रामसिंह, आलस्य भी होगा तो उसी की मर्जी से होगा। जिसने सब छोड़
दिया, वह आलस्य को बचा लेगा? जब सभी चढ़ा दिया उसके चरणों में तो इतनी
कंजूसी और क्यों कर रहे हो? आलस्य भी उसी के चरणों में चढ़ा दो।
चढ़ाओ तो पूरा चढ़ाओ, बंटवारे न करो, नहीं तो बड़ी मुश्किल में पड़ जाओगे।
अगर बंटवारा किया तो बुरा—बुरा तुम्हारे हाथ में रह जाएगा और भला—भला उसके
हाथ में चला जाएगा। लोग अच्छी चीजें चढ़ा देते हैं। सोचते हैं, चढ़ाना है तो
अच्छी ही चीजें चढ़ाना चाहिए! फिर आलस्य का क्या होगा? फिर बेईमानी का क्या
होगा? फिर चालबाजी का क्या होगा? फिर झूठ का क्या होगा? फिर तुम्हारे पाखंड
का क्या होगा? वह सब तुम्हारे हिस्से में पड़ जाएगा।
यही तो अब तक का इतिहास है कि आदमी को सिखाया गया है: अच्छी अच्छी चीजें
उस पर चढ़ा दो। फूल उस पर चढ़ा दो। फिर कांटे? फिर कांटे तुम्हारे जिम्मे
पड़े। सो उसके तो मोर मुकुट, फूल लग गए वैसे भी उसको फूलों की कोई कमी न थी,
सारे फूल उसी के थे और तुम अभागे, जो दो चार फूल हाथ लगे थे वे भगवान को
चढ़ा आए, अब बचे कांटे! अब रोओ! इन कांटों को छाती से लगाओ और तड़फो!
समर्पण का अर्थ होता है: समग्र। समग्र ही हो तो समर्पण।
रामसिंह का मन में विचार उठा होगा कि यह बात तो ठीक है कि सब परमात्मा
की मर्जी से हो रहा है, मगर अगर आलस्य हो रहा है, फिर? परमात्मा आलसी तो
नहीं हो सकता! यह तुमसे किसने कहा? मेरे हिसाब से तो परमात्मा का काम कितना
आहिस्ता चल रहा है। सदियां सदियां बीत गईं…कोई जल्दी दिखाई पड़ती है? कोई
जल्दबाजी? जल्दबाजी आदमी को है, परमात्मा को नहीं।
सदियों सदियों में करोड़ों करोड़ों वर्षों में पृथ्वी बनती है।
करोड़ों करोड़ों वर्षों में पृथ्वी पर हरियाली ऊगती है। करोड़ों करोड़ों वर्षों
में फिर पृथ्वी पर प्राणी आते हैं। करोड़ों करोड़ों वर्षों में फिर मनुष्य
आता है। और परमात्मा का धीरज इतना है कि करोड़ों करोड़ों मनुष्यों में कभी
कोई एक बुद्ध हो पाता है, फिर भी वह राजी है। या तो कहो आलसी है, या कहो
परम धैर्यवान है।
आलस्य की इतनी निंदा क्यों है? क्योंकि आदमी अतीत में बड़ी मुश्किल से
जीया है बड़ी मुश्किल से जीया है! खूब श्रम किया है तो ही जी सका है, बच सका
है। जीवन एक गहन संघर्ष था। इसलिए उसमें आलसी की बड़ी निंदा हो गई। और
उसमें कर्मठ का बड़ा सम्मान हो गया। हालांकि बात यह है कि कर्मठ लोगों ने
दुनिया को जितना गङ्ढों में पटका, उतना आलसियों ने नहीं। आलसियों ने कोई
नुकसान ही नहीं किया। वे नुकसान करने लायक काम भी नहीं कर सकते। वे किस तरह
नुकसान करेंगे? अडोल्फ हिटलर आलसी हो सकता है? मुसोलिनी आलसी हो सकता है?
