कथा है कि जनक के घर एक संन्यासी मेहमान हुआ और संन्यासी ने सब वैभव
देखा, विस्तार देखा, उसने कहा कि मैंने तो सुना था कि आप परम ज्ञानी हैं;
यह वैभवविस्तार, यह कनक कामिनी यह कैसा ज्ञान?
जनक ने कहा, “समय पर कहूंगा। थोड़ी प्रतीक्षा रखो, जल्दी न करो।’
दूसरे दिन ही सुबह समय आ गया। आ नहीं गया, जनक ले आए, स्थिति निर्मित कर
दी। लेकिन संन्यासी को गए, महल के पीछे ही नदी थी, स्नान करने को। और जब
दोनों स्नान कर रहे थे नदी में, तब अचानक महल में आग लग गई; लगवा दी गई थी,
लग नहीं गई थी। क्योंकि संन्यासी का कोई भरोसा नहीं था; वह इतनी जल्दबाजी
में था और वह इतना बेचैन था महल से भागने को, भयभीत था कि कहीं महल में फंस
न जाए। कनक और कामिनी सब वहां मौजूद तो जल्दी करनी जरूरी थी। जनक ने आज्ञा
से महल में आग लगवा दी। दोनों स्नान कर रहे हैं। संन्यासी चिल्लाया कि
“देखो, तुम्हारे महल में आग लग गई!’
जनक ने कहा, “क्या अपना है, क्या किसका है! आए थे कुछ लेकर नहीं, जाएंगे
बिना कुछ लिए! खाली हाथ आना, खाली हाथ जाना! किसका महल है! लगने दो, चिंता
न करो। स्नान पूरा करो।’
लेकिन यह सुनने को वह संन्यासी वहां मौजूद न था; वह लंगोटी छोड़ आया था
किनारे पर, वह महल के पास ही थी। वह भागा। उसने कहा कि महल तो ठीक, मेरी
लंगोटी भी महल के पास रखी है, दीवाल के बिलकुल पास।
महल और लंगोटी में कोई फर्क नहीं है तुम्हारे लोभ के लिए कोई भी खूंटी
बन सकता है। तुम बड़ी छोटी खूंटी पर, बड़े विराट लोभ को लटका सकते हो।
क्योंकि लोभ का कोई वजन थोड़े ही है; विस्तार है, और सपने का है, खाली हवा
है। तो खूंटी कोई बहुत बड़ी चाहिए, ऐसा नहीं है; खीली भी, तीली भी काम दे
जाएगी। लोभ में कोई वजन नहीं है, बिना खूंटी के लटक जाएगा।
सुनो भई साधो
ओशो
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