एक जैन मुनि मुझे मिलने आए। वे जब मुझे मिलने आए उसके पहले ही एक महिला
मुझे मिल कर जा ही रही थी। मैंने उनसे बैठने को कहा। उन्होंने कहा, इस स्थान पर मैं नहीं बैठ सकता। इस स्थान पर स्त्री बैठी थी।
मैंने पूछा, स्त्री जा भी चुकी, क्या स्थान स्त्रैण हो गया?
वे बोले, हमारे शास्त्रों में उल्लेख है कि कम से कम नौ
मिनट उस स्थान पर नहीं बैठना चाहिए जिस पर स्त्री बैठी हो। नहीं तो आदमी का मन
डांवाडोल होता है।
इन मूढ़ों को तुम साधु-संत समझ रहे हो? ये उस स्थान पर नहीं
बैठ सकते जहां स्त्री बैठी थी, क्योंकि इनका मन डांवाडोल होगा। इनका मन ऐसा
समझो कि डांवाडोल होने को तैयार ही है, बहाना भर चाहिए। अब
स्थान अगर यूं अपवित्र होने लगे...
और स्त्री से ही ये पैदा हुए हैं, उसी की
हड्डी-मांस-मज्जा से बने हैं। पिता का दान कुछ बहुत नहीं होता बच्चे के जन्म में।
पिता का दान तो नकारात्मक है। एक इंजेक्शन से यह काम हो सकता है। बस इससे ज्यादा
पिता का कोई काम नहीं है। जल्दी एक भविष्य विज्ञान के द्वारा आ जाएगा, ज्यादा देर नहीं है। जब तुम पिता की तसवीर की जगह एक इंजेक्शन को रख कर
पूजा करोगे, कि ये हमारे पिताजी हैं। पिता का कोई बहुत बड़ा
दान नहीं है। दान तो सारा मां का है। निन्यानबे प्रतिशत से ज्यादा जो दिया है वह
मां ने दिया है। हड्डी-मांस-मज्जा उसकी है। नौ महीने उसके गर्भ में रहे हो। और अब
स्थान पर बैठने में घबड़ा रहे हो! मगर पवित्रता की यह धारणा।
पवित्रता की धारणाएं तो तुम देखो, किस-किस तरह की
धारणाओं में लोग जी रहे हैं! विनोबा भावे के पास अगर तुम रुपया ले जाओ, वे जल्दी से आंख बंद कर लेते हैं, क्योंकि रुपया देखने
से अपवित्रता हो जाती है।
गजब की पवित्रता है! रुपये में वैसे ही कुछ बचा नहीं है। एक रुपये के नोट
में कुछ बचा है? कब का खाली हो चुका, उसमें कुछ है ही नहीं अब,
मगर उसका डर बाकी है।
यह कैसी पवित्रता? यह कैसा भय? यह थोपी हुई पवित्रता
है। यह निर्दोष चित्त का लक्षण नहीं है। समाधि से जो पवित्रता आती है वह वही होती
है जैसे छोटे बच्चे की पवित्रता। अभी-अभी पैदा हुए, सद्यः जन्मे बच्चे की
आंखों की पवित्रता। वही पवित्रता समाधि से पैदा होती है।
मगर उसको पहचानना मुश्किल पड़ेगा। क्योंकि तुम्हारी धारणाएं पवित्रता की जो
हैं वे बाधा डालेंगी। जैनों की धारणाएं हैं, हिंदुओं की धारणाएं
हैं, बौद्धों की धारणाएं हैं, उन सबकी अपनी धारणाएं
हैं पवित्रता की।
राम नाम जान्यो नहीं
ओशो
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