स्टेलिन, माओत्से तुंग आलसी हो सकते हैं? असंभव। ये तो बड़े कर्मठ पुरुष
हैं। लौहपुरुष। स्टेलिन शब्द का अर्थ होता है: लौहपुरुष। स्टील से बना
शब्द स्टेलिन। वह उसका असली नाम नहीं है, दिया हुआ नाम है। ये तो सदा कर्म
में रत रहते हैं ये लोग। नादिरशाह और तैमूरलंग और चंगेजखान और सिकंदर और
नेपोलियन, ये कोई आलसी हैं?
नेपोलियन के संबंध में कहा जाता है, वह घोड़े पर ही दो घंटे सो लेता था।
घोड़े पर ही! नीचे भी नहीं उतरे; इतना भी समय कौन खराब करे? उतरना,
चढ़ना…घोड़े पर ही सो लेता था। बस दो घंटे चौबीस घंटे में काफी था। इस तरह के
लोगों का हमने खूब सम्मान किया। मगर उन्होंने किया क्या?
आलसियों के ऊपर कोई दोष है? उन्होंने कोई बड़ा पाप किया? रावण आलसी होता तो सीता नहीं चुराई जाती पक्का समझो! कौन झंझट में पड़ता!
तुमने आलसियों की कहानियां तो सुनी ही हैं; कि दो आलसी लेटे हैं एक झाड़
के नीचे, जामुनें टपक रही हैं; पकी जामुनें, उनकी गंध! और एक आलसी दूसरे से
बोला कि हद्द हो गई, हम सोचते थे कि तू अपना मित्र है! और मित्र तो वह है
जो समय पर काम आए। जामुनें टपा टप गिर रही हैं और तुझसे इतना भी नहीं हो
सकता कि एक जामुन उठाकर मेरे मुंह में डाल दे! और उस दूसरे ने कहा कि
जाओ जाओ, तेरे मुंह में और मैं जामुन डालूं! अरे, दोस्त वह जो दुख में काम
आए! अभी एक कुत्ता मेरे कान में मूत रहा था तो तू उसे भगा भी नहीं सका!
एक आदमी रास्ते से गुजर रहा था, उसने दोनों की बात सुनी, उसने कहा हद्द
हो गई! दया आई उसे बहुत, बेचारे महा आलसी हैं, उसने एक एक जामुन दोनों के
मुंह में उठाकर डाल दी। चलने को ही था कि दोनों बोले, अबे ठहर, गुठली कौन
निकालेगा? जरा रुक! अब इतना किया है तो इतना और!
ऐसे आदमी से तुम सोचते हो कि दुनिया में कोई नुकसान हो सकता है? लेकिन
आलस्य का हमने विरोध किया है, क्योंकि जीवन एक संघर्ष था और संघर्ष में
कर्मठ की उपयोगिता था। अन्यथा आलस्य में अपने आप तो कुछ ऐसी विरोध की बात
नहीं है। अपने आप में तो कुछ बुरा नहीं है।
और यह संभव है कि आने वाले भविष्य में आलसी का सम्मान बढ़ जाए।
आने वाली सदी में उन लोगों का सम्मान किया जाएगा जो काम नहीं मांगेंगे।
क्योंकि सारा काम धीरे धीरे यंत्रों के द्वारा होने लगेगा हो ही रहा है।
विकसित देशों में पहले सात दिन का सप्ताह होता था, फिर छह दिन का होने लगा,
फिर पांच दिन का होने लगा, अब चार दिन का होने लगा। अब अमरीका में विचार
चलता है उसको हटा कर तीन दिन का कर दिया जाए, क्योंकि मशीनों से काम पूरा
हुआ जा रहा है। बीस साल पूरे होते होते करोड़ों लोग बिना काम के होंगे। भोजन
