सारी भाषा बाहर की है। भीतर की कोई भाषा नहीं है, हो ही नहीं सकती। पूछा जा सकता है कि हजारों हजारों साल से ज्ञानी भीतर जा रहे हैं, अब तक
भीतर की भाषा विकसित क्यों नहीं हुई? कोई नई घटना तो नहीं है। उस भीतर के
देश में न मालूम कितने लोग गए हैं! न मालूम कितने लोग वहां से डूबकर और
सिक्त होकर आए हैं! न मालूम कितनों ने भीतर के उस अंतरध्यान में लीनता पाई
है! अब तक भीतर की भाषा विकसित क्यों नहीं हो सकी? कारण है। भाषा की जरूरत
होती है, जहां दो हों। भीतर तो तुम अकेले ही होते हो। अकेले में तो भाषा की
कोई जरूरत नहीं होती। भाषा की जरूरत होती है जहां दो हों, जहां द्वैत हो;
अद्वैत में तो भाषा का कोई सवाल ही नहीं उठता। जहां अकेले ही हैं, वहां
किससे बोलना है, किसको बोलना है? तो भीतर तो आदमी जाकर बिलकुल गूंगा हो
जाता है। कबीर कहते हैं, “गूंगे केरी सरकरा, खाए और मुसकाए।’ गूंगा खा लेता
है शक्कर, और मुसकाता है।
वैसे ही भीतर का अनुभव है कि वहां एक ही बचता है, और वह भी इतने अपरिसीम
आनंदउत्सव में लीन हो जाता है कि कौन खोजे भाषा और किसके लिए खोजे? जब
बाहर आता है भीतर से, तब अड़चन शुरू होती है बाहर खड़े हैं लोग, इनको बताना
मुश्किल हो जाता है। तो कबीर कहते हैं, “कहन सुनन कछु नाहिं’ न तो कुछ कहने
को है, न कुछ सुनने को है। कहना सुनना दोनों छोड़कर, मार्ग पकड़ना है “होने’
का। बहुत कहा गया, बहुत सुना गया है कुछ भी हुआ नहीं। “होने’ का एकमात्र
मार्ग है।
“नहीं कछु करन है’ करने को भी कुछ नहीं है।
इसलिए मैं कहता हूं, ये बड़े क्रांतिकारी वचन हैं। कोई करने की बात नहीं
है। क्या करोगे उसे पाने के लिए? जिसे पाया ही हुआ है, उसे पाने के लिए
क्या करोगे? जो भीतर छिपा ही है, मौजूद है, जो तुम्हारे साथ ही चला आया है,
जो तुम्हारी अंतरसंपदा है उसे पाने के लिए क्या करोगे? उसे जितना तुम
पाने की कोशिश करोगे, उतनी ही अड़चन खड़ी होगी। जैसे कोई अपनी ही खोज में
निकल जाए भटकेगा। दूसरे की खोज, समझ में आती है; अपनी ही खोज कहां खोजोगे?
हिमालय जाओगे? मक्का मदीना, काशी, गिरनार कहां जाओगे?
सुनो भई साधो
ओशो
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