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Monday, December 28, 2015

तुम जो हो, उसे ही तुम फैलाकर बाहर देखते हो!

संसार जीवन को देखने का तुम्हारा ढंग है। ज्ञानी यहीं पत्थरों में छिपे परमात्मा को देख लेता है; तुम चारों तरफ मौजूद परमात्मा में केवल पत्थर को देख पाते हो। देखने की बात है। दृष्टि की ही सारी बात है। तुम वही देखते हो, जो तुम्हारे मन की धारणाएं हैं। तुम वही नहीं देखते, जो है।

पूर्णिमा की रात हो और तुम उदास हो, तो नाचता गाता चांद भी उदास मालूम पड़ता है। अमावस की रात हो, आकाश में बादल घिरे हों, सब उदास और खिन्न मालूम पड़ता हो; लेकिन तुम प्रसन्न हो, तुम आनंदमग्न हो, तो अमावस भी पूर्णिमा मालूम पड़ती है, अंधेरा भी ज्योतिर्मय हो जाता है; आकाश में बादलों की गड़गड़ाहट सुमधुर नाद मालूम होती है।


धन में कुछ भी नहीं है; तुम्हारे मन में ही सब छिपा है। तुम्हारा मन जो लोभ से भरा हो, तो संसार में सब जगह तुम्हें धन ही धन दिखाई पड़ता है ऐसे ही जैसे उपवास किया हो तुमने किसी दिन और तुम बाजार गए, तो कपड़े की दुकानें, जूते की दुकानें उस दिन दिखाई नहीं पड़तीं; उस दिन सिर्फ मिठाई मिष्ठान्न के भंडार दिखाई पड़ते हैं; सब तरफ से भोजन की ही गंध मालूम पड़ती है; सब ओर भोजन का ही निमंत्रण दिखाई पड़ता है। तुम भरे पेट हो, तब यही बाजार बदल जाता है।

तुम जैसे हो वैसा ही तुम अपने चारों तरफ एक संसार निर्मित करते हो। इसलिए संसार एक नहीं है; संसार उतने ही हैं, जितने मन हैं। हर व्यक्ति का अपना संसार है, जो अपने चारों तरफ लपेटे हुए घूमता है। और जब तक तुम यह न समझोगे, तब तक तुम कभी भी संन्यासी न हो सकोगे। क्योंकि तुम उस संसार को छोड़ोगे, जो बाहर है; और तुम उस संसार को पकड़े ही रहोगे, जो भीतर है। और बाहर संसार है ही नहीं, बस भीतर है। तो तुम संन्यासी का संसार बना लोगे, कोई भेद न पड़ेगा। 

हिमालय की गुफा में भी बैठ जाओगे, तो तुम तुम ही रहोगे। और तुम अगर तुम ही हो, तो गुफा क्या करेगी, पहाड़ पर्वत क्या करेंगे? तुम वहां भी धीरे धीरे अपनी दुनिया फिर से सजा लोगे। तुम्हारे भीतर ब्लूप्रिंट है, नक्शा छिपा है कि कैसे संसार बनाना है। उस संसार को बनाने के लिए अगर कोई भी सामग्री न हो, तो भी तुम बना लोगे।

मनसविद कहते हैं कि अगर एक व्यक्ति को सारी संसारी की दौड़धूप से अलग कर लिया जाए, और एक ऐसी कालकोठरी में रख दिया जाए, जहां सब तरह की सुविधाएं हैं, कोई असुविधा नहीं है; भोजन करने के जिए भी उसे कुछ न करना पड़े, नलियां जुड़ी हुई हैं, जिनसे उसके रक्त में सीधा भोजन पहुंच जाएगा इस तरह के प्रयोग किए गए हैं और जितनी सुविधापूर्ण हो सके, उतनी सुविधापूर्ण शय्या पर वह विश्राम करता रहे, तो वे कहते हैं कि तीन दिन के बाद वह अपना संसार बचाना शुरू कर देता है। अब कल्पना में बनाता है, क्योंकि बाहर तो कुछ भी नहीं है, सिर्फ अंधकार से भरी हुई कोठरी है।

 धीरे धीरे उसके ओंठ चलने लगते हैं। वह बात करने लगता है उससे, जो मौजूद नहीं है। सुंदर स्त्रियां उसे घेर लेती हैं। धन के आंकड़े वह खड़े करने लगता है। तीन सप्ताह में वह आदमी पागल हो जाता है। 

पागल का कुल इतना ही मतलब है कि जिसने अपने संसार को बनाने के लिए अब किसी भी पदार्थ की जरूरत नहीं समझी; अब बिना किसी कारण के भी वह संसार खड़ा कर लेता है। स्त्री बाहर हो तो ठीक, न हो तो ठीक अब पर्दे की कोई जरूरत ही नहीं है; बिना पर्दे के वह स्त्री का बना लेता है। पागल का इतना ही मतलब है कि वह तुमसे भी ज्यादा कुशल हो गया है। तुम्हें स्त्री में रस लेने के लिए कम से कम कुछ सहारा चाहिए, बाहर कोई स्त्री चाहिए; वह बिलकुल सहारे से मुक्त है; उसे कोई स्त्री बाहर नहीं चाहिए। वह अपने भीतर के मन से प्रगाढ़ प्रतिमाएं खड़ी कर लेता है।

तुमने ऋषि मुनियों की कहानियां पढ़ी हैं कि इंद्र अप्सराओं को भेजता है उन्हें डिगाने को। तुम इस भ्रांति में मत पड़ना। न तो कहीं कोई इंद्र है, और न कहीं कोई परमात्मा ने ऋषि मुनियों को डिगाने का इंतजाम कर रखा है। क्यों करेगा परमात्मा किसी को डिगाने का इंतजाम? परमात्मा तो चाहता है कि तुम थिर हो जाओ। तो कोई भी डिपार्टमेंट नहीं है, जहां ऋषि मुनियों को हिलाने की कोशिश की जा रही है। ऋषि मुनि खुद ही हिल रहे हैं। ऋषि मुनि उसी अवस्था में हैं, जिसकी मनोवैज्ञानिक चर्चा कर रहे हैं। उन्होंने खुद ही अपने चारों तरफ सब संसार बाहर का छोड़ दिया है, अपनी गुफा में बैठ गए हैं, अब धीरे धीरे मन खेल पैदा कर रहा है। अब कोई जरूरत ही नहीं है। अब बाहर की स्त्री नहीं चाहिए, जिस पर तुम प्रक्षेपण करो; अब शून्य आकाश में भी तुम्हारा प्रक्षेपण होने लगा। अब तुम अप्सराओं को देख रहे हो! धन के अंबार लगे हैं! तुम सोचते हो, कोई प्रलोभन दे रहा है; तुम्हारा मन ही…। कोई और तुम्हें डिगाने को नहीं है।


सुनो भाई साधो 

ओशो 

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