तो उन्हें देना होगा। वह उनका जन्मसिद्ध अधिकार है। मकान भी देना होगा,
कपड़े भी देने होंगे।
पश्चिम के अर्थशास्त्री तो यह कहते हैं तुम चौंकोगे जानकर कि पचास साल
के भीतर यह हालत आ जाने वाली है कि जो आदमी काम नहीं मांगेगा, उसको तनख्वाह
ज्यादा मिलेगी उस आदमी के बजाय जो काम मांगेगा। क्यों? क्योंकि वह दो दो
चीजें एक साथ चाहता है तनख्वाह भी और काम भी! तो स्वभावतः उसको तनख्वाह कम
मिलेगी। दोनों हाथ लड्डू! जो काम नहीं मांगता, उसको तनख्वाह ज्यादा
मिलेगी स्वभावतः उसको कुछ कॉम्पेन्सेशन देना होगा, क्योंकि वह काम भी नहीं
मांग रहा है।
आलस्य के दिन आ रहे हैं, रामसिंह, घबड़ाओ मत!…रामसिंह हैं अमृतसर
से।…पंजाबियों के दिन जा रहे हैं, रामसिंह, घबड़ाओ मत! आलसियों के दिन आ रहे
हैं। यंत्र सब कर देगा। फिर विश्वविद्यालयों में और शिक्षालयों में
बड़े बड़े तख्तों पर लिखा होगा धन्य हैं आलसी, क्योंकि प्रभु का राज्य उन्हें
का है। हमें जोड़ने पड़ेंगे ये वचन। हमें धर्मशास्त्रों में ये बातें लिखनी
पड़ेंगी। आलस्य को सदगुण बनाना ही पड़ेगा।
और परमात्मा तो इतनी धीमी चाल से चलता है कि पता ही कहां चलती है उसकी
चाल! एक बीज बोओ, कितना समय लेता है! वर्षों लग जाते हैं वृक्ष के
बनते बनते, तब कहीं फूल आते, तब कहीं फल लगते। कोई जल्दी है वहां! समय की
अनंतता है, कोई जल्दी नहीं।
और रामसिंह, जब सभी उस पर चढ़ा दिया तो इतनी भी क्या कंजूसी! आलस्य भी उसी का!
तुमने कहानी नहीं सुनी?
एक सूफी कहानी है कि एक बुढ़िया जो कुछ उसके पास होता सभी परमात्मा पर
चढ़ा देती। यहां तक कि सुबह वह जो घर का कचरा वगैरह फेंकती, वह भी घूरे पर
जाकर कहती: तुझको ही समर्पित। लोगों ने जब यह सुना तो उन्होंने कहा, यह तो
हद हो गई! फूल चढ़ाओ, मिष्ठान चढ़ाओ…कचरा?
एक फकीर गुजर रहा था, उसने एक दिन सुना कि वह बुढ़िया गई घूरे पर, उसने
जाकर सारा कचरा फेंका और कहा: हे प्रभु, तुझको ही समर्पित! उस फकीर ने कहा
कि बाई, ठहर! मैंने बड़े—बड़े संत देखे…….तू यह क्या कह रही है? उसने कहा,
मुझसे मत पूछो; उससे ही पूछो। जब सब दे दिया तो कचरा क्या मैं बचाऊं? मैं
ऐसी नासमझ नहीं।
उस फकीर ने उस रात एक स्वप्न देखा कि वह स्वर्ग ले जाया गया है।
परमात्मा के सामने खड़ा है। स्वर्ण सिंहासन पर परमात्मा विराजमान है। सुबह
हो रही है, सूरज ऊग रहा है, पक्षी गीत गाने लगे—सपना देख रहा है और तभी
अचानक एक टोकरी भर कचरा आ कर परमात्मा के सिर पर पड़ा और उसने कहा कि यह बाई
भी एक दिन नहीं चूकती! फकीर ने कहा कि मैं जानता हूं इस बाई को। कल ही तो
मैंने इसे देखा था और कल ही मैंने उससे कहा था कि यह तू क्या करती है?
