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Sunday, December 6, 2015

साष्टांग दंडवत प्रणाम करना दिव्य पुरुषों के चरणों पर माथा रखना या हाथों से चरण स्पर्श करने का क्या महत्व है ?

प्रश्न: ओशो साष्टांग दंडवत प्रणाम करना दिव्य पुरुषों के चरणों पर माथा रखना या हाथों से चरण— स्पर्श करना पवित्र स्थानों में माथा टेकना दिव्य पुरुषों का अपने हाथ से साधक के सिर अथवा पीठ को छूकर आशीर्वाद देना सिक्कों व मुसलमानों का सिर ढांककर गुरुद्वारे व मस्जिद जाना इन सब प्रथाओं का कुंडलिनी ऊर्जा के संदर्भ में आकल्ट वस्पिरिचुअल अर्थ व महत्व समझाने की कृपा करें।

र्थ तो है, अर्थ बहुत है। जैसा मैंने कहा, जब हम क्रोध से भरते हैं तो किसी को मारने का मन होता है। जब हम बहुत क्रोध से भरते हैं तो ऐसा मन होता है कि उसके सिर पर पैर रख दें। चूंकि पैर रखना बहुत अड़चन की बात होगी, इसलिए लोग जूता मार देते हैं। पैर रखना, एक पांच छह फीट के आदमी के सिर पर पैर रखना बहुत मुश्किल की बात है, इसलिए सिंबालिक, उतारकर जूता उसके सिर पर मार देते हैं। लेकिन कोई नहीं पूछता दुनिया में कि दूसरे के सिर में जूता मारने का क्या अर्थ है? सारी दुनिया में! ऐसा नहीं है कि कोई एक कौम, कोई एक देश….. .यह बड़ा युनिवर्सल तथ्य है कि क्रोध में दूसरे के सिर पर पैर रखने का मन होता है। और कभी जब आदमी निपट जंगली रहा होगा, तो जूता तो नहीं था उसके पास, वह सिर पर पैर रखकर ही मानता था।

ठीक इससे उलटी स्थितियां भी हैं चित्त की। जैसे क्रोध की स्थिति है, तब किसी के सिर पर पैर रखने का मन होता है; और श्रद्धा की स्थिति है, तब किसी के पैर में सिर रखने का मन होता है। उसके अर्थ हैं उतने ही, जितने पहले के। कोई क्षण है जब तुम किसी के सामने पूरी तरह झुक जाना चाहते हो; और झुकने के क्षण वही हैं, जब तुम्हें दूसरे के पास से अपनी तरफ ऊर्जा का प्रवाह मालूम पड़ता है। असल में, जब भी कोई प्रवाह लेना हो तब झुक जाना पड़ता है। नदी से भी पानी भरना हो तो झुकना पड़ता है। झुकना जो है, वह किसी भी प्रवाह को लेने के लिए अनिवार्य है। असल में, सब प्रवाह नीचे की तरफ बहते हैं। तो ऐसे किसी व्यक्ति के पास अगर लगे किसी को कि कुछ बह रहा है उसके भीतर— और कभी लगता है—तो उस क्षण में उसका सिर जितना झुका हो उतना सार्थक है।

शरीर के नुकीले हिस्सों से ऊर्जा का प्रवाह:

फिर शरीर से जो ऊर्जा बहती है वह उसके उन अंगों से बहती है जो प्याइंटेड हैं—जैसे हाथ की अंगुलियां या पैर की अंगुलियां। सब जगह से ऊर्जा नहीं बहती। शरीर की जो विद्युत—ऊर्जा है, या शरीर से जो शक्तिपात है, या शरीर से जो भी शक्तियों का प्रवाह है, वह हाथ की अंगुलियों या पैर की अंगुलियों से होता है, पूरे शरीर से नहीं होता। असल में, वहीं से होता है जहां नुकीले हिस्से हैं; वहां से शक्ति और ऊर्जा बहती है। तो जिसे लेना है ऊर्जा, वह तो पैर की अंगुलियों पर सिर रख देगा, और जिसे देना है ऊर्जा, वह हाथ की अंगुलियों को दूसरे के सिर पर रख देगा।

ये बड़ी आकल्ट और बड़ी गहरी विज्ञान की बातें थीं।

स्वभावत:, बहुत से लोग नकल में उन्हें करेंगे। हजारों लोग सिर पर पैर रखेंगे जिन्हें कोई प्रयोजन नहीं है, हजारों लोग किसी के सिर पर हाथ रख देंगे जिन्हें कोई प्रयोजन नहीं है। और तब जो एक बहुत गहरा सूत्र था, धीरे धीरे औपचारिक बन जाएगा। और जब लंबे अरसे तक वह औपचारिक और फार्मल होगा तो उसकी बगावत भी शुरू होगी। कोई कहेगा कि यह सब क्या बकवास है! पैर पर रखने से सिर क्या होगा? सिर पर हाथ रखने से क्या होगा?

