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Friday, December 4, 2015

“श्रीकृष्ण के प्रति स्त्रियों के अति आकर्षित होने में क्या कारण थे? हजारों-लाखों गोपियां उनके पीछे दीवानी थीं, और उनके सहवास से ही उन्हें तृप्ति मिलती थी, ऐसा क्यों होता था?

“श्रीकृष्ण के प्रति स्त्रियों के अति आकर्षित होने में क्या कारण थे? हजारों-लाखों गोपियां उनके पीछे दीवानी थीं, और उनके सहवास से ही उन्हें तृप्ति मिलती थी, ऐसा क्यों होता था?

यदि प्रेमपूर्णता से कामशून्यता आती है, तो कामशून्यता की उपलब्धि के बाद कैसे बच्चे पैदा होंगे? अर्थात कामशून्यता में संभोग कैसे घटित होगा? क्या आत्म-समाधि, ब्रह्म-समाधि और निर्वाण-समाधि के बाद संभोग संभव है? क्योंकि संभोग के लिए प्राणों की चंचलता आवश्यक है न?’

* इस संबंध में बहुत-सी बात तो हो गई है, इसलिए कुछ थोड़ी-सी बातें और खयाल में ले लेनी चाहिए।

कृष्ण के प्रति आकर्षण लाखों स्त्रियों का ठीक ऐसा ही है जैसे पहाड़ से पानी भागता है नीचे की तरफ और झील में इकट्ठा हो जाता है? अगर हम पूछेंगे तो उत्तर यही होगा कि क्योंकि झील झील है। गङ्ढा है, पानी गङ्ढे में भर जाता है। गिरता है पर्वत के शिखर पर, भरता है झील में। पर्वत के शिखर पानी को नहीं रोक पाते हैं। पानी का स्वभाव है कि वह गङ्ढे को खोजे, क्योंकि वहीं वह निवास कर सकता है।

अगर हम इसको ठीक से समझें तो स्त्री का स्वभाव है कि वह पुरुष को खोजे। वह पुरुष में ही निवास कर सकती है। पुरुष का स्वभाव है कि वह स्त्री को खोजे, वह स्त्री में निवास कर सकता है। यह स्वभाव है। यह वैसे ही स्वभाव है जैसे और जीवन की सारी चीजों का स्वभाव है। जैसे आग का कुछ स्वभाव है, जैसे पानी का कुछ स्वभाव है, ऐसे ही पुरुष होने का स्वभाव है कि वह स्त्री में अपने को खोजे। अगर ठीक से हम समझें तो पुरुष का मतलब है, वह स्त्री में अपने को खोजता है। स्त्री का मतलब है, वह जो पुरुष में अपने को खोजती है। स्त्रैण होने का मतलब ही यही है कि जो पुरुष के बिना अधूरी है। पुरुष होने का मतलब यही है, जो स्त्री के बिन अधूरा है। अधूरा होना स्त्री-पुरुष का होना है। इसलिए उनकी निरंतर खोज है। और जब यह खोज पूरी नहीं हो पाती तो “फ्रस्ट्रेशन’ है। जब यह खोज पूरी नहीं हो पाती तो दुख है, पीड़ा है, परेशानी है। जब यह खोज पूरी नहीं हो पाती तो स्वभाव के प्रतिकूल होने के कारण कष्ट है, संताप है, चिंता है।

कृष्ण के प्रति इतने आकर्षण का एक ही कारण है कि कृष्ण पूरे पुरुष हैं। जितना पूर्ण पुरुष होगा उतना आकर्षक हो जाएगा स्त्रियों को। जितनी स्त्री पूर्ण होगी उतनी आकर्षक हो जाएगी पुरुषों को। पुरुष की पूर्णता कृष्ण में पूरी तरह प्रगट हो सकी है। महावीर कम पुरुष नहीं हैं। ठीक कृष्ण जैसे ही पूरे पुरुष हैं। लेकिन महावीर की पूरी साधना, अपने पुरुष होने को छोड़ देने की साधना है। महावीर की पूरी साधना वह जो स्त्री-पुरुष के नियम का जगत है, उसके पार हो जाने की साधना है। फिर भी इस सारी साधना के बावजूद भी महावीर की भिक्षुणियां चालीस हजार हैं और भिक्षु दस हजार हैं। फिर भी स्त्रियां ही ज्यादा आकर्षित हुई हैं। जहां चार साधु महावीर के पीछे थे वहां तीन स्त्रियां हैं और एक पुरुष है। तो अगर महावीर के पास भी चालीस हजार संन्यासिनियां इकट्ठी हो जाती हैं, ऐसे व्यक्ति के पास जिसकी सारी साधना पुरुष और स्त्री होने के “ट्रांसेंडेंस’ की है, पार जाने की है, जो अपने पुरुष होने को इनकार करता है, किसी के स्त्री होने को इनकार करता है, जो कहता है कि यह संसार की बातें हैं, इनसे पार सब है। लेकिन वह भी स्त्रियों के लिए आकर्षक है।

 महावीर को छू भी नहीं सकतीं वे स्त्रियां। महावीर के निकट भी नहीं बैठ सकतीं आकर। लेकिन फिर भी स्त्रियां महावीर के लिए कम दीवानी नहीं हैं। हालांकि इस बात को हम इस तरह कभी देखा नहीं गया। और जो दस हजार पुरुष महावीर के पास आए हैं, इनकी भी अगर हम कभी बहुत खोजबीन करें तो पता चलेगा कि इनके चित्त में कहीं-न-कहीं स्त्रैणता है। होगी। जरूरी नहीं है कि एक आदमी शरीर से पुरुष हो तो मन से भी पुरुष हो। ऐसा भी जरूरी नहीं है कि एक स्त्री शरीर से स्त्री हो तो मन से भी स्त्री हो। मन जरूरी रूप से शरीर के साथ सदा तालमेल नहीं रखता। या बहुत कम तालमेल भी रखता है। कई बार ऐसा हो जाता है कि शरीर पुरुष का होता है, लेकिन चित्त स्त्री की तरफ झुका हुआ होता है। तो जो पुरुष महावीर के पास इकट्ठे होते हैं, अगर न दस हजार का भी ठीक कभी कोई मानसिक-परीक्षण हो सके, तो हम पाएंगे कि इसमें भी स्त्री-चित्त की बहुतायत है। होगी ही। महावीर आकर्षक तभी हो पाते हैं जब भीतर है। महावीर का आकर्षण आधी बात है। हमारा चित्त भी तो उस तरफ बहना चाहिए।

