पके लोग कहां से लाओगे? पके ही लोग होते तो दीक्षा की जरूरत क्या थी? यह
तो तुमने ऐसा प्रश्न पूछा कि जैसे किसी डाक्टर से पूछो कि बीमारों का इलाज
क्यों करते हो? तो क्या स्वस्थ लोगों का इलाज किया जाए! बीमार का ही इलाज
होगा और कच्चे को ही दीक्षा देनी होगी।
दीक्षा का अर्थ ही है कि पकाने का प्रयास। तो कच्चे को ही तो देनी होगी!
पागल को ही तो स्वस्थ करना है। बीमार को ही तो रोग से मुक्त करना है।
उपाधियों के लिए ही तो औषधि खोजनी है।
तो तुम पूछते हो कि ‘बुद्ध ने दीक्षा क्यों दी?’
कुछ हमारा मन ऐसा है कि हम अपने में भूल चूक खोजने की बजाय बुद्धों में
भूल चूक खोजने में ज्यादा रस लेते हैं। अब यह कहानी ऐसी थी कि तुम्हें अपने
भीतर देखना था कि तुम्हारे भीतर भी ऐसा धन, पद, मद का मोह तो नहीं छिपा
है। वह तो नहीं देखा। तुमने कहा, अरे, तो बुद्ध में कुछ गड़बड़ मालूम होती
है! ऐसे कच्चे आदमियों को दीक्षा ही क्यों दी? और जिस आदमी को इतना ही पता
नहीं है, कौन कच्चा, कौन पक्का, उसको और क्या पता होगा? तुम्हारा मन अपनी
भूल में नहीं उतरता, तुम बुद्धों की भूल में ज्यादा रस लेते हो। शायद
बुद्धों की भूल पाकर तुमको थोड़ा मजा भी आता है। मजा यह आता है कि देखो,
अरे, इनसे तो हमीं ज्यादा बुद्धिमान हैं! हमको दिखायी पड़ रहा है कि ये आदमी
कच्चे हैं इनको दीक्षा नहीं देनी चाहिए और बुद्ध ने दे दी।
तो पके आदमी कहां हैं? तब तो फिर बुद्ध बुद्धों को ही दीक्षा दे सकते
हैं। लेकिन बुद्ध बुद्धों के पास दीक्षा लेने किसलिए जाएंगे! प्रयोजन क्या
है!
खयाल रखो, कच्चा आदमी ही जाता है। कच्चे आदमी को ही जरूरत है। बुद्ध के
पास, बुद्ध की आंच में बैठकर पकेगा। तो यह कुछ अनहोनी घटना नहीं है कि तुम
सोचो कि यह कुछ बुद्ध की भूल थी।
तुम यहां मेरे पास हो, तुम क्या सोचते हो, तुम पके हो इसलिए दीक्षा दे
दी। तो दर्पण में अपना चेहरा देखना। तुम कच्चे हो और तुममें कच्चेपन की
सारी भूलें हैं। और सारी भूलों को जानते हुए दीक्षा दी गयी है। दीक्षा दी
गयी है, तुम्हारे भविष्य को ध्यान में रखकर, तुम्हारे अतीत को ध्यान में
रखकर नहीं। तुम अब तक क्या रहे हो, इसको ध्यान में रखा जाए तो दीक्षा
तुम्हें दी नहीं जा सकती। तुम क्या हो सकते हो, उस आशा में दीक्षा दी गयी
है। एक फल कच्चा है, कच्चा अब तक है, लेकिन पक सकता है न! उस पक सकने की
संभावना को दीक्षा दी गयी है। तुम कैसे हो, इसकी चिंता नहीं है, तुम क्या
हो सकते हो, तुम्हारी अंतिम पराकाष्ठा को ध्यान में रखकर दीक्षा दी गयी है।
तुम निखरोगे तो क्या हो जाओगे, तुम आग से गुजरोगे तो कैसे स्वर्ण, कुंदन,
कैसे शुद्ध कुंदन होकर निकल आओगे, उसको ध्यान में रखकर दीक्षा दी गयी है।
तुम्हें ध्यान में रखा जाए तब तो दीक्षा ही नहीं दी जा सकती।
तिब्बत में कथा है। एक बहुत पहुंचा हुआ फकीर हुआ, वह जीवनभर इनकार करता
रहा, वह किसी को दीक्षा न दे। क्योंकि वह इतनी शर्तें लगाए कि वे शर्तें
कोई पूरी न कर पाए, वह पक्के आदमी की तलाश में था। उसकी शर्तें ऐसी थीं कि
कोई आदमी पूरी कर ही नहीं सकता था। वह पूछे कि निर्विचार हो गए हो?
ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हो गए हो? अब इस तरह की बातें। अगर कोई ब्रह्मचर्य को
और निर्विचार को उपलब्ध हो गया हो, तो महाराज, आपकी शरण क्यों आए! तो आपने
अस्पताल स्वस्थों के लिए खोल रखा है? धीरे धीरे लोग हिम्मत ही छोड़ दिए,
कोई पूछने की हिम्मत ही न करे कि महाराज, दीक्षा!
मरने के पहले, तीन दिन पहले, उसने गांव में खबर भेजी कि जिसको भी दीक्षा
लेनी हो आ जाओ। लोग तो भरोसा ही न कर सके, क्योंकि यह खबर आयी कि जिसको
भी! कुछ लोग पता लगाने आए कि कुछ गलतफहमी तो नहीं हो गयी, क्योंकि यह आदमी
सत्तर साल से इनकार कर रहा है, एक आदमी को दीक्षा नहीं दी, आज बाजार में
खबर भेजी है कि जिसको भी, लेना उसको, नहीं लेना उसको, वह भी आ जाए, उसको भी
देंगे।
एक आदमी खबर लेने भेजा। वह आदमी पहाडी की गुफा में चढ़कर गया, उसने कहा,
महाराज, ऐसी खबर पहुंची है गलत ही होनी चाहिए, कि आपने कहा कि जिसको भी
दीक्षा लेनी हो! उसने कहा कि ही, जिसको भी दीक्षा लेनी है और देर न करो, जो
आना चाहता है उसको ले ही आना। जरा भी इच्छा कोई प्रगट करे, उसको ले ही
आना। पर उस आदमी ने कहा, आप जिंदगीभर तो कहते रहे, ये ये शर्तें पूरी… उस
फकीर ने कहा, तुम समझे नहीं; अब तक मैं योग्य ही नहीं था किसी को दीक्षा
देने के, इसलिए बहाने खोजता था। बड़ी बड़ी शर्तें लगा रखी थीं। अब मैं योग्य
हुआ हूं अब जो भी आए, चलेगा। और अब ज्यादा देर भी मैं यहां रहने
को नहीं, केवल तीन दिन। तो तीन दिन मे जो भी आ जाए, दीक्षा दे देनी है।
जो मुझे मिला है, बांट देना है। अब पात्र अपात्र की फिक्र छोड़ो, बुरा भला,
इसकी फिक्र छोड़ो; तुम तो गांव में जाकर डुंडी पीट दो कि मैं तीन दिन और हू।
और मुझे उपलब्ध हो गया है, इसलिए जिसे भी लेना हो, आ जाए।
यह कथा बडी महत्वपूर्ण है। बुद्धत्व को जो उपलब्ध हो गया है, वह तो
अंतिम को भी दीक्षा देने को तैयार हो जाएगा, हो ही जाना चाहिए। जो आखिरी
शिखर पर पहुंच गया है, उसकी करुणा इतनी होगी कि जो नीचे खड्ड में पडा है,
आखिरी खड्ड में पड़ा है, वह उसको भी पुकारेगा। जानते हुए कि तुम्हारे कपड़े
कीचड से सने हैं और तुम्हारे हृदय में बहुत घाव हैं। लेकिन यह तुम्हारा
स्वभाव नहीं है। ये तुम्हारी भूल—चूके हैं, जो कि काटी जा सकती हैं, जो कि
हटायी जा सकती हैं। ये घाव भर जाएंगे, यह कीचड़ धुल जाएगी। तुम्हारे कपड़ों