लेकिन घंटे भर वहां रहा फकीर, बहुतसे लोगों को जानता था जो फूल चढ़ाते
हैं, मिष्ठान्न चढ़ाते हैं, वे तो कोई नहीं आए। उसने पूछा परमात्मा को कि
फूल चढ़ाने वाले लोग भी हैं…सुबह ही से तोड़ते हैं, पड़ोसियों के वृक्षों में
से तोड़ते हैं। अपने वृक्षों के फूल कौन चढ़ाता है! आसपास से फूल तोड़कर चढ़ाते
हैं……उनके फूल तो कोई गिरते नहीं दिखते?
परमात्मा ने उस फकीर को कहा, जो आधा आधा चढ़ाता है, उसका पहुंचता नहीं।
इस स्त्री ने सब कुछ चढ़ा दिया है, कुछ नहीं बचाती, जो है सब चढ़ा दिया है।
समग्र जो चढ़ाता है, उसका ही पहुंचता है।
घबड़ाहट में फकीर की नींद खुल गई। पसीने पसीने हो रहा था, छाती धड़क रही
थी। क्योंकि अब तक की मेहनत, उसे याद आया कि व्यर्थ गई। मैं भी तो
छांट छांट कर चढ़ाता रहा।
समर्पण समग्र ही हो सकता है।
इसलिए, रामसिंह, तुम पूछते हो: यह कैसे पता चले कि जो हो रहा है वह
प्रभु की मर्जी से हो रहा है? पता चलाने की जरूरत क्या है? और किसकी मर्जी
से हो रहा होगा! और भी कोई है? जो हो रहा है, उसी की मर्जी से हो रहा
होगा और तो कोई है ही नहीं।
और फिर तुम्हें डर लगता है: कहीं हम आलस्य के प्रभाव में न कर पा रहे
हों। तो आलस्य उसकी मर्जी। तुम जरा आलस्य को भी चढ़ाकर देखो और तुम बड़े
हैरान हो जाओगे। आलस्य चढ़ाते ही तुम्हारे ऊपर से जैसे एक गर्द की पर्त गिर
जाएगी। उस पर गिरे, जाने दो, वह जाने। उसका संसार है, वह करे फिक्र! उसने
अगर तुमको आलसी बनाया तो तुम करोगे भी क्या? वस्तुतः धार्मिक व्यक्ति वही
है, जो वह देता है कि सब तेरा। बुरा भी, भला भी, सब तेरा।
कबीर के घर लोग भोजन के लिए आते थे। रोज भजन के लिए आते थे असल में तो,
मगर जाने के पहले कबीर कहते: अरे, कहां चले? भोजन तो कर जाओ! गरीब आदमी,
बामुश्किल रोटी जुटती थी। पत्नी परेशान थी। लड़का तो बहुत परेशान था। कमाल
ने एक दिन कहा कि हद्द हो गई। हम पर कर्ज भी बहुत हो गया है। भजन तक ठीक
बात है, यह भोजन हर एक को करवाना, सौ—दो सौ आदमी रोज भोजन करें, हम लाएं
कहां से? सारे गांव से उधार मांग चुके, अब तो कोई उधार देने को राजी नहीं
है। और इन लोगों ने धंधा बना लिया है। ये रोज आकर हाजिर हैं! और मुझे शक
होता है कि ये भजन के लिए आते हैं? ये भोजन के लिए आते हैं। और तुमको कितनी
दफे समझाया और तुम हां भर देते हो कि ठीक, कल मैं नहीं कहूंगा, लेकिन बस,
भजन खतम हुआ कि तुम मानते ही नहीं, लोगों से कहते हो कि भोजन कर जाओ। क्या
हम चोरी करने लगें?
गुस्से में कहा था कमाल ने किया क्या हम चोरी करने लगें? कबीर ने कहा:
अरे पागल, तो यह तुझे पहले क्यों नहीं सूझा? कितने दिन से मेरी खोपड़ी खाता
है कि भोजन के लिए मत कहो। मुझसे रहा नहीं जाता। तेरी अकल पहले कहां गई थी?
