तुमने वह कहानी सुनी है? कि एक सम्राट ने राजधानी में घोषणा की कि
प्रत्येक व्यक्ति एक एक मटकी दूध लाकर महल के सामने बनी हुई हौज में डाल
जाए। हर व्यक्ति ने सोचा: इतने लोग वहां जाकर दूध डालेंगे, हम अगर एक मटकी
पानी डाल आए, कहां पता चलेगा? लेकिन ऐसा प्रत्येक ने सोचा। लोगों के सोचने
में कुछ बहुत फर्क होते नहीं; गणित हिसाब एक ही होते हैं। प्रत्येक ने यही
सोचा कि हजारों लोग दूध डालेंगे, मैं अकेला एक मटकी सुबह सुबह अंधेरे में
पानी डाल आऊंगा, कौन पता चलने वाला है!
सुबह जब सम्राट उठा, बड़ा हैरान हुआ! हौज पानी से भरी थी। एक मटकी भी दूध
की कोई नहीं डाल गया था। उसने अपने वजीरों से पूछा कि यह क्या मामला है?
वजीरों ने कहा, कुछ मामला नहीं है, यही लोगों का हिसाब है। प्रत्येक अपने
भीतर सोचता है, इतने लोग कर रहे हैं, तो मैं चुप रहूं, बोलने की कोई जरूरत
नहीं, नहीं तो मैं अज्ञानी समझा जाऊंगा। चलो, पितृपक्ष मनाओ! इतने लोग मना
रहे हैं तो ठीक ही मना रहे होंगे। ऐसा प्रत्येक सोच रहा है।
काश, तुम सब अपने हृदय खोलकर रख सको तो तुम्हारे धर्म तिरोहित हो जाएं!
काश, तुम ईमानदारी से कह सको अपने पड़ोसी से कि तुम्हारी भीतरी दशा क्या है,
तो सारे मंदिर मस्जिद, सारे पंडित पुरोहित इस पृथ्वी से विदा हो जाएं!
उनके जीने का ढंग एक है। उस ढंग में एक ही गणित है कि कोई किसी से नहीं
कहता। मैं क्यों फंसूं?
सपना यह संसार
ओशो
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