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Thursday, December 3, 2015

मन पुनरुक्ति चाहता है

मैंने सुना है, एक मदारी के पास एक बंदर था। वह रोज सुबह उसे चार चपाती देता और सांझ तीन चपाती दीं, बंदर ने फेंक दीं। रोज सुबह चार मिलती हैं। बंदर बड़ा नाराज हुआ! बड़ा समझाया—बुझाया तो बंदर ने बामुश्किल से तीन लीं। शाम को चार दीं तो उसने फेंक दीं। क्योंकि शाम को हमेशा वह तीन खाता रहा। मदारी तो बहुत हैरान हुआ। मदारी ने बहुत कहा, अरे मूरख, तुझे थोड़ा गणित नहीं आता? चार और तीन सात। सात तुझे रोज मिलती थीं। सुबह तीन, चार शाम या चार सुबह, कि तीन शाम। लेकिन बंदर अकड़ा बैठा रहा। बंदर तब तक राजी न हुआ, जब तक उसे सुबह चार और सांझ तीन रोटियां मिलनी शुरू न हुईं।

आदमी का मन भी बंदर जैसा है। उसे तुम जो देते हो, वह उसी की मांग करता है। रोज रोज वैसा ही चाहिए। 

तो प्रार्थना भी एक यंत्रवत बात हो जाती है। रोज सुबह उठकर, स्नान करके प्रार्थना करते हो; स्नान करके नहीं करोगे, खाली जगह रह जाएगी। जैसे कभी कोई दांत टूट जाता है, तो जीभ वहीं, वहीं वहीं जाती है। इतने दिन से दांत था, जनम भर से, जीवन भर से, तब से जीभ वहां नहीं गई थी। आज दांत गिर गया, खाली जगह में दिन भर जीभ जाती है। तुम लाख जीभ को समझाओ कि मालूम है कि टूट गया, अब बार बार क्या जाना, मगर फिर भूले कि जीभ गई!

खाली जगह अखरती है। तुमने प्रार्थना न की तो प्रार्थना की कमी अनुभव होगी। और करोगे, तो कुछ मिलेगा नहीं। आखिर जीभ को ले जाओगे टूटे हुए दांत की जगह तो क्या पा लोगे? प्रार्थना करते रहोगे, कुछ मिलेगा नहीं, प्रार्थना नहीं करोगे तो कुछ खोया खोया लगेगा यह बहुत हैरानी की घटना घटती है। इसलिए लोग जो करते हैं, किए चले जाते हैं।

लेकिन अब काफी हो गया! वर्षों से पुकार रहे हो, कुछ हुआ नहीं। अब पुकारने का नया ढंग सीखो। जिसमें न नाम है, न औपचारिक रूप है। नियमित प्रार्थना करते रहे हो जैसे और सब काम नियमित करते हो स्नान करते हो, भोजन करते हो, सोते हो। अब एक और प्रार्थना सीखो, जिसका नियम से कोई संबंध नहीं। जो किसी मर्यादा में नहीं होती। जो श्वास की तरह होती है। जो अहर्निश चलती रहती है। उठते बैठते, सोते जागते, काम करते न करते। 

लेकिन ऐसी प्रार्थना का अर्थ यह मत समझ लेना कि मैं तुमसे कह रहा हूं कि अब चौबीस घंटे राम राम, राम राम, राम राम जपते रहो। वैसा करोगे तो विक्षिप्त हो जाओगे। वैसा करोगे तो जो थोड़ी बहुत प्रतिभा होगी, वह भी खो जाएगी; जंग खा जाएगी।

इसलिए तुम्हारे तथाकथित रामनाम जपने वाले लोगों में कोई प्रतीक्षा के दर्शन नहीं होते। उनकी तलवार में कोई धार नहीं होती; जंग लगी होती है। यह तो जंग लगाने का ढंग है। एक ही शब्द को बार बार दोहराते रहोगे तो प्रतिभा को धार रखने का मौका ही नहीं मिलेगा। 

प्रतिभा में धार आती है नए नए अनुभव से; नई नई प्रतीतियों से; नई भूमि तोड़ने से; नए पर्वत शिखरों पर चढ़ने से; नए अभियान से; नई यात्रा से। चौबीस घंटे राम राम दोहराते रहे तो गाड़ी के चाक की तरह घूमते रहोगे उसी जगह। कोल्हू के बैल हो जाओगे।

तो जब मैं कहता हूं: अहर्निश, तो मेरा अर्थ है: एक भावदशा। शब्द उतना नहीं, जितना भावदशा। फूल दिखाई पड़े तो प्रभु को स्मरण करना; लोग दिखाई पड़ें तो प्रभु को स्मरण करना, सूरज ऊगता दिखाई पड़े तो प्रभु को स्मरण करना। सब उसका है। सब इशारे उसके हैं। सब रूपों में वही व्यक्त हो रहा है। ऐसा कोई रूप नहीं जो उसका न हो। तुम्हारे शत्रु में भी वही है, मित्र में भी वही है। ऐसा कर सको तो प्रार्थना हो।

और ध्यान रखना, कहते हो: मेरी पुकारों का कोई उत्तर नहीं मिलता, उत्तर है ही नहीं। यह जगत निरुत्तर है। इसीलिए तो इस जगत को रहस्य कहते हैं। रहस्य का अर्थ है: इसका कोई उत्तर नहीं है। रहस्य का अर्थ है: उत्तर खोजते खोजते मर जाओगे, उत्तर नहीं पाओगे। सदियां हो गईं, दार्शनिक खोज रहे हैं उत्तर; क्या खाक उत्तर खोजा जा सका है! एक जीवन के मौलिक प्रश्न का उत्तर नहीं है। हो ही नहीं सकता। यहीं दर्शन और धर्म का भेद है। धर्म कहता है: उत्तर हैं ही नहीं। दर्शन कहता है: और थोड़ा खोजें तो शायद मिल जाए उत्तर। उत्तर तो नहीं मिलते और नए प्रश्न मिल जाते हैं। खोदते चलो, नए नए प्रश्न मिलते जाते हैं।

 धर्म कहता है: उत्तर तो है ही नहीं, प्रश्न को भी गिर जाने दो। और जिस दिन प्रश्न गिर जाता है, उस दिन तुम निर्भार हो जाते हो। चिंता नहीं रह जाती। प्रश्न है तो विचार है। प्रश्न नहीं तो विचार नहीं। प्रश्न है तो जीवन समस्या मालूम होती है और प्रश्न नहीं है तो जीवन समाधान है। निष्प्रश्न होना ही समाधि है।

सपना यह संसार 

ओशो 


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