तो कृष्ण के साथ तो और भी अदभुत स्थिति है। कृष्ण तो कुछ छोड़कर भागे हुए नहीं हैं। स्त्रियां उनके पास सिर्फ साध्वी होकर खड़ी रह सकती हैं, ऐसा नहीं है। सिर्फ उनको देख सकती हैं, ऐसा नहीं है। कृष्ण के साथ नाच भी सकती हैं। तो अगर कृष्ण के पास लाखों स्त्रियां इकट्ठी हो गईं हों, तो कुछ आश्चर्य नहीं है। सहज है। बिलकुल सरलता से है।

बुद्ध वैसे ही पूर्ण पुरुष हैं। इसलिए बहुत मजेदार घटना घटी है। बुद्ध ने स्त्रियों को दीक्षा देने से इनकार कर दिया। बुद्ध ने इनकार कर दिया कि स्त्रियों को दीक्षा नहीं देंगे। क्योंकि बुद्ध के सामने खतरा बिलकुल साफ है। वह खतरा यह है कि स्त्रियां दौड़ पड़ेंगी और भारी भीड़ स्त्रियों की इकट्ठी हो जाएगी। और जरूरी नहीं है कि ये स्त्रियां साधना के लिए ही आतुर होकर आई हों, बुद्ध का आकर्षण बहुत कीमती हो सकता है। कोई कृष्ण के पास जो गोपियां पहुंच गईं हैं, वे कोई परमात्म-उपलब्धि के लिए ही पहुंच गईं, ऐसा नहीं है। कृष्ण भी काफी परमात्मा हैं। इन कृष्ण के पास होना भी बड़ा सुखद है।

 तो कृष्ण को तो इसकी चिंता नहीं होती कि कौन किसलिए आया है, क्योंकि कृष्ण का कोई चुनाव नहीं है, लेकिन बुद्ध को चुनाव है। और बुद्ध सख्ती से इनकार करते हैं कि स्त्रियों को दीक्षा नहीं देंगे। और बड़े दिनों तक यह संघर्ष चलता है और स्त्रियों का बड़ा आंदोलन चलता है। और स्त्रियां सख्ती से बुद्ध की इस बात की खिलाफत करती हैं कि हमारा क्या कसूर है कि हमें दीक्षा नहीं मिलेगी! और बड़ी मजबूरी में और बड़े दबाव में और बड़े आग्रह में बुद्ध राजी होते हैं। अब यह थोड़ा सोचने जैसा मामला है, कि बुद्ध का इतनी देर तक यह कहे चले जाना कि नहीं दूंगा दीक्षा, क्योंकि बुद्ध को इसमें साफ एक बात दिखाई पड़ती है कि जो सौ स्त्रियां आती हैं उसमें निन्यानबे के आने की संभावना का कारण बुद्ध हैं, बुद्धत्व नहीं। यह साफ दिखाई पड़ रहा है। यह इतना साफ दिखाई पड़ रहा है कि बुद्ध “रेज़िस्ट’ करते हैं।

लेकिन तब कृशा गौतमी नाम की एक स्त्री बुद्ध को कहती है कि क्या हम स्त्रियों को बुद्धत्व नहीं मिलेगा? फिर आप कब दुबारा आएंगे हमारे लिए? और अगर हम चूके तो जिम्मेदारी तुम्हारी होगी। हमारा कसूर क्या है? हमारा स्त्री होना कसूर है? यह सौवीं स्त्री है, निन्यानबे वाली स्त्री नहीं है। इस कृशा गौतमी के लिए बुद्ध को झुकना पड़ता है। यह बुद्ध के लिए नहीं आई है, बुद्धत्व के लिए आई है। वह कहती है हमें तुमसे प्रयोजन नहीं है, लेकिन तुम्हारे होने का लाभ पुरुष ही उठा पाएंगे? हम सिर्फ स्त्री होने से वंचित रह जाएंगे? स्त्री होने का ऐसा दंड हमें मिल रहा है! और आप भी इतने चुनाव करते हैं? तो कृशा गौतमी को आज्ञा दी जाती है। फिर द्वार खुल जाता है। और फिर वही होता है जो महावीर के पास हुआ। पुरुष कम पड़ जाते हैं, स्त्रियां रोज ज्यादा होती चली जाती हैं।

आज भी मंदिरों में स्त्रियां ज्यादा हैं, पुरुष कम हैं। तब तक पुरुष मंदिरों में कम होंगे, जब तक स्त्री तीर्थंकर और स्त्री अवतारों की मूर्तियां मंदिर में न हों। तब तक कम होंगे। क्योंकि सौ जाते हैं, उसमें से निन्यानबे बहुत सहज कारणों से जाते हैं, एक ही असहज कारण से जाता है।