सौ में निन्यानबे मौके पर बकवास है। हो गई है बकवास। क्योंकि…. .सौ में एक मौके पर अब भी सार्थक है। और कभी तो सौ में सौ मौके पर ही सार्थक थी; क्योंकि कभी वह स्पांटेनिअस एक्ट था। ऐसा नहीं था कि तुम्हें औपचारिक रूप से लगे तो किसी के पैर छुओ। नहीं, किसी क्षण में तुम न रुक पाओ और पैर में गिरना पड़े तो रुकना मत, गिर जाना। और ऐसा नहीं था कि किसी को आशीर्वाद देना है तो उसके सिर पर हाथ रखो ही। यह उसी क्षण रखना था, जब तुम्हारा हाथ बोझिल हो जाए और बरसने को तैयार हो जाए और उससे कुछ बहने को राजी हो, और दूसरा लेने को तैयार हो, तभी रखने की बात थी।

मगर सभी चीजें धीरे— धीरे प्रतीक हो जाती हैं। और जब प्रतीक हो जाती हैं तो बेमानी हो जाती हैं। और जब बेमानी हो जाती हैं तो उनके खिलाफ बातें चलने लगती हैं। और वे बातें बड़ी अपील करती हैं। क्योंकि जो बातें बेमानी हो गई हैं उनके पीछे का विज्ञान तो खो गया होता है। है तो बहुत सार्थक।

ऊर्जा पाने के लिए खाली और खुला हुआ होना जरूरी:

और फिर, जैसा मैंने पीछे तुम्हें कहा, यह तो जिंदा आदमी की बात हुई। यह जिंदा आदमी की बात हुई। एक महावीर, एक बुद्ध, एक जीसस के चरणों में कोई सिर रखकर पड गया है और उसने अपूर्व आनंद का अनुभव किया है, उसने एक वर्षा अनुभव की है जो उसके भीतर हो गई है। इसे कोई बाहर नहीं देख पाएगा, यह घटना बिलकुल आंतरिक है। उसने जो जाना है वह उसकी बात है। और दूसरे अगर उससे प्रमाण भी मांगेंगे तो उसके पास प्रमाण भी नहीं है।

असल में, सभी आकल्ट फिनामिनन के साथ यह कठिनाई है कि व्यक्ति के पास अनुभव होता है, लेकिन समूह को देने के लिए प्रमाण नहीं होता। और इसलिए वह ऐसा मालूम पड़ने लगता है कि अंधविश्वास ही होगा। क्योंकि वह आदमी कहता है कि भई, बता नहीं सकते कि क्या होता है, लेकिन कुछ होता है। जिसको नहीं हुआ है, वह कहता है कि हम कैसे मान सकते हैं! हमें नहीं हुआ है। तुम किसी भ्रम में पड़ गए हो, किसी भूल में पड़ गए हो। और फिर हो सकता है, जिसको खयाल है कि नहीं होता है, वह भी जाकर जीसस के चरणों में सिर रखे। उसे नहीं होगा। तो वह लौटकर कहेगा कि गलत कहते हो! मैंने भी उन चरणों पर सिर रखकर देख लिया। वह ऐसा ही है कि एक घड़ा जिसका मुंह खुला है वह पानी में झुके और लौटकर घड़ों से कहे कि मैं झुका और भर गया। और एक बंद मुंह का घड़ा कहे कि मैं भी जाकर प्रयोग करता हूं। और वह बंद मुंह का घड़ा भी पानी में झुके, और बहुत गहरी डुबकी लगाए, लेकिन खाली वापस लौट आए। और वह कहे कि झुका भी, डुबकी भी लगाई, कुछ नहीं भरता है, गलत कहते हो!

घटना दोहरी है। किसी व्यक्ति से शक्ति का बहना ही काफी नहीं है, तुम्हारी ओपनिंग, तुम्हारा खुला होना भी उतना ही जरूरी है। और कई बार तो ऐसा मामला है कि दूसरे व्यक्ति से ऊर्जा का बहना उतना जरूरी नहीं है, जितना तुम्हारा खुला होना जरूरी है। अगर तुम बहुत खुले हो तो दूसरे व्यक्ति में जो शक्ति नहीं है, वह भी उसके ऊपर की, और ऊपर की शक्तियों से प्रवाहित होकर तुम्हें मिल जाएगी। इसलिए बड़े मजे की बात है कि जिनके पास नहीं है शक्ति, अगर उनके पास भी कोई पूरे खुले हृदय से अपने को छोड़ दे, तो उनसे भी उसे शक्ति मिल जाती है। उनसे नहीं आती वह शक्ति, वे सिर्फ माध्यम की तरह प्रयोग में हो जाते हैं; उनको भी पता नहीं चलता, लेकिन यह घटना भी घट सकती है।


जिन खोज तीन पाइया 

ओशो 

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