एक तो ऐसी वस्तुएं हैं, जिन्हें हमने जान लिया उन्हें हम ‘ज्ञात’ कहें;
कुछ ऐसी वस्तुएं हैं, जिन्हें हमने जाना नहीं लेकिन हम जान लेंगे उन्हें हम
‘अज्ञय’ कहें; और कुछ ऐसा भी है इस जगत में, जिसे हमने जाना भी नहीं है और
हम जान भी न पायेंगे उसे हम ‘ अज्ञेय ‘ कहें। परमात्मा अज्ञेय है। वह
तीसरा तत्व है। विज्ञान इसलिए परमात्मा को स्वीकार नहीं करता; क्योंकि
विज्ञान कहता है कि ऐसा कुछ भी नहीं है, जो न जाना जा सके। नहीं जाना होगा
हमने अभी तक, हमारे प्रयास कमजोर हैं; लेकिन आज नहीं कल, केवल समय की बात
है, हम जान लेंगे। एक दिन जगत पूरा का पूरा जान लिया जायेगा; इसमें अनजाना
कुछ भी न बचेगा।
विज्ञान आश्चर्य से पैदा होता है और फिर आश्चर्य की हत्या में लग जाता
है। इसलिए, विज्ञान को मैं ‘पितृघाती’ कहता हूं जिससे पैदा होता है, उसे
मिटाने में लग जाता है। धर्म बिलकुल विपरीत है। धर्म भी एक आश्चर्य— भाव
से पैदा होता है; इस आश्चर्य—भाव को शिवसूत्र में विस्मय कहा है। फर्क
इतना ही है कि जब किसी स्थिति में आश्चर्य से भर जाता है धार्मिक खोजी, तो
वह बाहर की यात्रा पर नहीं जाता, वह भीतर की यात्रा पर जाता है। जब भी कोई
रहस्य उसे घेर लेता है तो वह सोचता है कि मैं जानूं कि मैं कौन हूं। रहस्य
अंतर्मुखी बन जाये; यात्रा, खोज भीतर चलने लगे, पदार्थ की तरफ नहीं, स्व
की तरफ मेरी खोज उसुख हो जायें; मेरा संधान पहले उसे जानने में लग जाये कि
मैं कौन हूं : तो विस्मय।
और, दूसरी बात समझ लेनी जरूरी है कि विस्मय कभी चुकता नही; जितना ही हम
जानते हैं, उतना ही बढ़ता है। इसलिए विस्मय एक विरोधाभास है; क्योंकि जानने
से विस्मय नष्ट होना चाहिए। लेकिन, बुद्ध या कृष्ण या शिव या जीसस उनका
विस्मय नष्ट नहीं होता। जिस दिन वे परम ज्ञान को उपलब्ध होते हैं, उस दिन
उनका विस्मय भी परम होता है। उस दिन वे ऐसा नहीं कहते कि हमने सब जान लिया;
उस दिन वे ऐसा कहते हैं कि सब जानकर भी, सब जानने को शेष रह गया।
उपनिषदों ने कहा है कि पूर्ण से पूर्ण निकाल लिया जाये, तो भी पीछे
पूर्ण शेष रह जाता है। सब जान लिया जाए, तो भी सब जानने को शेष रह जाता है।
इसलिए, धार्मिक ज्ञान अहंकार का जन्म नहीं बनता; वैज्ञानिक ज्ञान अहंकार
का जन्म बनेगा। धार्मिक ज्ञान में तुम जाननेवाले कभी भी न बनोगे; तुम सदा
विनम्र रहोगे। और, जितना तुम जानते जाओगे, उतनी ही तुम्हें प्रतीति होगी कि
मैं कुछ भी नहीं जानता हूं। परम ज्ञान के क्षण में तुम कह सकोगे कि मेरा
कोई भी ज्ञान नहीं। परम ज्ञान के क्षण में यह पूरा अस्तित्व विस्मय हो
जायेगा।
विज्ञान अगर सफल हो तो सारा जगत ज्ञात हो जायेगा; धर्म अगर सफल हो तो सारा
जगत अज्ञात हो जायेगा। विज्ञान अगर सफल हो तो तुम, जाननेवाले, अस्मिता से भर
जाओगे और सारा जगत साधारण हो जायेगा; क्योंकि जहां विस्मय नहीं है, वहां
सब साधारण हो जाता है; जहां रहस्य नहीं है, वहां सारी आत्मा खो जाती है;
जहां रहस्य का और उपाय नहीं है, वहां आगे की यात्रा बंद हो जाती है; जहां
जिज्ञासा पूरी हो गयी, कुतूहल समाप्त हो गया। अगर विज्ञान जीता तो जगत में
ऐसी ऊब पैदा होगी, जैसी ऊब कभी भी पैदा नहीं हुई थी। इसलिए, अगर पश्चिम
में लोग ज्यादा ऊब से भरे हैं, बोरडम से भरे हैं, तो उसका मौलिक कारण
विज्ञान है; क्योंकि लोगों की विस्मय क्षमता घटती जा रही है। लोग किसी भी
चीज से चकित नहीं होते; चकित होना ही भूल गये हैं। अगर तुम उनके सामने कुछ