कृष्ण के पास तो बहुत ही सरल बात है। कृष्ण के लिए तो कोई बाधा ही नहीं है। कृष्ण तो जीवन की समग्रता को अंगीकार कर लेते हैं। और कृष्ण अपने पुरुष होने को स्वीकार करते हैं, किसी के स्त्री होने को स्वीकार करते हैं। सच तो यह है कि कृष्ण ने शायद भूलकर भी जरा-सा भी अपमान किसी स्त्री का नहीं किया। जीसस के वचनों में भी संभावना है, महावीर के वचनों में भी, बुद्ध के वचनों में भी–स्त्री के अपमान की संभावना है। और कारण सिर्फ इतना ही है कि वे अपने पुरुष होने को मिटाना चाह रहे हैं, और कोई कारण नहीं है। स्त्री से कोई वास्ता नहीं है। महावीर, या बुद्ध, या जीसस अपने “सेक्सुअल बीइंग’ को, अपने “बायोलाजिकल बीइंग’ को, अपने जैविक अस्तित्व को पोंछ डालना चाह रहे हैं। स्वभावतः, स्त्री उनको न पोंछने देगी। स्त्री पास पहुंचेगी तो उनका पुरुष होना प्रगट हो सकता है। उनके पुरुष होने को भोजन मिलता है। लेकिन जीसस जैसे उदास आदमी के पास भी, जीसस जैसे जिसके ओंठ पर बांसुरी नहीं है, उसके पास भी स्त्रियां इकट्ठी हो गईं। और जीसस की सूली पर से लाश जिन्होंने उतारी, वे पुरुष न थे, वे स्त्रियां थीं। उस युग की सर्वाधिक सुंदरी स्त्री मेरी मेग्दलीन, उसने उस लाश को उतारा। पुरुष तो भाग गए थे, स्त्रियां रुकी थीं। पुरुष तो जा चुके थे। पर स्त्रियां रुकी थीं। और जीसस ने स्त्रियों के लिए सम्मान का कभी एक वचन नहीं कहा।

महावीर कहते हैं कि स्त्रियां स्त्री-पर्याय से मोक्ष न जा सकेंगी। उन्हें एक बार पुरुष का जन्म लेना होगा, फिर वे मोक्ष जा सकती हैं। बुद्ध तो उनको दीक्षा ही देने से इनकार करते हैं कि हम दीक्षा ही न देंगे। और जब दीक्षा भी दे दी तब भी उन्होंने जो वचन कहे, वह बहुत ही हैरानी के हैं। बुद्ध ने कहा कि मेरा जो धर्म हजारों साल चलता, अब वह पांच सौ साल से ज्यादा नहीं चल पाएगा; क्योंकि स्त्रियां दीक्षित हो गईं हैं।

“इस कथन में सच्चाई तो थी!’

* सवाल यह नहीं है। सवाल यह नहीं है! बुद्ध की तरफ से कथन में सच्चाई थी। बुद्ध की तरफ से कथन में सच्चाई थी, क्योंकि बुद्ध का जो मार्ग है, उस मार्ग में, या महावीर का जो मार्ग है उस मार्ग में स्त्री के लिए उपाय नहीं है बहुत। लेकिन महावीर और बुद्ध बड़े आकर्षक हैं और स्त्री आ जाती है। सचाई उनके मार्ग के संदर्भ में है, सचाई “एब्सोलूट’ नहीं है। स्त्री के लिए कोई बाधा नहीं है मोक्ष जाने से–कोई बाधा नहीं है। लेकिन मार्ग अन्यथा होगा। महावीर वाले मार्ग से नहीं हो सकता। ऐसे ही जैसे कि दो रास्ते हों पहाड़ पर, एक सीधी चढ़ाई का गोल रास्ता हो और वहां एक तख्ती लगी हो कि स्त्रियां यहां से। बस इतना ही फर्क है। यह रास्ते के संदर्भ में सच है, महावीर के रास्ते के संदर्भ में यह बिलकुल सच है कि स्त्री जा नहीं सकती मोक्ष। अगर महावीर के मार्ग से ही जाने की किसी स्त्री की जिद्द हो तो उसे एक बार पुरुष के रूप में लौटना जरूरी है। क्योंकि सीधी चढ़ाई का रास्ता है। चढ़ाई के कई कारण हैं।

बड़ा कारण तो यह है कि न कोई परमात्मा है महावीर के रास्ते पर, न कोई संगी-साथी। न ही कोई है जिसके कंधे पर हाथ रखा जा सके। स्त्री का व्यक्तित्व अपने-आप में ऐसा है कि कोई झूठा कंधा भी मिल जाए तो भी ठीक है। उसको कंधे पर हाथ चाहिए। वह किसी के कंधे पर हाथ रखकर आश्वस्त हो जाती है। यह उसके व्यक्तित्व का ढंग है। इसमें कोई, और कोई कारण नहीं है। पुरुष किसी के कंधे पर हाथ रखे तो दीन अनुभव करता है अपने को। स्त्री किसी के कंधे पर हाथ रखे तो उसकी गरिमा बढ़ जाती है। स्त्री जब किसी के कंधे पर हाथ रख कर चलती है तब उसकी शान अलग है। जब वह अकेली चलती है तब दीन होती है। और पुरुष किसी के कंधे पर हाथ रखकर चलता है तो उसकी दीनता प्रगट होती है।

“गांधी जी भी तो दो स्त्रियों के कंधे पर हाथ रखकर चलते थे।’

* इसकी पीछे बात करनी पड़ेगी। यह जो गांधी जी की बात उठाई है, वह भी एक क्षण में ले लेनी चाहिए। गांधी जी स्त्रियों के कंधे पर हाथ रखकर चले हैं, शायद इस भांति के वे पहले पुरुष हैं। कोई कभी किसी स्त्री के कंधे पर हाथ रखकर नहीं चला है।

“बूढ़े थे, इसलिए?’

