विद्यासागर एक नाटक देखने गए थे कलकत्ते में। और इतने उत्तेजित
हो गए नाटक देखकर--एक आदमी है जो पीछे पड़ा है। एक औरत के। वह उसे परेशान कर रहा
है। आखिर में अंधकार में एक घने जंगल में उसने स्त्री को पकड़ लिया है। वह बलात्कार
करने को है ही, कि
विद्यासागर भूल गए। छलांग लगाकर मंच पर चढ़ गए। निकाला जूता और मारने लगे उस पात्र
को। उस पात्र ने विद्यासागर से ज्यादा बुद्धिमत्ता दिखायी। वह जूता हाथ में लेकर
उसने नमस्कार किया और लोगों से कहा--इतना बड़ा पुरस्कार अभिनय का मुझे कभी नहीं
मिला। विद्यासागर जैसा बुद्धिमान आदमी अभिनय को समझ गया सच है। इस जूते को
सम्हालकर रख लूंगा। अब इसे मैं विद्यासागर जी--आपको दूंगा नहीं। यह मेरा सबसे बड़ा
पुरस्कार है। यह याद रहेगा कि कभी अभिनय ऐसा किया था कि सत्य मालूम पड़ गया। और
विद्यासागर को भी लगा कि सच है। भूल गए कि नाटक हो रहा है।
साक्षी वहां भी हम नहीं रह पाते नाटक में, फिल्मों में। तो जिंदगी में कैसे
रह पाएंगे? नाटक
को हम ऐसा समझ लेते हैं कि जिंदगी है। और ध्यान करने वाले को जिंदगी ऐसी समझनी
होगी जैसे नाटक है।
ध्यान में जाने वाले को जानना होगा कि क्या है यह सब? किसी ने गाली दी है, तो क्या है? शब्दों की, कुछ ध्वनियों की, टंकार।
जो कान के पर्दों को हिला जाती है। और क्या है? और किसी ने
जूता फेंककर मार दिया और सिर पर लगा है जूता। तो क्या है--कुछ अणुओं का कुछ और
अणुओं पर दबाव, और क्या है? ध्यान वाले
को जानना पड़ेगा। और किसी ने काट दी है गर्दन, और गुजर गयी है
तलवार गर्दन से। आरपार हो गयी है। जगह भी वहां--इसीलिए आरपार हो गयी है। चीजें अलग
थीं, इसीलिए अलग हो गयी हैं। और क्या है? ध्यान के प्रयोग में निरंतर जानना होगा कि है क्या? और
खोज करनी पड़ेगी और जागना पड़ेगा। और तब धीरे-धीरे बहुत अदभुत होगा और अदभुत के
द्वार खुलने लगेंगे।
साक्षी जैसे ही मन होता है वैसे ही वैसे एक अनुपम शांति,
एक सन्नाटा, एक शून्य आने लगता है। बीच में
जगह खाली--स्पेस पैदा होने लगती है। आकाश बीच में आने लगता है। चीजें अपनी सचाई
में दिखाई पड़ने लगती हैं। नाटक नाटक हो जाता है। और जब नाटक नाटक हो जाता है तब
संभावना उतरी है उसकी, जो सत्य है। जब तक नाटक सत्य है,
तब तक सत्य असत्य ही बना रहेगा। जब नाटक नाटक हो जाएगा असत्य असत्य
हो जाएगा। दी फाल्स इज नोन ऐज दी फाल्स।
जब हम भ्रामक को--मिथ्या को, जान लेंगे, मिथ्या है--तब उसकी प्रतीति, उसका उदघाटन--उसका--वह जो सत्य है--जो मिथ्या नहीं है, वह उतरना शुरू होता है। ध्यान द्वार में प्रवेश है। लेकिन प्रभु में पहुंच
जाना नहीं।
ध्यान द्वार में प्रवेश है। मैं आपके मकान में प्रविष्ट हो
गया लेकिन यह आपमें पहुंच जाना नहीं। और प्रभु मंदिर में पूर्ण प्रवेश तो जब
प्रभु में हम एक ही हो जाए, तभी संभव होता है।
तो तीसरा सूत्र है साक्षी भाव। इसमें द्वार खुल
जाएगा। आप भीतर पहुंच जाएंगे। लेकिन फिर भी एक रुकावट है। प्रभु और है आप और है।
मंदिर में पहुंच गए, वह और है, आप और
हैं। सत्य दिखायी पड़ा है। लेकिन सत्य वह रहा--आप यह रहे। अब यह फासला भी टूट
जाएगा। तो ही सत्य को उसकी परिपूर्णता में जीया और जाना जा सकता है। अभी सत्य को
देखा गया बाहर से--दूर से--अभी सत्य को पहचाना गया बाहर से देर से। अभी सत्य ही
नहीं हो जाया गया है। सत्य को जानना ही नहीं है। सत्य को जीना भी है। सत्य को
देखना ही नहीं है। सत्य को जाना भी है। परमात्मा में पूर्ण प्रवेश स्वयं के
परमात्मा हुए बिना नहीं हो सकती है। ध्यान के भी ऊपर उठना होगा।
प्रभु मंदिर के द्वार
ओशो
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