को थोडे ही दीक्षा दी जा रही है, तुम्हें दीक्षा दी जा रही है। तुम्हारे
कर्म तो तुम्हारे वस्त्र हैं। तुमने बुरे कर्म किए हैं तो कपड़े गंदे हो गए
हैं। तुम्हारे नग्न स्वभाव को दीक्षा दी जा रही है।
जब बुद्ध किसी को दीक्षा देते हैं तो देखते हैं क्या हो सकता है? बीज को
थोड़े ही दीक्षा देते हैं, वृक्ष को दीक्षा देते हैं जो अभी हुआ ही नहीं
है।
जब मैं तुम्हारे गले में माला डालता हूं तो तुम्हारे गले में थोड़े ही
माला डालता हूं उस गले में माला डालता हूं जो अभी होने को है। जब मैं
तुम्हें आशीर्वाद देता हूं तो तुम्हें थोडे ही आशीर्वाद देता हूं क्योंकि
तुम्हें तो आशीर्वाद मिल जाए तो खतरा होगा। तुम तो अपनी गलतियों में और
मजबूत होकर बैठ जाओगे। उसे आशीर्वाद देता हूं जो जन्मने को है। तुम तो
मात्र गर्भ हो, तुम्हारे गर्भ में जो छिपा है, तुम तो मात्र बीज हो,
तुम्हारे वृक्ष को आशीर्वाद देता हूं।
स्वभावत: दीक्षा के बाद भी तुम भूल चूक करोगे। इसमें कुछ अड़चन नहीं है,
करोगे ही। और तुम भूल चूक करोगे और बुद्धों का काम होगा कि वे तुम्हें सजग
करते रहें, चेताते रहें।
तो ये बौद्ध भिक्षु बैठकर बात कर रहे हैं धन की, पद की, राज्य की, बुद्ध
चौंकाने के लिए पहुंच गए हैं कि अरे पागलो, यह तुम क्या बात कर रहे हो!
तुम यह मत समझना कि बुद्ध चौंके। बुद्ध जानते हैं कि यही बात होगी, और
बात क्या होगी! इस फर्क को समझ लेना। जब बुद्ध कहते हैं, अरे भिक्षुओ ! तुम
और ऐसी बातें कर रहे हो, तो तुम यह मत सोचना कि बुद्ध चौंक गए हैं। बुद्ध
तो जानेंगे कि यही बातें होगी, खाई खड्ड में पड़े लोग और क्या करेंगे! जब
बुद्ध ऐसा चौंकन्ना पन प्रगट करते हैं तो वह सिर्फ भिक्षुओं को चौंका रहे
हैं। वह कहते हैं कि तुमसे ऐसी अपेक्षा नहीं है, उठो अब, बहुत हो गया, अब
छोड़ो भी, अब भिक्षु भी हो गए, अब ऐसी बात कर रहे हो! अब छोड़ो! जानते हुए कि
अभी यह बात चलेगी। और क्या तुम सोचते हो, उन भिक्षुओं ने उस दिन बात सुनकर
छोड़ दी होगी! इतनी जल्दी तुम भी नहीं छोड़ते, कोई भी नहीं छोड़ता।
समय लगता
है, बार बार चोट करनी पड़ती है।
चोट करते ही रहनी पड़ती है। गुरु की सतत चोट
पड़ती रहती है, पड़ती रहती है, पड़ती रहती है, एक दिन बीज टूटता है।
एस धम्मो सनंतनो
ओशो
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