* नहीं, बूढ़े नहीं थे। बूढ़े नहीं थे तब भी वे रखते थे। गांधीजी का स्त्री के कंधे पर हाथ रखकर चलना किसी विशेष घोषणा के लिए है। इस मुल्क में, जहां सदा ही स्त्री ने पुरुष के कंधे पर हाथ रखा हो, जहां सदा ही स्त्री अद्र्धांगिनी रही हो–और नंबर दो की अद्र्धांगिनी, नंबर एक की कभी नहीं–जहां स्त्री सदा ही पीछे रही हो, आगे कभी नहीं; जहां स्त्री का होना ही “सेकेंड्री’ हो गया हो, द्वितीय कोटि का हो गया हो, वहां गांधी को लगता है कि किसी पुरुष को यह घोषणा करनी चाहिए कि स्त्री के कंधे भी इतने कमजोर नहीं, उस पर भी हाथ रखा जा सकता है। यह एक लंबी परंपरा के खिलाफ एक प्रयोग है, और कुछ भी नहीं, और कोई कारण नहीं है। हालांकि, गांधीजी स्त्रियों के कंधे पर हाथ रखे हुए बहुत सुंदर नहीं मालूम पड़ते हैं, और गांधीजी के हाथ के नीचे दबी हुई स्त्रियां भारी बोझ से ग्रसित होती मालूम होती हैं। असल में यह बिलकुल स्वभाव के प्रतिकूल किया जा रहा है। यह है नहीं ठीक। यह है नहीं ठीक। यह स्त्री और पुरुष के “बीइंग’ के संबंध में गांधी की समझ बहुत नहीं है। सिर्फ एक परंपरा का विरोध है, वह बात अलग है। एक व्यवस्था का विरोध है, वह बात अलग है। लेकिन स्त्री और पुरुष के व्यक्तित्व के संबंध में गांधी की समझ बहुत गहरी नहीं है।

इसलिए गांधी ने बहुत-सी स्त्रियों को करीब-करीब पुरुष बनाकर छोड़ दिया। और स्त्री जाति को फायदा हुआ है ऐसा मैं नहीं कहूंगा। स्त्री जाति को गहरा नुकसान हुआ है। क्योंकि स्त्री को पुरुष नहीं बनाया जा सकता। उसके स्त्री होने का अपना ढंग है। और उसके ढंग की खूबी ही यह है। और यह बड़े मजे की बात है कि न केवल स्त्री जब किसी के कंधे पर हाथ रखती है तो खुद गौरवान्वित होती है, उस पुरुष को भी गरिमा से भर देती है। ऐसा नहीं है, यह कुछ सिर्फ लेना ही नहीं है, उसमें देना भी है। यह सिर्फ कंधे का सहारा लेकर ऐसा नहीं है कि स्त्री को ही कुछ मिल जाता है, पुरुष को भी बहुत कुछ मिलता है। ऐसा पुरुष जिसके कंधे पर किसी स्त्री ने हाथ नहीं रखा, वह भी बहुत दीनता का अनुभव करता है।

यह जो महावीर, बुद्ध, जीसस, इन सारे लोगों के व्यक्ति में, जैविक व्यक्तित्व का निषेध इनकी साधना का हिस्सा है। कृष्ण के जीवन में समस्त की स्वीकृति साधना है। उसमें जैविक भी स्वीकार है, उसमें वह जो “सेक्सुअल बीइंग’ है वह भी स्वीकार है, वह जो काम-शरीर है, निषेध कुछ भी नहीं है। कृष्ण के हिसाब से तो जो निषेध करता है, वह किसी-न-किसी अर्थ में थोड़ा-न बहुत नास्तिक है। असल में निषेध करना ही नास्तिकता है। कितनी मात्रा में कोई करता है–कोई कहता है कि हम शरीर को स्वीकार नहीं करते हैं तो शरीर के प्रति नास्तिक हैं। कोई कहता है हम यौन को स्वीकार नहीं करते, तो यौन के प्रति नास्तिक हैं। कोई कहता है हम ईश्वर को स्वीकार नहीं करते, तो वह ईश्वर के प्रति नास्तिक है। लेकिन अस्वीकृति नास्तिकता का ढंग है। स्वीकृति आस्तिकता है। इसलिए न मैं महावीर को, न बुद्ध को, न जीसस को इतना आस्तिक कह सकता हूं जितना आस्तिक मैं कृष्ण को कहता हूं। समस्त स्वीकृति। निषेध है ही नहीं, निंदा है ही नहीं। जो भी है, उसकी अपनी जगह है अस्तित्व में।

इस वजह से कृष्ण के पास अगर लाखों स्त्रियां इकट्ठी हो सकीं, तो आकस्मिक नहीं है। और पास इकट्ठे होने का कारण न था। महावीर के पास इकट्ठे हों, तो भी एक “डिस्टेंस’, एक “फार्मल डिस्टेंस’ जरूरी है। महावीर के पास भी खड़े हों, तो एक शिष्टाचार का जितना फासला है उतना रखना पड़ेगा। महावीर के गले को स्त्री जाकर मिल जाए तो एकदम अशिष्टता हो जाएगी। न तो महावीर इसे बर्दाश्त करेंगे, न उस स्त्री को इससे कोई सुख और शांति मिलेगी, अपमान ही मिलेगा।

“महावीर किसलिए बर्दाश्त नहीं करेंगे?’

