Osho Whatsapp Group

To Join Osho Hindi / English Message Group in Whatsapp, Please message on +917069879449 (Whatsapp) #Osho Or follow this link http...

Tuesday, January 1, 2019

‘गुरु कहै सो कीजिए करै सो कीजै नाहिं।’


आदमी जहां है वहां तृप्ति नहीं है। आदमी जहां है वहां दुख और विषाद है। और आदमी को जहां तृप्ति की आशा दिखाई पड़ती है वह दूसरा किनारा बहुत दूर धुंध में छाया मिल भी सकेगा निर्णय करना मुश्किल है। है भी यह भी निश्चय करना मुश्किल है।

इस किनारे पर कोई सुख नहीं है। उस किनारे पर आशा है लेकिन कैसे उस किनारे तक कोई पहुंचे माझी खोजना होगा। किसी ऐसे का साथ चाहिए जो उस पार हो जो उस पार हो आया हो जिसने संतुष्टि का स्वाद जाना हो जो मोक्ष की हवा में जीया हो। किसी मुक्त का सत्संग चाहिए। गुरु का इतना ही अर्थ है।
 
गुरु का अर्थ हैः इस किनारे होकर भी जो इस किनारे का नहीं। इस किनारे होकर भी जो उस किनारे का सबूत है। इस किनारे होकर भी जो वस्तुत उस किनारे ही रहता है। तुम्हारे बीच है तुम्हारे जैसा है फिर भी तुम्हारे बीच नहीं। फिर भी तुम्हारे जैसा नहीं।

गुरु का अर्थ है जहां कुछ अपूर्व घटा है। जहां बीज अब बीज ही नहीं फूल बन गए है। जहां संभावना वास्तविक हुई है जहां मनुष्य की अंतिम मंजिल पूरी हुई है जहां मनुष्य अपनी निष्पत्ति को उपलब्ध हुआ है।

गुरु का अर्थ है तुम्हारा भविष्य। गुरु का अर्थ है तुम जो हो सकते हो वैसा कोई हो गया है। उसका हाथ पकड़े बिना यात्रा संभव नहीं है। उसका हाथ पकड़े बिना भटक जाने की संभावना है पहंुचने की नहीं।
 
आज के सूत्र महत्वपूर्ण हैं--सभी साधकों सभी खोजियों के लिए।

गुरु कहै सो कीजिए करै सो कीजै नाहिं।
चरनदास की सीख सुन यही राख मन माहिं।।

बड़ा अनूठा वचन है और एकदम से समझ में न पड़े ऐसा वचन है। समझ पड़ जाए तो बड़ी संपदा हाथ लग गई।

गुरु कहै सो कीजिए करै सो कीजै नाहिं।

उलटा लगता है। साधारणत तो हम सोचेंगे गुरु जैसा करे वैसा करो। लेकिन चरणदास कहते है गुरु जो कहे वैसा करो जो करे वैसा नहीं। क्यों क्योंकि गुरु जो कर रहा है वह तो उसकी आत्मदशा है। गुरु का कृत्य तो उस पार का कृत्य है। गुरु जो कर रहा है जैसा जी रहा है वैसे तो तुम अभी जी न सकोगे। वैसा जीना चाहा तो झंझट में पड़ोगे। या तो पाखंड हो जाएगा प्रारंभ अभिनय होगा क्योंकि जो तुम्हारी अंतर्दशा नहीं है वह तुम्हारा आचरण कैसे बनेगा

गुरु जैसा है वैसा करने की कोशिश मत करना। वैसा तो किसी दिन जब होगा तब होगा।

महावीर नग्न खड़े हैं तुम भी नग्न खड़े हो जाओ। लेकिन तुम्हारी नग्नता में और महावीर की नग्नता में बड़ा भेद होगा जमीन आसमान का भेद होगा। तुम्हारी नग्नता आरोपित नग्नता होगी। तुम्हारी नग्नता एक तरह का नंगापन होगी। महावीर की नग्नता नंगापन नही है। महावीर की नग्नता निर्दोेषता है। तुम चेष्टा करोगे वस्त्रों को गिराने की। महावीर के साथ घटना और ही घटी है। छुपाने को कुछ नहीं रहा। वस्त्र गिरा दिए--ऐसा नहीं छुपाने को कुछ नहीं रहा। जैसे छोटा बच्चा हो ऐसे हो गए हैं। निर्वस्त्रता नहीं है यह मात्र यह निर्दोेषता का जन्म है।

