अंतःकरण सामाजिक आविष्कार है। बच्चे के पास
कोई अंतःकरण नहीं होता। अंतःकरण हम धीरे-धीरे उसमें पैदा करते हैं। और हरेक धर्म
का, हरेक
जाति का, हरेक देश का अलग-अलग अंतःकरण होता है।
जैसे एक जैन को अगर तुम मांस परोस दो, तो उसका अंतःकरण क्या
कहेगा?
असंभव है कि वह मांस का आहार कर सके, क्योंकि बचपन से ही
मांसाहार गलत है, महापाप है, इस
भांति की धारणा उसके भीतर डाली गई है, संस्कारित की गई
है। यह संस्कार है। यह गहरे पहुंचा दिया गया है। इसकी इतनी पुनरुक्ति की गई है!
पुनरुक्ति ही व्यवस्था है अंतःकरण को पैदा करने की। बचपन से ही दोहराया गया है,
हजार तरह से दोहराया गया है, और डर भी
दिखाए गए हैं। अगर मांसाहार किया, तो नर्क में सड़ोगे। अगर
मांसाहार न किया, तो स्वर्ग के आनंद भोगोगे। कैसे-कैसे
भोग स्वर्ग के! कैसे-कैसे प्रलोभन! और कैसे-कैसे भय नर्क के! भय और लोभ, दोनों के बीच बच्चे को कसा गया है। और रोज दोहराया गया है। कहानियां
दोहराई गई हैं; पुराण दोहराए गए हैं; मंदिरों में ले जाया गया है। पंडित-पुजारियों, साधु-संतों के पास बिठाया गया है।
बहुत बार दोहराने से संस्कारित हो गया है।
आज सामने उसके मांस रख दो, बस मुश्किल में पड़ जाएगा। वमन हो जाएगा। मांसाहार करना तो असंभव है।
उसका सारा अंतःकरण कहेगा, पाप है! महापाप है! वह देख भी न
सकेगा। छू भी न सकेगा।
लेकिन सारी दुनिया तो मांसाहारी है।
निन्यानबे प्रतिशत लोग तो दुनिया के मांसाहारी हैं। और ऐसा ही नहीं है कि भारत के
बाहर ही मांसाहारी हैं, भारत में भी अधिकतम लोग तो मांसाहारी हैं। थोड़े से जैनों को छोड़ दो;
थोड़े से ब्राह्मणों को छोड़ दो। सारे ब्राह्मणों को भी मत छोड़
देना। क्योंकि कश्मीरी ब्राह्मण तो मांसाहार करता है। इसलिए पंडित जवाहरलाल नेहरू
को मांसाहार करने में कोई अंतःकरण की बाधा नहीं पड़ती थी। कश्मीरी ब्राह्मण! बंगाली
ब्राह्मण तो मछली खाता है। तो रामकृष्ण को मछली खाने में कोई बाधा नहीं थी,
कोई अंतःकरण बाधा नहीं डालता था। तो सारे ब्राह्मण भी मत गिन
लेना गैर-मांसाहारियों में। और जैनियों की संख्या कितनी है? यही कोई पैंतीस लाख। और थोड़े से ब्राह्मण उत्तर भारत के। इनको छोड़ कर
सारी दुनिया मांसाहारी है। न तो किसी के अंतःकरण में कोई अड़चन आती; न किसी के भीतर कोई सवाल उठता।
अगर यह बात सच में ही अंतःकरण की होती, तो हरेक के भीतर आवाज
आनी चाहिए थी! अगर यह परमात्मा की आवाज होती, आत्मा की
वाणी होती, तो प्रत्येक के भीतर उठनी चाहिए थी! और मजा तो
यूं है कि ऐसी-ऐसी बातों में भी अंतःकरण उठ आएगा, जिनके
संबंध में तुमने कभी कल्पना भी न की हो! सोचा भी न हो!
मेरे परिवार में एक बार एक क्वेकर ईसाई फकीर
मेहमान हुआ। तो मैंने उससे पूछा सुबह कि चाय लोगे, काफी लोगे, दूध
लोगे, क्या लोगे? उसने कहा,
दूध! आप और दूध पीते हैं?
उसने मुझसे ऐसे पूछा, जैसे कि कोई महापाप करने
के लिए मैंने उसे निमंत्रण दिया है! तब तक मुझे पता ही न था कि क्वेकर दूध को पीना
पाप समझते हैं। उनके अंतःकरण के खिलाफ है। यहां तो दूध सबसे सात्विक आहार है इस
देश में, ऋषि-मुनियों का आहार! यहां तो जो आदमी दूध ही
दूध पीता है, उसको तो लोग महात्मा कहते हैं। मैं रायपुर
में कोई छह-आठ महीने रहा, तो वहां तो एक पूरा का पूरा
आश्रम, दूधाधारी आश्रम! वहां सिर्फ दूध ही पीने वाले
साधु-संत हैं। और उनकी महत्ता यही है कि वे सिर्फ दूध पीते हैं!
तो मैंने कहा कि दूध पीने में कोई अड़चन? आपको तकलीफ है?
