गए हैं वह कहीं भी नहीं है। अब उसमें पीछे जाना असंभव है। जैसे जवान आदमी पीछे
बचपन में नहीं जा सकता और बूढ़ा आदमी पीछे जवानी में नहीं जा सकता, वैसे ही मनुष्य का समाज भी पीछे जाने में असमर्थ है।
दो ही विकल्प दिखाई पड़ते हैं, एक तो जिस भांति हम आगे जा रहे हैं उसी भांति
आगे चले जाएं, जो कि खतरनाक मालूम होता है, जो कि आगे किसी बहुत बड़े गङ्ढे में ले जाएगा। दूसरा रास्ता जो लोग सुझाते
हैं वह यह है कि पीछे लौट जाएं, जो कि असंभव है।
जिस रास्ते पर हम हैं वह मौत में ले जाएगा। वह करीब-करीब मौत
में ले गया है। हम नाममात्र को जीवित हैं,
जीवन का कोई आनंद हमारे भीतर नहीं है। हम नाममात्र को जीते हुए कहे
जा सकते हैं। क्योंकि हम श्वास लेते हैं, क्योंकि हम चलते
हैं, और हमारी आंखें खुलती हैं और बंद होती हैं इसलिए हम
अपने को जीवित समझ लें, तो बात दूसरी है। लेकिन जीवन की
ऊर्जा, जीवन का संगीत, भीतर प्राणों का
आनंद कुछ भी नहीं है। अगर श्वास का चलना ही जीवन है तो दूसरी बात।
आगे एक रास्ता है,
जो हमें निरंतर-निरंतर नीचे ले जा रहा है, जड़ता
में ले जा रहा है। पीछे लौटने की बात व्यर्थ है, पीछे लौटना
संभव नहीं है। जो जान लिया जाता है वह भूला नहीं जा सकता। ज्ञान को पोंछना असंभव
है। फिर क्या है मार्ग? क्या कोई और मार्ग नहीं है?
मैं आपसे निवेदन करना चाहूंगा, और मार्ग है। जिस भांति हम विज्ञान के जगत में
आगे गए हैं, उसी भांति अगर हम आत्मज्ञान के जगत में भी आगे
जाएं तो मार्ग है। आगे भी मार्ग है। जितनी शक्ति और जितना ज्ञान हमने पदार्थ का
उपलब्ध किया है अगर उतना ही भीतर जो चेतना छिपी है उसका ज्ञान भी उपलब्ध हो तो
मार्ग है। और जो बाहर दिखाई पड़ता है उससे बहुत ज्यादा भीतर है। क्योंकि बाहर तो
जड़ता दिखाई पड़ती है, भीतर चैतन्य है। बाहर तो पदार्थ है,
भीतर तो पदार्थ से ज्यादा कुछ है। भीतर तो परमात्मा है।
धर्म और आनंद
ओशो
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