स्त्रैण चित्त और पुरुष चित्त एक दूसरे से सर्वथा भिन्न हैं। स्त्री
जल्दी में नहीं है, उसके लिए कोई जल्दी नहीं है। दरअसल उसे कहीं पहुंचना
नहीं है। यही कारण है कि स्त्रियां महान नेता, वैज्ञानिक और योद्धा नहीं
होतीं हो नहीं सकतीं। और अगर कोई स्त्री हो जाए, जैसे जॉन आफ आर्क या
लक्ष्मी बाई तो उसे अपवाद मानना चाहिए। वह दरअसल पुरुषचित्त है सिर्फ शरीर
स्त्री का है, चित्त पुरुष का है। उसका चित्त जरा भी स्त्रैण नहीं है।
स्त्रैण चित्त के लिए कोई लक्ष्य नहीं है, मंजिल नहीं है।
और हमारा संसार पुरुष प्रधान संसार है। इस पुरुष प्रधान संसार में
स्त्रियां महान नहीं हो सकतीं, क्योंकि महानता किसी उद्देश्य से, किसी
लक्ष्य से जुड़ी होती है। यदि कोई लक्ष्य उपलब्ध करना है, तभी तुम महान हो
सकते हो। और स्त्रैण चित्त के लिए कोई लक्ष्य नहीं है। वह यहीं और अभी सुखी
है। वह यहीं और अभी दुखी है। उसे कहीं पहुंचना नहीं है। स्त्रैण चित्त
वर्तमान में रहता है।
यही कारण है कि स्त्री की उत्सुकता दूर दराज में नहीं होती है, वह सदा
पास पड़ोस में उत्सुक होती है। वियतनाम में क्या हो रहा है, इसमें उसे कोई
रस नहीं है। लेकिन पड़ोसी के घर में क्या हो रहा है, मोहल्ले में क्या हो
रहा है, इसमें उसका पूरा रस है। इस पहलू से उसे पुरुष बेबूझ मालूम पड़ता है।
वह पूछती है कि तुम्हें क्या जानने की पड़ी है कि निक्सन क्या कर रहा है या
माओ क्या कर रहा है! उसका रस पास पड़ोस में चलने वाले प्रेम प्रसंगों में
है। वह निकट में उत्सुक है, दूर उसके लिए व्यर्थ है। उसके लिए समय का
अस्तित्व नहीं है।
समय उनके लिए है जिन्हें किसी लक्ष्य पर, किसी मंजिल पर पहुंचना है।
स्मरण रहे, समय तभी हो सकता है जब तुम्हें कहीं पहुंचना है। अगर तुम्हें
कहीं पहुंचना नहीं है तो समय का क्या मतलब है? तब कोई जल्दी नहीं है।
इसे एक और दृष्टिकोण से समझने की कोशिश करो। पूर्व स्त्रैण है और पश्चिम पुरुष जैसा है। पूर्व ने कभी समय के संबंध में बहुत चिंता नहीं की, पश्चिम समय
के पीछे पागल है। पूर्व बहुत विश्रामपूर्ण रहा है; वहां इतनी धीमी गति है,
मानो गति ही न हो। वहां कोई बदलाहट नहीं है; कोई क्रांति नहीं है। विकास
इतना चुपचाप है कि उससे कहीं कोई शोर नहीं होता।
पश्चिम बस पागल है; वहां
रोज क्रांति चाहिए, हर चीज को बदल डालना है। जब तक सब कुछ बदल न जाए जब तक
उसे लगता है कि हम कहीं जा ही नहीं रहे, कि हम ठहर गए हैं। अगर सब कुछ बदल
रहा है और सब कुछ उथल पुथल में है, तब पश्चिम को लगता है कि कुछ हो रहा है।
और पूर्व सोचता है कि अगर उथल पुथल मची है तो उसका मतलब है कि हम रुग्ण
हैं, बीमार हैं। उसे लगता है कि कहीं कुछ गलत है, तभी तो उथल पुथल हो रही
है। अगर सब कुछ सही है तो क्रांति की क्या जरूरत? बदलाहट क्यों?
पूर्वी चित्त स्त्रैण है। इसीलिए पूर्व में हमने सभी स्त्रैण गुणों का
गुणगान किया है, हमने करुणा, प्रेम, सहानुभूति, अहिंसा, स्वीकार, संतोष,
सभी स्त्रैण गुणों को सराहा है। पश्चिम में सभी पुरुषोचित गुणों की प्रशंसा
की जाती है, वहां संकल्प, संकल्प बल, अहंकार, आत्मसम्मान, स्वतंत्रता और
विद्रोह जैसे मूल्य प्रशंसित हैं। पूर्व में आज्ञाकारिता, समर्पण, स्वीकार
जैसे मूल्य मान्य हैं। पूर्व की बुनियादी वृत्ति स्त्रैण है, कोमल है; और
पश्चिम की वृत्ति पुरुष है, कठोर है।
समर्पण की विधि स्त्रैण चित्त के लिए है। और
प्रयत्न, संकल्प और श्रम की विधि पुरुष चित्त के लिए है। और वे एक दूसरे के
बिलकुल विपरीत होने ही वाली हैं। अगर तुम दोनों में सामंजस्य बिठाने की
चेष्टा करोगे तो तुम उनकी खिचड़ी बना दोगे। वह सामंजस्य अर्थहीन होगा,
बेतुका होगा, और खतरनाक भी होगा। वह किसी के भी काम का नहीं होगा।
तंत्र सूत्र
ओशो
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