योग चिन्मय!
प्रेम तो बस सपना ही सपना है-लेकिन एक विशिष्ट सपना, जो जागरण के बहुत
करीब है। भोर का सपना! सुबह-सुबह होने को है। नींद चली भी नहीं गई। नींद
है, ऐसा भी कहना कठिन है। हल्की-हल्की नींद है। हल्का-हल्का जागरण भी है।
ऐसी मध्य की अवस्था है। संध्याकाल है प्रेम। न रात न दिन। बस सुबह होने को
है, मगर अभी हो नहीं गई। आकाश लाल होने लगा है। बदलियों में रंग आने लगा है
सूरज की किरणों का, लेकिन सूरज अभी प्रगट नहीं हुआ, क्षितिज के नीचे दबा
है। होता ही है। अब हुआ, अब हुआ।
प्रेम सपना है, लेकिन जागरण के सर्वाधिक करीब। और भी सपने हैं। घृणा भी
सपना है, लेकिन जागरण से सर्वाधिक दूर। घृणा है आधी रात का सपना, प्रेम है
भोर का सपना। इसलिए जिन्हें जागना है उन्हें प्रेम का सपना देखना होता है।
घृणा के सपने से जागना बहुत कठिन है। प्रेम के सपने से जागना आसान है;
जागना जरूरी नहीं है अनिवार्यता नहीं है। क्योंकि सुबह भी हो जाए और तुम न
चाहो जागना, तो न जागो। सूरज भी निकल आए और तुम्हें सोना है तो तुम सोए ही
रहो। तुम जाग कर भी तो आखें बंद रख सकते हो।
दिन एक सुबह-सुबह उठ कर मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी ने उससे कहा :
मुल्ला, रात नींद में तुम बहुत मुझे गालियां दे रहे थे, बहुत गड़बड़ा रहे थे।
बहुत अंट -शंट बोल रहे थे।
मुल्ला ने कहा : कौन बेवकूफ सो रहा था?
सोए को जगाना तो आसान है; जागे को जगाना बहुत मुश्किल। जागा तो बन कर
पड़ा है, चादर ओढ़ ली है, आंख बंद कर ली है। जागा तो तय कर लिया है कि
जागेगा नहीं। सोया है तो झकझोर दो। उसे पता नहीं है सोया है, तो झकझोरने
में जाग जाएगा। लेकिन जो जागा है, झकझोरो तो भी न जागेगा; उसे तो पता है।
उसने तो तय किया कि जागना नहीं है।
तो सुबह हो जाने से ही कुछ नहीं होता। प्रेम हो जाने से ही कुछ नहीं
होता। प्रेम हो -होकर भी लोग चूक जाते हैं। मंदिर के द्वार तक आ- आकर मुड़
जाते हैं। सीढ़िया चढ़ -चढ़ कर लौट जाते हैं।
प्रेम तो बहुत बार जीवन में घटता है, मगर बहुत थोड़े से धन्यभागी हैं जो
जागते हैं। जो जाग जाते हैं, उनके प्रेम का नाम प्रार्थना है। जागे हुए
प्रेम का नाम प्रार्थना है। सोई हुई प्रार्थना का नाम प्रेम है।
प्रेम तो सपना ही सपना है। तुम पूछते हो : ‘कितना सपना, कितना सच?’ कहीं
सपना और सच मिलते हैं? कहीं सपने और सच का कोई तालमेल हो सकेगा, कि इतने
प्रतिशत सपना, इतने प्रतिशत सच? कहीं अंधेरे और रोशनी को मिला पाओगे? या तो
अंधेरा होगा या रोशनी होगी। कहीं जीवन और मौत को मिला पाओगे? या तो जिओगे
या नहीं जिओगे; बीच में नहीं हो सकणै।
प्रेम तो सपना ही सपना है-मगर बड़ा प्रीतिकर, मधुर, सुस्वादु, लेने योग्य।
और जब मैं कहता हूं प्रेम अनुभव करने योग्य सपना है, तो ध्यान रखना, यह
वक्तव्य सापेक्ष है। सभी वक्तव्य सापेक्ष हैं। मैं घृणा की तुलना में कह
रहा हूं कि प्रेम जीने योग्य सपना है। मैं प्रार्थना की तुलना में नहीं कह
रहा हूं। प्रार्थना की तुलना में तो जितने जल्दी प्रेम से भी जाग जाओ, उतना
शुभ। और फिर प्रार्थना के पार परमात्मा है।
तो प्रेम की तुलना में प्रार्थना बेहतर है, लेकिन प्रार्थना में ही अटके
मत रह जाना। पूजा-पाठ और अर्चन और प्रार्थना और निवेदन-यही सब न हो जाए।
डूबना है ऐसे कि प्रार्थी और प्रार्थ्य दो न रह जाए, कि भक्त और भगवान दो न
रह जाएं।
प्रार्थना भी छूट जानी चाहिए एक दिन, क्योंकि प्रार्थना भी थोड़ा शोरगुल
है। प्रार्थना भी थोड़ी-सी विचार की छाया है। संसार गया, लेकिन उसकी कुछ
रेखाएं छूट गई हैं। यात्री तो गुजर गया, उसके पदचिह्न रह गए हैं। यात्रा का
तो अंत हो गया, लेकिन यात्रा में जमी धूल अभी भी तुम्हारे वस्त्रों पर है।
उसे भी धो डालना है।
प्रार्थना में भी कहीं न कहीं थोड़ा-सा ‘मैं’ शेष रहता है। कौन करेगा
प्रार्थना? और जहां ‘मैं’ है वहां अभी भ्राति मौजूद है। प्रेम में ‘मैं’
कटता है, काफी कटता है। प्रार्थना में और भी कट जाता है; बस छाया रह जाती
है। लेकिन छाया भी काफी है भटकाने को। छाया के पीछे भी चल पड़े अगर, तो भटक
जाओगे, बहुत दूर चले जाओगे। छाया भी जानी चाहिए।
घृणा का जगत है, जहां लोग जी रहे हैं। चूंकि लोग घृणा में जी रहे हैं,
मैं प्रेम की बात करता हूं। जो प्रेम में जीने लगेंगे, उनसे तत्क्षण मैं
प्रार्थना की बात करना शुरू कर दूंगा। जो प्रार्थना में जीने लगेंगे, उनसे
तत्क्षण मैं परमात्मा की बात करना शुरू कर दूंगा। छोड़ते चलना है, तोड़ते
चलना है। अतिक्रमण और अतिक्रमण। अंततोगत्वा वहां पहुंच जाना है जहां ‘मैं ‘
बचे ही न, ‘वही’ बचे! एक ही बचे, दो न बचे।
जहां तक दो हैं, वहां एक सपना है। प्रेम करोगे न किसी को? तो दो हैं।
मगर घृणा जहरीला नाता है और प्रेम-बड़ा मधुर, मीठा! प्रार्थना बड़ी अमृतपूर्ण
है, और फिर भी दो हैं- भक्त है और भगवान है। पराकाष्ठा तो तब है, जब दुई न
रह जाए; जब भक्त और भगवान एक हो जाएं; जब भक्त भगवान हो, जब भगवान भक्त
हो।
उस परम घड़ी की प्रतीक्षा करो। सत्य वहां है। उसके पहले तो सब असत्य की
मात्राएं हैं-कम ज्यादा। और जब तक ३अस।त्य की थोड़ी-सी भी मात्रा शेष है,
चाहे होमियोपैथिक मात्रा क्यों न हो, तो भी सजग रहना; उतनी मात्रा भी विदा
करनी है।
हंसा तो मोती चुने
ओशो
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