गजब का खयाल है! लड़के ने सोचा, हल हो गई! तो ये चोरी करवाने के लिए भी
राजी हैं! उसने पूछा भी कि आप समझे मेरा मतलब? होश में हैं? कहीं अपने
भजन कीर्तन में ही तो नहीं डूबे हैं? चोरी कह रहा हूं, चोरी! कबीर ने कहा,
जो उसकी मर्जी होगी, करवाएगा। अब चोरी ही करवानी होगी तो हम क्या करेंगे?
इसको आस्तिकता कहते हैं। इससे कम हो तो आस्तिकता नहीं।
लेकिन कबीर का लड़का भी कबीर का ही लड़का था आखिर। इतनी जल्दी छोड़ नहीं
देता। उसने कहा कि यह बात ही बात समझकर मामला निपटा रहे हैं। जानते हैं कि
मैं चोरी करूंगा नहीं। मगर मैं भी दिखाकर रहूंगा! सांझ को, उसने कहा, ठीक,
अब मैं चोरी को जा रहा हूं, आप भी चलें! क्योंकि मैं अकेला क्यों जाऊं?
भोजन आप करवाएं, चोरी मैं करूं? पाप पाप मेरे सिर पड़ेगा, पीछे जवाब कौन
देगा? वह यह कह ही रहा था कि कबीर उठकर खड़े हो गए। उन्होंने कहा कि चल,
मुझे कुछ काम भी नहीं है; यहां भी बैठे—बैठे क्या कर रहा हूं? भजन कर रहा
हूं यहां, वहीं भजन करेंगे। मैं चल पड़ता हूं तेरे साथ।
बेटा भी पक्का था। अभी भी उसे भरोसा नहीं था कि कबीर चोरी करने के लिए
राजी होंगे। चले गए। कबीर खड़े वहीं भजन करते रहे और लड़का सेंध मारता रहा,
बार बार देखता रहा कि अब रोकें, अब रोकें। दीवाल टूट गई, अभी भी नहीं रोका।
अब तो थोड़ा उसे भय लगने लगा कि यह मामला ज्यादा बढ़ जा रहा है। उसने पूछा,
अब भीतर जाऊं? कबीर ने कहा, और दीवाल काहे के लिए तोड़ी? भीतर जा! और जाना
ही नहीं, भीतर से कुछ ला!
कबीर का ही बेटा था, उसने हिम्मत की, भीतर गया। खींच कर एक बोरा गेहूं
का लाया। बामुश्किल उसको छेद में से बाहर निकाल पाए। दोनों ने मिल कर बाहर
निकाला। फिर जब बोरा बाहर निकल आया तो कबीर ने कहा: अब एक काम और कर; घर के
लोगों को जाकर जगा दे। चिल्ला दे कि चोरी हो गई, चोरी हो गई! उसने कहा, यह
किस ढंग की चोरी? फंसूंगा मैं! कबीर ने कहा, जिसने करवाई है, वही फंसेगा,
हम क्यों फंसेंगे? तू बीच बीच में अपने को क्यों लाता है?
कबीर की बात को समझना; बारीक है! कबीरपंथी इस कहानी को अपनी किताबों में
से छोड़ देते हैं। क्योंकि डर लगता है; इस बात को लाना खतरनाक मालूम पड़ता
है। क्योंकि हमने तो धर्मों को भी नीति के तल पर खींच लिया है। और धर्म तो
नीति अनीति के परे होते हैं। न वहां कुछ अच्छा है, न वहां कुछ बुरा है। हम
तो धर्म की नीति के साथ पर्यायवाची बना दिए हैं। तो कबीरपंथी भी डरते हैं
कि यह कहानी जोड़ना कि नहीं! लेकिन कितनी ही छिपाओ, जानने वाले इन कहानियों
को जानते हैं। कानों कान चलती रही हैं ये कहानियां किताबों में न भी लिखो
तो क्या होगा! कहीं न कहीं से इनके लिए स्रोत मिलते रहे हैं। इतनी बहुमूल्य
कहानियां हैं, गंवाई भी नहीं जा सकतीं। तो मेरे जैसा कोई न कोई आदमी फिर
उनको कह देगा, वे फिर चलने लगती हैं!
