मैं एक गांव में गया। लोगों ने कहा : गांव में एक महात्मा हैं। वे दस
साल से खड़े हुए हैं, बैठते ही नहीं। मैंने कहा : तुम बैठने नहीं देते
होओगे। उन्होंने कहा : नहीं, हम तो कुछ नहीं करते। मैंने कहा : तुम्हें पता
नहीं है, लेकिन तुम बैठने नहीं देते होओगे। चलो मैं जरा देखूं।
महात्मा की हालत बड़ी बुरी हो गई। उनका नाम ही खड़े श्री बाबा हो गया। वे
खड़े ही हैं। अब खड़ा होना दस साल कोई आसान मामला नहीं है। तो दोनों हाथों
में बैसाखिया लगा दी गई हैं। ऊपर हाथ जंजीर से बांध दिए गए हैं, क्योंकि
कहीं भूल-चूक से बैठ न जाएं।
मैंने कहा : यह जंजीर किसने बाधी है? वे बैसाखिया किसने लगाई हैं?
और उनके पैर हाथी-पांव हो गए हैं क्योंकि सारा खून शरीर का उतर कर पैरों
में चला गया है। वह आदमी बड़े कष्ट में है। अब तो वह बैठना भी चाहे तो नहीं
बैठ सकता। उसके पैर न बैठने देंगे। अब पैर मुड़ेंगे भी नहीं, दस साल हो गए।
और इस खड़े होने में ही तो सारी उसकी प्रतिष्ठा है। लोग आते रहते हैं, दिन रात मजमा लगा रहता है। पैसे चढ़ रहे हैं, सिर झुकाएं जा रहे हैं, मनौतिया
मनाई जा रही हैं, बैड -बाजे बजाए जा रह हैं। और वह आदमी बिलकुल मुर्दे की
तरह खड़ा है। न उसकी आखों में कोई ज्योति है न चेहरे पर कोई भाव है।
इस आदमी को क्या हुआ? यह आदमी भीड़ का शिकार है, जैसे और सारे लोग भीड़ के
शिकार हैं। कोई प्रधान मंत्री होकर शिकार है; यह आदमी खड़े होकर महात्मा हो
गया है, अब यह चक्कर में पड़ गया है। अब बैठ नहीं सकता। अब बैठे तो सब
प्रतिष्ठा गई। अगर खड़े श्री महाराज बैठ जाएं तो कौन जाएगा फिर, फिर कौन
पूजा करेगा!
मेरे पास जैन मुनि कभी- कभी आ जाते थे। दो जैन मुनि आए- आचार्य तुलसी के
शिष्य। उन्होंने कहा कि हमने आशा तो ले ली है, तुलसी जी से, मगर उन्होंने
कहा : किसी को पता न चले! क्योंकि यहां तो मेरे पास आना ही खतरनाक है, अगर
किसी को पता चल जाए…! तो चुपचाप जाना, छिपकर जाना। दोनों ध्यान करने आए थे।
मैंने कहा : करो ध्यान। मगर ध्यान ऐसा है कि छिप कर हो न सकेगा। इसमें उछलना पड़े, कूदना पड़े।
उन्होंने कहा : हम मुनि हैं, हम बहुत दिन से उछले -कूदे भी नहीं। बचपन के बाद उछले -कूदे नहीं।
मैंने कहा : वह तुम सोच लो। इसमें शोरगुल भी मचाना पड़ेगा।
उन्होंने कहा : तो कमरा बंद करके अगर करें? मैंने कहा : कमरा बंद करके करना हो तो कमरा बंद करके करो। जैसी तुम्हारी मर्जी।
‘किसी को पता तो न चलेगा?’
मैंने कहा : ध्यान का अगर पता भी चल जाए तो हर्ज क्या? कुछ बुराई है?
उन्होंने कहा। बुराई यह है कि हमारे श्रावक क्या सोचेंगे? वे तो सोचते
हैं कि हम आत्मज्ञान को उपलब्ध हो गए हैं। और हम उछल-कूद रहे हैं!
मैंने कहा : वैसे तुम्हारी मर्जी है। अगर आत्मज्ञान को उपलब्ध हो गए हो
तो फिर कोई हर्जा नहीं, फिर तो उछलों -कूदो! अब तुम से कोई क्या चीज छीन
लेगा?
कहा कि नहीं, अभी उपलब्ध तो नहीं हुए। तो मैंने कहा : फिर तो उछलना-कूदना ही पड़ेगा। नहीं तो उपलब्ध न हो सकोगे।
दोनों उछले -कूदे। चैतन्य भारती से मैंने कहा कि दोनों की तस्वीरें ले
लेना। तस्वीरे हैं! बाद में उनको पता चला। मागने आए कि तस्वीरें हमारी दे
दें।
मैंने कहा : तस्वीरें तो रहने दो। एक प्रमाण रहेगा कि महात्मा भी उछले
-कूदे। बड़े उदास थे कि यह ठीक नहीं हुआ कि किसी न तस्वीरें ले लीं। हमको
पता ही न चला। हमारी तो आंख पर पट्टी बंधवा दी थी आपने।
आंख पर पट्टी इसलिए बंधवाई जाती है कि जिसमें तस्वीर लेने वालों को कोई
अड़चन न हो। वे तो चले गए, लेकिन उनके शिष्य कई बार आ चुके हैं कि वे
तस्वीरे दे दें।
तस्वीरों से तुम्हें क्या फिक्र है?
उनको डर लगा है कि किसी दिन वे तस्वीरें प्रगट न हो जाए, नहीं तो
प्रतिष्ठा का क्या होगा? तेरापंथी मुनि और आंख में पट्टी बौध कर और नाच रहे
हैं, हूं -हूं कर रहे हैं! और बड़े ज्ञानी-मुनि! एक की उस कोई होगी
साठ-सत्तर साल, दूसरे की होगी कोई पैंतीस -चालीस साल। और उनकी बड़ी ख्याति
है। नाम उनका न बताऊंगा क्योंकि नाहक क्यों उनको कष्ट देना! उनकी बड़ी
ख्याति है। सैकड़ों लोग उन्हें मानते हैं। उनको डर है बहुत, कि कहीं पता न
चल जाए! किसी को अगर जरा पता चल गया तो प्रतिष्ठा गिर जाएगी।
यह तो वही अहंकार का खेल चल रहा है! भेद कहां है? कोई कुर्सी पकड़े है, कोई अपना यश पकड़े हैं। कोई धन पकड़े है, कोई ज्ञान पकड़े है।
ये निमित्त हैं, मुकेश! अहंकार का कोई कारण नहीं है। लेकिन निमित्त बहुत
हैं। और निमित्त तुम्हारे निर्मित हैं। इसलिए एक सुसमाचार : चूंकि
तुम्हारे ही हाथ से बनाए हुए निमित्त हैं, तुम जिस दिन चाहो, जिस क्षण चाहो
उस क्षण अहंकार से मुक्त हो सकते हो। यह सुसमाचार। तुम मालिक हो! यह
तुम्हारी बनावट है। यह तुम्हारा नाटक है। यह तुम्हारे प्रपंच है। इसमें
परमात्मा का कोई हाथ नहीं है। इसे तुम अभी गिरा सकते हो। यह रेत का घर
तुमने बनाया, अभी उछल-कूद कर उसको मिटा सकते हो।
ओशो
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