श्रद्धा का अर्थ है: जिसे मानने के लिए तर्क के पास कोई कारण न हो; जिसे
मानना बिलकुल असंभव मालूम पड़े, जिसे मानना बिलकुल ही अतक्र्य हो उसे मान
लेना। जो दिखाई न पड़ता हो, जिसका स्पर्श न होता हो, जिसकी गंध न आती हो, और
जिसको मानने के लिए कोई भी आधार न हो उसे मान लेने का नाम है श्रद्धा।
लेकिन श्रद्धा बहुमूल्य सूत्र है। वह अंत नहीं है, शुरूआत है। जिसे तुम
मान लेते हो, उसकी खोज की संभावना शुरू हो जाती है। वैज्ञानिक हायपोथिसिस
निर्मित करते हैं। श्रद्धा हायपोथिसिस है। हायपोथिसिस का मतलब होता है कि
पहले वैज्ञानिक एक सिद्धांत तय करता है, क्योंकि बिना सिद्धांत तय किए तुम
जाओगे कहां, खोजोगे कैसे क्या खोजोगे? खोज की शुरूआत ही न हो सकेगी। वह
सिद्धांत सिर्फ प्रारंभ है, वह कोई अंत नहीं है। लेकिन उससे द्वार खुलता
है, उससे संभावना निर्मित होती है फिर आदमी खोज में निकलता है। हो सकता है
वह मिले, हो सकता है न मिले। क्योंकि अंधेरे में तुमने जो तय किया था, उसके
मिलने की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन एक बात पक्की है: हो सकता है, तुमने जो
तय किया था वह न मिले; लेकिन कुछ मिलेगा।
परमात्मा को तुम अभी जानते नहीं, कोई पहचान नहीं, कभी देखा नहीं, कभी
मिलन नहीं हुआ। श्रद्धा का अभी तो इतना ही अर्थ हो सकता है कि हम एक
परिकल्पना स्वीकार करते हैं, और हम खोज में लगते हैं शायद जो परिकल्पना है
वैसा सिद्ध हो, न हो। लेकिन एक बात पक्की है कि खोज शुरू हो जाएगी। आर
जिसकी खोज शुरू हो गई, अंत ज्यादा दूर नहीं है। और एक बात यह भी पक्की है
कि अज्ञानियों ने जितने ढंग से परमात्मा को माना है, अंतिम अर्थ में वे कोई
भी सही सिद्ध नहीं होती; वे सभी परिकल्पनाएं असिद्ध होती हैं। जो प्रगट
होता है, वह सभी परिकल्पनाओं से ज्यादा अनूठा है। जो प्रकट होता है वह
तुम्हारी सभी मान्यताओं से बहुत ऊपर है। जो प्रगट होता है, तुमने उसे सोचा
था दीया; लेकिन जो प्रगट होता है वह महासूर्य है। किसी की परिकल्पना
परमात्मा के संबंध में कभी सही सिद्ध नहीं होती, हो भी नहीं सकती।
छोटा सा मन है, छोटा सा उसका आंगन है कितना बड़ा आकाश उस आंगन में
समाएगा? छोटे छोटे हाथ हैं। इन छोटे छोटे हाथों से उस विराट को छूने की
कोशिश कितना विराट तुम छू पाओगे? बूंद जैसी क्षमता है, सागर को खोजने निकले
हो कितना सागर तुम अपने में ले पाओगे?
लेकिन श्रद्धा के बिना यात्रा शुरू नहीं होती। श्रद्धा का कुल इतना ही
अर्थ है कि साहस की हम तैयारी करते हैं, हम ज्ञात से न बंधे रहेंगे, अज्ञात
में, उतरने के लिए हमारी हिम्मत है; हम डरे डरे अपने घर में कैद न रहेंगे,
हम खुले आकाश के महाअभियान पर निकलते हैं।
एक बात पक्की है कि तुम जो भी मानकर निकलोगे, वह तुम कभी न पाओगे; क्योंकि तुम अभी जानते नहीं तो तुम ठीक मान कैसे सकोगे?
सम्यक श्रद्धा तो ज्ञान से घटित होगी। लेकिन सम्यक श्रद्धा के पहले एक
परिकल्पित श्रद्धा है, हायपोथेटिकल है। वैज्ञानिक भी उसके बिना काम नहीं कर
सकता, तो धार्मिक तो कैसे कर सकेगा?
तो, श्रद्धाएं दो प्रकार की हैं। एक श्रद्धा है साहस का नाम, जो अज्ञान
से बाहर लाती है, द्वार के बाद हृदय में आरोपित होती है। उस दूसरी श्रद्धा
को फिर डिगाने का कोई उपाय नहीं है। पहली भी उखाड़ ले सकता है। नए रोपे की
बड़ी सुरक्षा करनी पड़ती है, चारों तरफ बागुड़ लगानी पड़ती है, देखभाल रखनी
पड़ती है। एक बार वृक्ष की अपनी जड़ें जमीन को पकड़ लेती हैं, एक बार वृक्ष
जमीन के साथ एक हो जाता है, फिर बागुड़ की कोई जरूरत नहीं। फिर बच्चे उसे न
उखाड़ पाएंगे। फिर कोई उसे नुकसान न पहुंचा पाएगा। फिर तो वृक्ष बड़ा हो
जाएगा। फिर तो सैकड़ों लोग उसके नीचे बैठकर छाया पा सकेंगे।
इसलिए प्राथमिक रूप से जब श्रद्धा में कोई उतरता है तो बड़ी सावधानी की
जरूरत है, क्योंकि चारों तरफ अंधों की भीड़ है। वह तुमसे कहेगी, “क्या मान
रहे हो? क्या कर रहे हो? पागल हो गए? दिमाग तो ठीक है?’ वह अंधों की भीड़
बच्चों की तरह है; वह तुम्हारे पौधे को उखाड़ दे सकती है।
सुनो भई साधो
ओशो
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