* महावीर इसलिए बर्दाश्त नहीं करेंगे कि महावीर उसे बिलकुल स्वीकार नहीं करेंगे, वह पत्थर की तरह खड़े रह जाएंगे। उनका पूरा अस्तित्व उसे इनकार करेगा। वह कहेंगे नहीं कि मत छुओ। मगर ऐसा लगेगा, कोई शिलाखंड ही हाथों में ले लिया। और स्त्री का अपमान इससे नहीं होता कि कोई कह दे कि मत छुओ, अपमान इससे होता है–वह किसी को छुए और दूसरी तरफ से कोई “रिस्पांस’ न हो, कोई उत्तर न हो। यह सवाल नहीं है। महावीर ऐसे हैं, इसमें कोई उपाय नहीं है। वह कोई स्त्री का अपमान करने जा रहे हैं, ऐसा नहीं है। यह उनका अपना होने का ढंग है। इसलिए स्त्रियां महावीर के आसपास, जिसको हम कहें एक औपचारिक फासला सदा कायम रखती हैं। उनके पास नहीं जाया जा सकता। उनके अस्तित्व का एक घेरा है जिसमें प्रवेश नहीं किया जा सकता।

लेकिन कृष्ण के साथ स्थिति बिलकुल और है। कृष्ण के साथ अगर कोई स्त्री कोई फासला रखना चाहेगी तो मुश्किल में पड़ जाएगी। वह अगर दूर खड़ी होगी तो पाएगी कि गिरती है पास। अगर कृष्ण के पास जाएगी तो पास आना ही पड़ेगा, जहां तक कि पास जाया जा सकता है। जहां कि आगे जाने का उपाय ही न हो, वह बात दूसरी है। लेकिन जहां तक पास जाया जा सकता है, कृष्ण के पास जाना ही पड़ेगा। जैसे कि कृष्ण पुकारते हुए हैं, एक निमंत्रण हैं। जैसे मैंने कहा कि महावीर एक शिलाखंड की तरह खड़े रह जाएंगे, कोई छुएगा भी तो पता चलेगा कि पत्थर है।

हेनरी थारो के संबंध में इमर्सन ने कहीं कहा है कि अगर हेनरी थारो से हाथ कोई मिलाए, तो ऐसा लगता है वृक्ष की सूखी शाखा को हाथ में ले लिया है। क्योंकि हेनरी थारो उत्तर नहीं देता, सिर्फ हाथ दे देता है। और हाथ बिलकुल मुर्दा होता है। उसमें कुछ नहीं होता, उसमें कोई गर्मी नहीं होती, उसमें कोई धारा नहीं होती। उसमें कुछ होता ही नहीं, सिर्फ हाथ होता है। हेनरी थारो की महावीर से दोस्ती बन सकती है।

कृष्ण के अगर कोई दूर भी खड़ा हो जाएगा तो ऐसा लगेगा, वह छू रहे हैं; वह स्पर्श कर रहे हैं, वह बुला रहे हैं। उनका पूरा अस्तित्व निमंत्रण है, आमंत्रण है। इस आमंत्रण को अगर हजारों स्त्रियों ने स्वीकार किया हो, तो आश्चर्य नहीं है। कोई आश्चर्य नहीं है। यह सहज हुआ।

रह गई बात यह कि हम पूछते हैं कि क्या कृष्ण के लिए संभोग जैसी बात संभव है? कृष्ण के लिए कुछ भी असंभव नहीं है। हमारे लिए संभोग प्रश्न है, कृष्ण के लिए प्रश्न नहीं है। हम नहीं पूछते कि फूलों के लिए संभोग संभव है? हम नहीं पूछते, पक्षियों के लिए संभोग संभव है? हम नहीं पूछते कि सारा जगत संभोग की एक लीला में लीन है? यह सारा अस्तित्व संभोगरत है! आदमी पूछना शुरू करता है कि क्या कृष्ण के लिए संभोग संभव है? क्योंकि आदमी जैसा है, तनाव से भरा हुआ, जीवन के प्रति निंदा से भरा हुआ, उसके लिए संभोग जैसी गहन चीज भी संभव नहीं रह गई है। उसके लिए संभोग जैसा अस्तित्व का क्षण भी जटिल जाल बन गया है। वह भी सिद्धांतों की, दीवालों की ओट में खड़ा हो गया है।

संभोग का अर्थ ही क्या है? संभोग का अर्थ इतना ही है कि दो शरीर इतने निकट आ जाएं, जितने कि प्रकृति उन्हें निकट ला सकती है। और कोई अर्थ नहीं है। दो शरीर अपनी जैविक-निकटता में, “बायोलाजिकल इंटीमेसी’ में आ जाएं। उसके आगे प्रकृति का उपाय नहीं है। प्रकृति की आखिरी जो निकटता है, वह संभोग है। प्रकृति के तल पर जो निकटतम नाता है, वह संभोग है। उसके आगे प्रकृति का उपाय नहीं। उसके आगे फिर परमात्मा का ही क्षेत्र शुरू होता है। लेकिन कृष्ण प्रकृति की निकटता को स्वीकार करते हैं; वह कहते हैं, प्रकृति भी परमात्मा की है।

कृष्ण के लिए संभोग विचारणीय नहीं है, प्रश्न नहीं है, समस्या नहीं है, जीवन का एक तथ्य है। हमें बहुत कठिनाई होगी। हमने संभोग को एक समस्या बना दिया है, जीवन का तथ्य नहीं रखा। अभी हमने और चीजों को नहीं बनाया, हम और चीजों को भी कल बना सकते हैं। हम कह सकते हैं कल कि कृष्ण आंख खोलते हैं कि नहीं? अगर हम कभी एक सवाल उठा लें और सिद्धांत बना लें कि आंख खोलना पाप है, तो फिर यह भी हो जाएगा। फिर हम पूछेंगे कि उन्होंने आंख खोली है कि नहीं? अभी हम नहीं बनाएंगे यह सवाल। अभी हम सवाल उन्हीं चीजों को, जिनको हम सवाल बना लेते हैं, उनको हम पूछते हैं कि ऐसा करेंगे या नहीं?

