तुम्हारा मन अनवरत खेलता चला जाता है। पूरी प्रक्रिया एक खाली
कमरे में चलते हुए स्वप्न जैसी है। ध्यान में अपने मन को कौतुक करते हुए
देखना होता है। बिलकुल ऐसे ही जैसे बच्चे खेलते है। और ऊर्जा के अतिरेक
से कूदते-फांदते है। इतना ही पर्याप्त है। विचार उछल रहे है। कौतुक कर रहे
है। बस एक लीला है। उसके प्रति गंभीर मत होओ। यदि कोई बुरा विचार भी आता
है तो ग्लानि से मत भरो। या कोई शुभ विचार उठता है कि तुम मानवता की सेवा
करना चाहते हो तो इसके कारण बहुत अधिक अहंकार से मत भर जाओ, ऐसा मत सोचो कि
तुम बहुत महान हो गए हो। केवल उछलता हुआ मन है। कभी नीचे जाता है, कभी ऊपर
आता है। यह तो बस ऊर्जा का बहाता हुआ अतिरेक है जो भिन्न-भिन्न रूप और
आकार ले रही है। मन तो उमड़ कर बहता हुआ एक झरना मात्र है, और कुछ भी नहीं।
खेलपूर्ण होओ। शिव कहते है: ‘हे गरिमामयी लीला करो।’
खेलपूर्ण होने का अर्थ होता है कि वह कृत्य का आनंद ले रहा है।
कृत्य ही स्वयं में पर्याप्त है। पीछे किसी लाभ की आकांक्षा नहीं है। वह
कोई हिसाब नहीं लगा रहा है। जरा एक दुकानदार की और देखो। वह जो भी कर रहा
है उसमें लाभ हानि का हिसाब लगा रहा हे। कि इससे मिलेगा क्या। एक ग्राहक
आता है। ग्राहक कोई व्यक्ति नहीं बस एक साधन है। उससे क्या कमाया जा
सकता है। कैसे उसका शोषण किया जा सकता है। गहरे में वह हिसाब लगा रहा कि
क्या करना है। क्या नहीं करना है। बस शोषण के लिए वह हर चीज का हिसाब लगा
रहा है। उसे इस आदमी से कुछ लेना-देना नहीं है। बस सौदे से मतलब है। किसी
और चीज से नहीं। उसे बस भविष्य से, लाभ से मतलब है।
पूर्व में देखो: गांवों में अभी भी दुकानदार बस लाभ ही नहीं कमाते
और ग्राहक बस खरीदने ही नहीं आते। वे सौदे का आनंद लेते है। मुझे अपने
दादा की याद है। वह कपड़ों के दुकानदार थे। और मैं तथा मेरे परिवार के लोग
हैरान थे। क्योंकि इसमें उन्हें बहुत मजा आता था। घंटो-घंटो ग्राहकों के
साथ वह खेल चलता था। यदि कोई चीज दस रूपये की होती तो वह उसे पचास रूपए
मांगते। और वह जानते थे कि यह झूठ है। और उनके ग्राहक भी जानते थे कि वह
चीज दस रूपये के आस-पास होनी चाहिए। और वे दो रूपये से शुरू करते। फिर घंटो
तक लम्बी बहस होती। मेरे पिता और चाचा गुस्सा होते कि ये क्या हो रहा
है। आप सीधे-सीधे कीमत क्यों नहीं बता देते। लेकिन उनके की अपने ग्राहक
थे। जब वे लोग आते तो पूछते की दादा कहां है। क्योंकि उनके साथ तो खेल हो
जाता था। चाहे हमे एक दो रूपये कम ज्यादा देना पड़े,इसमे कोई अंतर नहीं
पड़ता।
उन्हें इसमे आनंद आता, वह कृत्य ही अपने आप में आनंद था। दो लोग
बात कर रहे है, दोनों खेल रहे है। और दोनों जानते है कि यह एक खेल है।
क्योंकि स्वभावत: एक निश्चित मूल्य ही संभव था।
पश्चिम में अब मूल्यों को निश्चित कर लिया गया है। क्योंकि
लोग अधिक हिसाबी और लाभ उन्मुक्त हो गए है। समय क्यों व्यर्थ करना। जब
बात को मिनटों में निपटाया जा सकता है। तो कोई जरूरत नहीं है। तुम
सीधे-सीधे निश्चित मूल्य लिख सकते हो। घंटों तक क्यों जद्दोजहद करना?