उन्होंने कहा, तकलीफ की बात कर रहे हो! अरे, दूध और खून में भेद ही क्या? जैसे खून शरीर से
आता है, वैसे ही दूध भी शरीर से ही आता है।
इसीलिए तो दूध पीने से खून बढ़ता है, चेहरे पर सुर्खी आ जाती
है। दूध रक्त जैसा ही है। बात में तो बल है। शरीर से ही निकलता है; शरीर का ही अंग है। तो शरीर के अंग को--चाहे वह मांस हो, चाहे दूध हो, चाहे रक्त हो--एक ही कोटि में
गिना जाएगा।
उन्होंने कहा, दूध तो बहुत असात्विक आहार है!
इस देश में लोग दूध को सात्विक आहार मानते
रहे। उनका अंतःकरण कहता है, बिलकुल सात्विक आहार है। क्वेकर ईसाई मानते हैं, बिलकुल असात्विक आहार है। उनका अंतःकरण उन्हें दूध नहीं पीने देता। दूध
देख कर ही उनको बेचैनी हो जाएगी।
कौन सी चीज अंतःकरण है? अगर अंतःकरण जैसी कोई
बात होती, तो सभी के भीतर समान होनी चाहिए थी। लेकिन सभी
के भीतर समान नहीं है। औरों की तो बात छोड़ दो, दिगंबर और
श्वेतांबर जैन, एक ही संप्रदाय, कोई
खास भेद नहीं। एक ही मत, एक ही जीवन-दर्शन। कुछ छोटी सी
टुच्ची बातों के फासले हैं। मगर उनमें भी फर्क है।
जब पर्युषण के दिन आते हैं, जैनों के धार्मिक उत्सव
के दिन, तो दिगंबर जैन हरी सब्जियां नहीं खाते। मैं तो
दिगंबर परिवार में पैदा हुआ, तो बचपन से मैंने यही जाना
कि हरी सब्जी पर्युषण के समय में खाना पाप है। कोई बीस वर्ष की उम्र में पहली दफा
एक श्वेतांबर जैन परिवार में मैं ठहरा। तो मैं चकित हुआ यह देख कर कि पर्युषण के
दिन हैं, लेकिन केले मजे से खाए जा रहे हैं! तो मैंने
पूछा, यह मामला क्या है? हरी चीज
खाने का तो विरोध है! उन्होंने कहा, यह हरा है ही कहां?
यह केला तो पीला होता है।
हरे का मतलब देखा! जैन शास्त्र कहते हैं, हरी चीज। हरी चीज से
उनका मतलब है ताजी, अभी तोड़ी गई। मगर यहां हरे का मतलब ही
और है। केला तो पीला! कच्चा केला मत खाओ, जो हरा दिखाई
पड़ता है। पका हुआ केला खाने में तो कोई अड़चन नहीं है। वह तो पीला है। इससे कोई
अड़चन नहीं पैदा हो रही है।
अंतःकरण बाहर से पैदा किया जाता है।
ईसाई शराब पीने में कोई अड़चन नहीं पाते। खुद
जीसस शराब पीते थे। शराब पीने में कोई अड़चन न थी, कोई बुराई न थी। किसी ईसाई को कोई बुराई
नहीं है।
लेकिन भारतीय मानस को बड़ी पीड़ा होती है शराब
की बात ही सुन कर। यहां मोरारजी देसाई स्वमूत्र पी लें, मगर शराब नहीं पी सकते!
उनके अंतःकरण को कोई अड़चन नहीं आती स्वमूत्र पीने में। आनी भी नहीं चाहिए। क्योंकि
भारतीय मानस गौ-मूत्र तो जमानों से पीता रहा है। अरे, जब
गौ-मूत्र पीते रहे, तो यह तो स्वावलंबन है!
गौ-मूत्र ही नहीं पीते रहे भारतीय, हिंदू तो पंचामृत का सेवन
करते हैं। पंचामृत का अर्थ होता है गोबर, गौ-मूत्र,
दूध, दही, घी,
ये पांचों चीजों को मिला कर, घोंट कर पी
गए, तो पंचामृत! पंचामृत पीने वाले देश में, अभी मोरारजी देसाई ने तो एक ही अमृत खोजा है। अभी तुम देखना, कोई आएगा और बड़ा महात्मा, जो आदमी में से
पंचामृत निकालेगा। और वह भी हमें स्वीकार हो जाएगा। उसमें भी हमें कोई अड़चन न
होगी।
अंतःकरण तो आत्मा नहीं है। अंतःकरण तो बाहर
का आरोपण है। जिसे आत्मा को पाना हो,
उसे अंतःकरण से मुक्त होना पड़ता है। उसे न तो चाहिए ईसाई का
अंतःकरण, न हिंदू का, न मुसलमान
का, न जैन का, न बौद्ध का। उसे
अंतःकरण चाहिए ही नहीं। बाहर से जो भी उसके ऊपर थोप दिया गया है, आच्छादित कर दिया गया है, उस सब को उसे त्याग
देना होता है।
इसको ही मैं तपश्चर्या कहता हूं, अंतःकरण के त्याग को। तब
तुम्हारे भीतर तुम्हारे स्वभाव की जो वाणी है, स्वस्फूर्त,
किसी की सिखाई हुई नहीं, तुम्हारे जीवन
का ही जो स्वर है, जो संगीत है, वह
सुनाई पड़ता है।
अनहद में बिसराम
ओशो
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