मेरी अपनी समझ यह है, कृष्ण के जीवन में कोई मर्यादा नहीं है। यही उनका व्यक्तित्व है, यही उनकी विशेषता है। मर्यादा वे मानते ही नहीं। मर्यादा ही उनके लिए बंधन है और अमर्यादा ही उनके लिए मुक्ति है। लेकिन जो अर्थ हम लेते हैं अमर्यादा का, वह उनके लिए नहीं है। हमारे लिए अमर्यादा का अर्थ मर्यादा का उल्लंघन है। कृष्ण के लिए अमर्यादा का अर्थ मर्यादा की अनुपस्थिति है। इसको खयाल में ले लें, नहीं तो कठिनाई होती है। कृष्ण के लिए संभोग विचारणीय नहीं है, फलित होना है तो हो जाता है, हो सकता है। नहीं फलित होता है तो नहीं होना है, नहीं होता है। इसकी चिंतना से वह नहीं चलते हैं। इसको सोचकर नहीं चलते। हमारी बड़ी अजीब हालत है। हमने संभोग को मानसिक, “साइकोलाजिकल’ बना लिया है। हम संभोग को भी सोचते हैं। करते हैं तो सोचते हैं, नहीं करते हैं तो सोचते हैं। संभोग भी हमारा निर्णय बनकर चलता है। कृष्ण के लिए निर्णय नहीं है अगर किसी का प्रेम-क्षण इतने निकट आ जाए कि संभोग घटित हो जाए, “हैपनिंग’ हो जाए, तो कृष्ण “अवेलेबल’ हैं, कृष्ण उपलब्ध हैं। न घटित हो, तो कृष्ण आतुर नहीं हैं। न कृष्ण के मन में कोई विरोध है, न कोई प्रशंसा है। जो हो जाता है, उसमें सहज जीने की सिर्फ राजी, स्वीकृति, स्वीकार है।

मैं फिर दोहराऊं कि हमारे अर्थों में स्वीकार नहीं। क्योंकि हम स्वीकार भी अगर करते हैं तो अस्वीकार के खिलाफ करते हैं। कृष्ण के स्वीकार का मतलब है सिर्फ, कि अस्वीकार नहीं। इसलिए कृष्ण को समझना हमें सबसे ज्यादा जटिल है। महावीर को समझना आसान, बुद्ध को समझना आसान, जीसस को समझना आसान, मुहम्मद को समझना आसान, सारी पृथ्वी पर कृष्ण को समझना सर्वाधिक कठिन है। इसलिए सर्वाधिक अन्याय उनके साथ हो जाना सहज ही हो जाता है। हमारी सारी धारणाएं महावीर, बुद्ध, जीसस और मुहम्मद ने निर्मित की हैं। हमारी सारी धारणाओं का जगत, हमारे विचार, हमारे सिद्धांत, हमारे शुभ-अशुभ की व्याख्या महावीर, बुद्ध, जीसस, मुहम्मद, कन्फ्यूसियस, इनने तय की है। इसलिए इनको समझना हमें सदा आसान है, क्योंकि हम इनसे निर्मित हुए हैं। कृष्ण ने हमें निर्मित नहीं किया। असल में कृष्ण किसी को निर्मित ही नहीं करते, वह कहते हैं, जो है वह ठीक है। निर्माण का सवाल क्या है! तो जो निर्मित करते हैं उनसे हम निर्मित हुए हैं, कृष्ण ने तो किसी को निर्मित किया नहीं, इसलिए कृष्ण को समझना बहुत मुश्किल हो जाता है।

जब भी हम कृष्ण को समझते हैं, तो या तो महावीर का चश्मा हमारी आंख पर होगा, या बुद्ध का चश्मा होगा, या क्राइस्ट का होगा, या कन्फ्यूसियस का होगा, उससे हम कृष्ण को देखेंगे। और कृष्ण कहते हैं, तुम्हें अगर मुझे देखना है तो चश्मा उतार दो। बहुत मुश्किल है मामला! वह चश्मा नहीं उतारोगे तो कृष्ण में कुछ-न-कुछ गड़बड़ दिखाई पड़ेगी। वह आपके चश्मे की वजह से दिखाई पड़ेगी। लेकिन आप चश्मा उतारो, तो कृष्ण अत्यंत सहज पुरुष हैं–अत्यंत सहज पुरुष हैं।

पूछा जा सकता है कि इतनी सहज स्त्री क्यों पृथ्वी पर नहीं हो सकी? एकाध स्त्री तो होनी ही चाहिए थी न! कृष्ण को एकाध जवाब स्त्री को देना चाहिए था। कोई इतनी सहज स्त्री क्यों न हो सकी कि लाखों पुरुष उसके प्रति आकर्षित हों? क्या बात है? क्या कारण है? कुछ कारण हैं। इतना ही कारण नहीं है कि स्त्री दबाई गई। इतना ही कारण नहीं है कि पुरुष ने उसे स्वतंत्रता नहीं दी होने की। क्योंकि यह बात फिजूल है। इसका कोई अर्थ नहीं है। जितनी स्वतंत्रता जिसे चाहिए उतनी सदा मिल जाती है, अन्यथा वह जीने से इनकार कर देता है। नहीं, स्त्री कृष्ण का उत्तर नहीं दे पायी, शायद अभी और हजार दो हजार वर्ष लग जायेंगे, तब शायद स्त्री दे पाये। अभी नहीं दे पायी। अभी देना कठिन भी है। न देने का कारण है। स्त्री का सारा व्यक्तित्व, सारा ढंग, उसके होने की प्राकृतिक व्यवस्था “मोनोगेमस’ है, वह एक पर निर्भर रहना चाहती है।…

“क्लियोपेत्रा जैसी?’