लेकिन तब सारा खेल खो जाता है। और एक दिनचर्या रह जाती है। इसे तो मशीनें
भी कर सकती है। दुकानदार की जरूरत ही नहीं है। न ग्राहक की जरूरत है।
मैने एक मनोविश्लेषक के संबंध में सुना है कि वह इतना व्यस्त
था और उसके पास इतने मरीज आते थे कि हर किसी से व्यक्तिगत संपर्क रख पाना
कठिन था। तो वह अपने टेप रिकार्डर से मरीजों के लिए सब संदेश भर देता था
जो स्वयं उनसे कहना चाहता था।
एक बार ऐसा हुआ कि एक बहुत अमीर मरीज का सलाह के लिए मिलने का समय
था। मनोविश्लेषक एक होटल में भीतर जा रहा था। अचानक उसने उस मरीज को वहां
बैठे देखा। तो उसने पूछा, तुम यहां क्या कर रहे हो। इस समय तो तुम्हें
मेरे पास आना था। मरीज ने कहा कि: ‘मैं भी इतना व्यस्त हूं कि मैंने अपनी
बातें टेप रिकार्डर में भर दी है। दोनों टेप रिकार्डर आपस में बातें कर
रहे है। जो आपको मुझसे कहना है वह मेरे टेप रिकार्डर में भर गया है। और जो
मुझे आपको कहना है वह मेरे टेप रिकार्डर से आपके टेप रिकार्डर में रिकार्ड
हो गया है। इससे समय भी बच गया और हम दोनों खाली है।’
यदि तुम हिसाबी हो जाओ तो व्यक्ति समाप्त हो जाता है। और मशीन
बन जाता है। भारत के गांवों में अभी भी मोल-भाव होता है। यह एक खेल है। और
रस लेने जैसा है। तुम खेल रहा हो। दो प्रतिभाओं के बीच एक खेल चलता है। और
दोनों व्यक्ति गहरे संपर्क में आते है। लेकिन फिर समय नहीं बचता। खेलने
से तो कभी भी समय की बचत नहीं हो सकती। और खेल में तुम समय की चिंता भी
नहीं करते। तुम चिंता मुक्त होते हो। और जो भी होता है उसी समय तुम उसका
रस लेते हो। खेलपूर्ण होना ध्यान प्रक्रियाओं के गहनत्म आधारों में से एक
है। लेकिन हमारा मन दुकानदार है। हम उसके लिए प्रशिक्षित किया गया है। तो
जब हम ध्यान भी करते है तो परिणाम उन्मुख होते है। और चाहे जो भी हो तुम
असंतुष्ट ही होते हो।
मेरे पास लोग आते है और कहते है, ‘हां ध्यान तो गहरा हो रहा है।
मैं अधिक आनंदित हो रहा हूं, अधिक मौन और शांत अनुभव कर रहा हूं। लेकिन और
कुछ भी नहीं हो रहो।’
और क्या नहीं हो रहा? मैं जानता हूं ऐसे लोग एक दिन आएँगे और
पूछेंगे, ‘हां मुझे निर्वाण का अनुभव तो हाँ रहा है, पर और कुछ नहीं हो रहा
है। वैसे तो मैं आनंदित हूं, पर और कुछ नहीं हो रहा है।’ और क्या चाहिए।
वह कोई लाभ ढूंढ रहा है। और जब तक कोई ठोस लाभ उसके हाथों में नहीं आ जाता।
जिसे वह बैंक में जमा कर सके। वह संतुष्ट नहीं हो सकता। मौन और आनंद इतने
अदृष्य है। कि तुम उन पर मालकियत नहीं कर सकते हो। तुम उन्हें किसी को
दिखा भी नहीं सकते हो।
रोज मेरे पास लोग आते है और कहते है कि वह उदास है। वे कसी ऐसी
चीज की आशा कर रहे है जिसकी आशा दुकानदारी में भी नहीं होनी चाहिए। और
ध्यान में वे उसकी आशा कर रहे है। दुकानदार, हिसाबी-किताबी मन ध्यान के
भी बीच में आ जाता है इससे क्या लाभ हो सकता है।
दुकानदार खेलपूर्ण नहीं होता। और यदि तुम खेलपूर्ण नहीं हो तो तुम
ध्यान में नहीं उतर सकते। अधिक से अधिक खेलपूर्ण हो जाओ। खेल में समय
व्यतीत करो। बच्चों के साथ खेलना ठीक रहेगा। यदि कोई और न भी हो तो तुम
कमरे में अकेले उछल-कूद कर सकते हो। नाच सकते हो। और खेल सकते हो, आनंद ले
सकते हो।
विज्ञान भैरव तंत्र
ओशो
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