ऐसा सवाल भी रखो, जो उलझानेवाला है, तो भी वे कहेंगे कि सुलझ जायेगा।
क्योंकि लोगों की विस्मय क्षमता घटती जा रही है।
लोग किसी भी चीज से चकित
नहीं होते; चकित होना ही भूल गये हैं। अगर तुम उनके सामने कुछ ऐसा सवाल भी
रखो, जो उलझानेवाला है, तो भी वे कहेंगे कि सुलझ जायेगा। क्योंकि, मौलिक
रूप से ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है, विज्ञान की दृष्टि में, जो अज्ञात सदा के
लिए रह जाए हम पर्दे उघाड़ ही लेंगे।
लेकिन, धर्म की यात्रा बड़ी उलटी है। जितने हम पर्दे उघाडते है, पाते हैं
कि रहस्य उतना सघन होता जाता है; जितने हम करीब आते हैं, उतना ही पता
चलता है कि जानना बहुत मुश्किल है। और, जिस दिन हम परमात्मा के ठीक केंद्र
में प्रवेश कर जाते हैं; उस दिन सभी कुछ रहस्यपूर्ण हो जाता है। बुद्ध के
लिए आकाश के तारे ही रहस्यपूर्ण नहीं है, जमीन पर पड़े कंकड पत्थर भी
आश्चर्यपूर्ण हो गये हैं; बुद्ध के लिए यह विराट ही रहस्यमय नहीं है,
क्षुद्र से क्षुद्र घटना भी रहस्यपूर्ण हो गयी है। एक बीज का जमीन से
अंकुरित होना भी उतना ही रहस्यपूर्ण है, जितना इस पूरी सृष्टि का जन्म।
तो, जैसे जैसे विस्मय घना होगा, वैसे वैसे तुम्हारी आंखें छोटे बच्चे की
तरह होती जायेंगी; क्योंकि छोटे बच्चे के लिए सभी कुछ विस्मय होता है।
छोटे बच्चे को चलते देखो। वह रास्ते से जा रहा है, हर चीज उसे चौंकाती है।
एक रंगीन पत्थर उसे कोहिनूर मालूम होता है। तुम हंसते हो, क्योंकि तुम
ज्ञाता हो; तुम जानते हो कि यह रंगीन पत्थर है। तुम कहते हो—पागल मत हो, यह
कोहिनूर नहीं है। लेकिन छोटा बच्चा उस पत्थर को खीसे में रखना चाहता है।
तुम कहोगे: ‘वजन मत ढोओ। और, गंदा पत्थर है, कीचड़ में पड़ा है; फेंक इसे।’
लेकिन बच्चा इसे पकड़ता है। क्योंकि, तुम बच्चे को नहीं समझ पा रहे हो, यह
बच्चे के लिए विस्मय है; यह रंगीन पत्थर किसी कोहिनूर से कम कीमती ‘नहीं
है। कीमत विस्मय की है, पत्थरों की थोड़ी ही कोई कीमत होती है। एक तितली भी
उसे इतना सम्मोहित कर लेती है, जितना परमात्मा भी तुम्हें मिल जाए तो इतना
सम्मोहित नहीं करेगा। वह तितली के पीछे दौड़ना शुरू कर देता है।
एक छोटे बच्चे की जैसी निर्मल दशा है, ऐसे विस्मय की परम स्थिति
में बुद्धत्व की स्थिति में किसी भी व्यक्ति की हो जाती है। इसलिए, जीसस ने
कहा है कि जो छोटे बच्चों की तरह सरल होंगे, वे ही केवल मेरे प्रभु के
राज्य में प्रवेश कर सकेंगे। जीसस ने वही कहा है, जो शिव सूत्र में कह रहे
हैं. विस्मय योग भूमिका:। विस्मय योग का प्रथम चरण है। तब तो बहुत बातें
खयाल में लेनी जरूरी हैं।
तुम्हारे पास जितना ज्ञान होगा, उतनी ही योग की भूमिका मुश्किल हो
जायेगी। तुम्हें जितना दंभ होगा कि मैं जानता हूं उतना ही तुम योगी न हो
पाओगे। जितने शास्त्र तुम्हारे चित्त पर भारी होंगे, उतना ही तुम्हारा
विस्मय नष्ट हो गया। एक पंडित को पूछो, परमात्मा के संबंध में, तो वह ऐसे
उत्तर देता है, जैसे परमात्मा कोई उत्तर देने की बात हो; जैसे कि कोई उत्तर
दिया जा सकता हो। पंडित को पूछो, उसके पास उत्तर रेडीमेड हैं। तुमने पूछा
भी नहीं था, उसके पास उत्तर तैयार था। परमात्मा भी उसे अवाक नहीं करता।
उसके पास सूत्र सब निश्चित हैं, वह तो तत्क्षण समझा देता है।
शिव सूत्र
ओशो
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