* नहीं, बात करता हूं। …वह एक पर निर्भर रहना चाहती है। उसका चित्त “मोनोगेमस’ है, अब तक, कल भी रहेगा ऐसा जरूरी नहीं है। पुरुष “पोलीगेमस’ है। वह एक उसे कभी भी सुख नहीं दे पाता। पुरुष एक से ऊब जाता है। स्त्री एक से बिलकुल नहीं ऊबती। स्त्री एक के साथ जन्म-जन्म जीने की कामना करती है। एक के साथ फिर दुबारा भी जन्म मिले तो उसी के साथ मिले, वैसी कामना करती है।

यह जो एक-स्त्री-पुरुष का संबंध है, यह पुरुष ने कम तय किया है, यह स्त्री ने ज्यादा तय करवा लिया है। यह पुरुष की वजह से नहीं है, एकपत्नीव्रत, या एक पतिव्रत, यह स्त्री की वजह से है। इसके अब तक “बायोलाजिकल’ कारण भी थे, जैविक कारण भी थे। क्योंकि स्त्री को निर्भर होना है–बहुतों पर निर्भर नहीं हुआ जा सकता है। इसको खयाल में लेना जरूरी है। स्त्री को कंधे पर हाथ रखना है। बहुत कंधों पर हाथ नहीं रखे जा सकते। निर्भर होना जिसका सुख है, वह बहुतों पर निर्भर होगी तो अनिश्चितमना हो जाएगी, निर्भरता उसकी “इनडिसीसिव’ हो जाएगी, उसमें निर्णय नहीं रह जाएगा। जिसे निर्भर होना है–जैसे एक बेल है, उसे एक वृक्ष पर निर्भर होना है, वह बहुत वृक्षों पर एक-साथ नहीं चढ़ सकती। उसे एक वृक्ष पर ही चढ़ना होगा। लेकिन एक वृक्ष बहुत-सी बेलों को आमंत्रित कर सकता है। और एक वृक्ष पर जितनी बेलें चढ़ जाएं उतनी उसे तृप्ति होगी, क्योंकि उतना ही वह वृक्ष मालूम होने लगेगा। एक पुरुष बहुत-सी स्त्रियों को, हाथों को निमंत्रित कर सकता है कि मेरे कंधे पर रखो, क्योंकि उतना ही उसके पुरुष होने की गहरी रस की स्थिति उसे उपलब्ध होगी।

मगर स्त्री एक पर निर्भर होना चाहेगी। इस एक पर निर्भर होने का कारण चित्त में तो है ही, बहुत ज्यादा “बायोलाजिकल’, शारीरिक कारण है, जैविक कारण है। उसके बच्चे होंगे। उन बच्चों के लिए कोई निर्धारक, कोई नियंता, कोई फिक्र करने वाला होना चाहिए। नौ महीने वह असमर्थ होगी। उसके बाद उसके बच्चे के सम्हाले में उसे सारा वक्त लगाना पड़ेगा। अगर वह बहुतों पर निर्भर है, तो इसमें अनिश्चय पैदा होगी और कठिनाई होगी। इसलिए मैंने कहा कि हजार-दो हजार साल लग जाएंगे, क्योंकि बहुत जल्दी स्त्रियां इनकार कर देंगी वैज्ञानिक विकास के साथ बच्चों को पेट में सम्हालने से। वे तो प्रयोगशालाओं में सम्हाले जाएंगे। जिस दिन स्त्री बच्चे को पेट में रखने से मुक्त हो जाएगी, उस दिन स्त्री भी कृष्ण जैसा व्यक्ति पैदा कर सकती है, उसके पहले नहीं पैदा कर सकती। उसके कारण थे।

यह जो मैंने कृष्ण के सहज होने की बात कही, इसे मनुष्यता जितने गहरे में समझ पाए उतने ही चिंताओं और तनावों और संतापों से मुक्त हो सकती है। आदमी के अधिक तनाव आदमी के अपने ही स्वभाव से संघर्ष के परिणाम हैं। आदमी की अधिक चिंताएं अपने से ही लड़ने की चिंताएं हैं। और मजा यह है कि हम अपने से लड़ सकते हैं, लेकिन जीत नहीं पाते–जीत नहीं सकते। हार ही होती है–हार ही होती है। कभी-कभी कोई जीत जाता है। बड़ी अनूठी वह घटना है, कभी-कभी कोई जीत पाता है। उस कभी-कभी कोई जीतने वाले के अनुसरण में लाखों लोग अपने से लड़ते चले जाते हैं। और ये लाखों लोग सिर्फ चिंतित होते हैं, असफल होते हैं; हारते हैं और परेशान होते हैं।

मेरी अपनी दृष्टि ऐसी है कि महावीर के मार्ग से कभी कोई एकाध आदमी उपलब्ध हो सकता है। लेकिन महावीर के मार्ग पर सौ में से निन्यानबे आदमी चलते हैं। कृष्ण के मार्ग से निन्यानबे आदमी उपलब्ध हो सकते हैं, लेकिन कृष्ण के मार्ग से एकाध आदमी भी नहीं चलता है। महावीर का मार्ग पगडंडी का है, मैंने का। बुद्ध का भी। जीसस का भी। इनके मार्ग बहुत संकरे हैं, बहुत “नैरो’ हैं। और बड़े दुरूह हैं, क्योंकि व्यक्ति को अपने से ही लड़कर गुजरना है। कभी-कभी कोई सफलता उपलब्ध होती है।

