कल ही मैं एक लेख पढ़ रहा था। उस लेख में लिखा है, इस आश्रम के संबंध में कि इस आश्रम में जाना खतरे से खाली नहीं है।
दो कारण बताए हैं।
एक, प्रत्येक व्यक्ति जो यहां आता है, सम्मोहित कर लिया जाता है। अब यह
शब्द सम्मोहन, बस लोगों को चौंकाने के लिए काफी है। और जो सम्मोहित नहीं हो
सकते, जो बड़े संकल्पवान हैं, उनको पानी में या चाय में कुछ मादक द्रव्य
पिला दिए जाते हैं। एल.एस.डी., या कुछ इस तरह की चीजें उनको पिला दी जाती
हैं। क्योंकि यहां से जो लौटता है, वह कुछ और ही तरह की बातें करने लगता
है।
जिन मित्र ने लेख लिखा है, एक अर्थ में ठीक ही लिखा है। कुछ तो जरूर जो
यहां से लौटता है कुछ और तरह की बात करने लगता है। और आम जनता को ऐसा लगे
कि कुछ गड़बड़ हो गई है। ऐसी बातें करने लगता है जैसे लोग भांग गांजे के नशे
में करते हैं। तो या तो सम्मोहित हो गया है, या कुछ गांजा—भांग…!
न उन्हें सम्मोहन का कुछ पता है, न इस तरह के लोग कभी आए हैं आएंगे भी
कैसे; क्योंकि आ जाएं तो खतरा ही है! आना तो है ही नहीं। लेख ही इसीलिए
लिखा है कि कोई दूसरा भी न जाए। तुम भी पढ़ोगे लेख को तो तुमको भी एक दहा
विचार आएगा कि बात कुछ जंचती तो है, कि हम वही तो नहीं रहे जैसे थे आने के
पहले। फिर लोग गैरिक वस्त्र पहनने लगते हैं। फिर उनके चेहरे पर एक
मुस्कुराहट दिखाई पड़ती है। जैसे इस जिंदगी के सारे दुख उनके लिए दुख न रहे।
जैसे इस जिंदगी के सारे विषादों से उनका संबंध छूट गया।
उन्हें एक नई जीवनशैली मिल गई है। वह इतनी नई है और जगत इतने नर्क में
जी रहा है कि अगर नर्क में तुम अचानक पाओ कि एक आदमी नाच रहा है, बांसुरी
बजा रहा है, तुम्हें शक होगा कि गांजा पीए है; या अफीम खा गया है। होश में
होता तो नर्क में कहीं ऐसा कर सकता था! लोग हंसना ही भूल गए हैं। हंसते भी
हैं तो ओछा, छिछला। उनकी हंसी भी खोखली मालूम पड़ती है। बस ज्यादा से ज्यादा
कंठ से आती लगती है। हृदय का कोई भी दान उसमें नहीं होता।
मेरा संन्यासी हंसने लगता है। दिल खोलकर हंसने लगता है। उसके जीवन में
एक रस है। जो उसके ही भीतर मौजूद था। निश्चित ही शराब पिलाई जा रही है,
लेकिन ऐसी शराब नहीं जो बाहर ढलती है, वरन ऐसी शराब जो भीतर ही ढलती है।
सपना यह संसार
ओशो
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