तुम्हें किताब में न मिलें तो घबड़ाना मत, मैं अपनी साक्षी से कहता हूं
कि यह बात सच है। ऐसा हुआ ही होगा। होना ही चाहिए। कबीर की जिंदगी में न हो
तो और किसकी जिंदगी में होगा! कहानी प्यारी है।
कबीर ने कहा, जा, खबर कर दे! और जब कबीर कहें तो बेटा न जाए! गया भीतर,
लोगों को हिला हिला कर जगा दिया कि चोरी हो गई! लोगों ने उसको पकड़ लिया।
भागा, निकलने की कोशिश ही कर रहा था कि लोगों ने उसको पकड़ लिया, पैर उसके
पकड़ लिए। गर्दन बाहर, पैर भीतर। कबीर ने कहा, भाई, अब तो सुबह हुई जा रही
है, भजन करने वाले आते होंगे। अब मैं क्या करूं? तो रखने दे पैर उनको,
गर्दन तेरी मैं ले जाता हूं। सो उन्होंने उसकी गर्दन काट ली; गर्दन लेकर घर
पहुंच गए।
लोगों ने भीतर खींच लिया। सिर तो था ही नहीं। लेकिन रंग ढंग से ऐसा लगा
कि कबीर का बेटा है। परिचित था, गांवभर का परिचित था। किसी से पूछा कि
कैसे पक्का करें कि यह कबीर का बेटा ही है या कोई और? तो उन्होंने कहा, ऐसा
करो, सुबह कबीर की मंडली निकलेगी गंगा स्नान को, भजन करती हुई। इसको बाहर
एक वृक्ष से टांग दो। उन्होंने कहा, इससे क्या होगा? उन्होंने कहा, अगर यह
कबीर का ही बेटा है, तो जब कबीर भजन करते निकलेंगे तो यह ताली बजाएगा।
उन्होंने कहा, पागल हो गए हो? इसका सिर नदारद; मुर्दे कहीं ताली बजाते हैं!
उन लोगों ने कहा, तुम मानो या न मानो, हमने कबीर के पास मुर्दों को बैठे
देखा और ताली बजाते देखा है।
सुनते हो यह कहानी! कि हमने बहुतसे मुर्दों को वहां जाते देखा है और
उनको ताली बजाते देखा है। और ताली बजाते बजाते निंदा हो गए हैं
मुर्दे।…कबीर के पास आते ही लोग जब हैं तब मुर्दे होते हैं। आखिर और कौन
आएगा? सारी दुनिया मुर्दों से भरी है।…तो कहानी कहती है कि लटका दिया बेटे
के शरीर को बाहर एक वृक्ष से और लोग छिपकर बैठ रहे। और जब कबीर की मंडली आई
और धुन छिड़ी और शराब बही और नमाज उठी कि बस, कबीर के बटे ने ताली देना
शुरू कर दिया!
लोगों ने कबीर को पकड़ लिया और कहा कि यह तुम्हारा ही बेटा है। कबीर ने
कहा, इतने आयोजन की क्या जरूरत थी? मुझसे आकर पूछ लिए होते! यह बेटा मेरा
है। और इसने अकेले चोरी नहीं थी, मैं भी मौजूद था। और मैं भी मौजूद नहीं
था, परमात्मा भी मौजूद था। सब जिम्मेवारी उसकी है। हम तो उसके हाथ के
खिलौने हैं। जैसा नचाए, नाचते हैं।
जो इस कहानी को समझ सके, वह समर्पण का भाव समझ सकेगा।
रामसिंह! आलस्य भी उसी का। भला भी उसका, बुरा भी उसका।
सपना यह संसार
ओशो
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