कृष्ण का मार्ग राजपथ की तरह है। उस पर बहुत लोग जा सकते हैं। लेकिन, उस पर बहुत कम लोग जाएंगे, बहुत कम लोग जाते हैं। क्योंकि सहज होने की क्षमता ही जैसे आदमी खोता चला गया। असहज होना ही सहज हो गया है। रुग्ण होना ही हमारा स्वास्थ्य हो गया है और स्वस्थ होने की धारणा ही भूल गई है। पुनर्विचार की जरूरत है मनुष्य पर। लेकिन मैं मानता हूं कि पुनर्विचार पैदा हो रहा है। फ्रॉयड के बाद अब भविष्य में कृष्ण रोज-रोज सार्थक होते चले जाएंगे। क्योंकि फ्रॉयड के बाद पहली बार मनुष्य के चित्त की सहजता को स्वीकृति मिलने की भूमिका बन रही है। जैसा मनुष्य है, उस मनुष्य को ही विकसित करना है। अब तक जैसा मनुष्य होना चाहिए, उसको हमने पैदा करने की कोशिश की थी। अब तक आदर्श कीमती था और मनुष्य को उस आदर्श तक पहुंचना ही था जरूरी। अब फ्रॉयड के बाद एक रूपांतरण पूरी दुनिया के जिसको हम कहें बौद्धिक जगत में एक ऊहापोह शुरू हुआ है, वह यह कि हम आदमी को पहुंचाने की सारी कोशिश करके भी पहुंचा नहीं पाए। कभी-कभी कोई एकाध आदमी पहुंच जाता है, उससे कोई हल नहीं होता। वह नियम नहीं है, सिर्फ अपवाद है। और अपवाद सिर्फ नियम को सिद्ध करते हैं और कुछ नहीं करते। वह सिर्फ इतना सिद्ध करते हैं कि सब न पहुंच सकेंगे। फ्रॉयड के बाद पहली दफा “आनेस्ट थिंकिंग’, ईमानदार चिंतन शुरू हुआ है। वह ईमानदार चिंतन यह कह रहा है कि आदमी क्या है, उसको हम समझने चलें।

अब एक पत्नी है, उसकी आकांक्षा है कि उसका पति कभी किसी दूसरी स्त्री को देखकर प्रसन्न न हो। यह आकांक्षा पुरुष के स्वभाव के बिलकुल अनुकूल है। इस आकांक्षा का एक ही परिणाम हो सकता है। अगर पुरुष की आकांक्षा से नीति और नियम निर्धारित किए जाएं तो स्त्री दुखी और पीड़ित हो जाएगी। अगर स्त्री की आकांक्षा से नीति और नियम निर्धारित किए जाएं तो पुरुष दुखी हो जाएगा। और मजा यह है कि दो में से एक दुखी हो जाए तो दूसरा सुखी नहीं हो सकता। उसका कोई उपाय नहीं रह जाता। लेकिन अब तक यही हुआ है।
 
क्या ऐसा नहीं हो सकता है कि हम पुरुष और स्त्री दोनों के स्वभाव को समझने की दोनों कोशिश करें? और जब पुरुष किसी स्त्री को देखकर प्रसन्न हो तो पत्नी इससे पीड़ित न हो जाए, और जाने कि यह पुरुष का स्वभाव है। और जब उसकी स्त्री उदास और परेशान दिखाई पड़े तो उसका पति उस पर टूट न पड़े, जाने कि यह स्त्री का स्वभाव है। अगर हम एक संतापहीन, तनावमुक्त जगत पैदा करना चाहते हों, तो हमें व्यक्तियों के स्वभाव को समझने की कोशिश करनी चाहिए। और स्वभाव क्यों है, उसकी जड़ों में जाना चाहिए। और अगर स्वभाव बदलना हो तो जड़ें बदलनी चाहिए, स्वभाव को बदलने की ऊपर से नैतिक चेष्टा नहीं करनी चाहिए। स्त्री तब तकर् ईष्यालु रहेगी, जब तक आर्थिक रूप से स्वतंत्र नहीं है। तब तकर् ईष्यालु रहेगी, जब तक बच्चे का बोझ अकेले उस पर पड़ जाता है। तब तकर् ईष्यालु रहेगी, जब तक उसका होना द्वितीय कोटि की जगह, पुरुष के बराबर आर्थिक स्वावलंबन, पुरुष के बराबर उसकी जैविक मजबूरी से मुक्ति, तो हम स्त्री कोर् ईष्या से तत्काल मुक्त कर सकेंगे। और स्त्री उसी तरह दूसरे पुरुषों में भी रस लेने को आतुर हो जाएगी जैसा पुरुष सदा से रहा है। लेकिन यह अभी तक नहीं हो सका। यह अब हो सकता है। मनुष्य के बाबत हमारी समझ गहरी हुई है।

पुरानी हमारी सारी व्यवस्था मनुष्य की समझ पर निर्भर नहीं थी, बल्कि मनुष्य की जरूरतों पर निर्भर थी। मनुष्य के समाज में क्या जरूरी है, वह हमने नियम बनाए थे। मनुष्य के स्वभाव के लिए क्या जरूरी है, वह हमने नियम नहीं बनाए थे। लेकिन फ्रॉयड के बाद एक क्रांति घटित हुई है। और मैं मानता हूं, फ्रॉयड द्वार बनेगा कृष्ण की वापसी का। कृष्ण वापस लौटेंगे–वह फ्रॉयड के द्वार से लौटेंगे। फ्रॉयड ने बड़ा प्राथमिक काम किया है। अभी बहुत काम उस दिशा में होना जरूरी है। फ्रॉयड और कृष्ण के आने वाले भविष्य में निरंतर अधिक लोगों को कृष्ण के जीवन से रोशनी मिलने की संभावना बढ़ती जाने वाली है। उसकी सहजता धीरे-धीरे हमारे अनुकूल और प्रीतिकर होती जाने वाली है।

और जिस दिन यह हो सकेगा मेरा अपना मानना है कि महावीर, बुद्ध, जीसस, कन्फ्यूसियस को मानकर हम एक स्वस्थ दुनिया पैदा नहीं कर सके। एक प्रयोग जरूर किया जाने जैसा है कि कृष्ण की तरह देखकर हम दुनिया को एक व्यवस्था दे पाएं। और मेरी अपनी समझ है कि जो दुनिया हमने अब तक पैदा की है, उससे वह दुनिया बेहतर हो सकेगी। क्योंकि अब तक जो दुनिया हमने पैदा की है वह अपवाद को नियम मानकर की है, अब हम नियम को ही नियम मानकर करेंगे।

कृष्ण स्मृति 

ओशो 

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