लेकिन तुम अगर चेष्टा करोगे और महावीर जैसे ही बन कर खड़े हो जाओगे तो तुम सिर्फ निर्वस्त्र होओगे। और इस निर्वस्त्रता में धोखा हो जाएगा। तुम्हे लगेगा हो गया महावीर जैसा।
 
नहीं महावीर जो कहें वैसा करो जो करें वैसा नहीं। क्यांेकि महावीर जो आज कर रहे हैं वह चेष्टा से नहीं है उनकी सहज स्फुरणा से है। तुम करोगे--चेष्टा होगी आरोपण होगा जबरदस्ती होगी।

मगर अकसर ऐसा होता है कि लोग गुरु का अनुकरण करने लगते हैं। गुरु जैसा करता है वैसा करने लगते हैं। गुरु जो कहता है उसे तो सुनते नहीं हैं। उसे ही सुनो उसी को करते-करते एक दिन ऐसी घड़ी आएगी उस सहज क्रांति की घड़ी उस समाधि की घड़ी जब तुमसे गुरु जैसा होने लगेगा लेकिन गुरु जैसा करना मत। होगा एक दिन जरूर। किया--चूक जाओगे। गुरु जो कहे वही करना। क्योंकि गुरु जब कहता है तो तुम्हें ध्यान में रखकर कहता है। और गुरु जब करता है तो अपनी सहजता से करता है। इस भेद को समझना।

गुरु जब कहता है तो तुमसे कहता है तो तुम पर न.जर होती है। तुम कहां हो इस बात पर नजर होती है। तुम्हारे लिए क्या काम का होगा इस बात पर नजर होती है। तुम्हें किससे लाभ मिलेगा इस बात पर नजर होती है। तुम कैसे बदलोेगे तुम जहां खड़े हो वहां से कैसे पहला कदम उठेगा--उस तरफ इशारा होता है।

गुरु जो बोलता है वह तुमसे बोलता है। इसलिए तुम्हारा ख्याल रख कर बोलता है। गुरु जो करता है वह अपने स्वभाव से करता है अपनी स्थिति से करता है अपनी समाधि से करता है। गुरु का कृत्य उसके भीतर से आता है। गुरु के शब्द तुम्हारे प्रति अनुकंपा से आते हैं। इस भेद को खूब समझ लेना।
 
तो गुरु के शब्द ही तुम्हारे लिए सार्थक है--गुरु का कृत्य नहीं। हां, शब्दोें को मान कर चलते रहे तो एक दिन गुरु के कृत्य भी तुममें घटित होंगे। वह अपूर्व घड़ी भी आएगी वैसा सूरज तुम्हारे भीतर भी उगेगा। वैसे मेघ तुम्हारे भीतर भी घिरेंगे। वैसा मोर तुम्हारे भीतर भी नाचेगा। वैसी वर्षा निश्चित होनी है। लेकिन अगर तुमने पहले से ही गलत कदम उठाया गलत कदम यानी गुरु ने जैसा किया वैसा किया--तो चूक जाओगे।

नहीं साँझ नहीं भोर 

ओशो

परमात्मा एक अनुभव है

आंखें हों तो परमात्मा प्रति क्षण बरस रहा है। आंखें न हों तो पढ़ो कितने ही शास्त्र, जाओ काबा, जाओ काशी, जाओ कैलाश, सब व्यर्थ है। आंख है, तो अभी परमात्मा है..यहीं! हवा की तरंग-तरंग में, पक्षियों की आवाजों में, सूरज की किरणों में, वृक्षों के पत्तों में!

परमात्मा का कोई प्रमाण नहीं है। हो भी नहीं सकता। परमात्मा एक अनुभव है। जिसे हो, उसे हो। किसी दूसरे को समझाना चाहे तो भी समझा न सके। शब्दों में आता नहीं, तर्को में बंधता नहीं। लाख करो उपाय, गाओ कितने ही गीत, छूट-छूट जाता है। फेंको कितने ही जाल, जाल वापस लौट आते हैं। उस पर कोई पकड़ नहीं बैठती। ऐसे सब जगह वही मौजूद है। जाल फेंकने वाले में, जाल में..सब में वही मौजूद है। मगर उसकी यह मौजूदगी इतनी घनी है और इतनी सनातन है, इस मौजूदगी से तुम कभी अलग हुए नहीं, इसलिए इसकी प्रतीति नहीं होती।

जैसे तुम्हारे शरीर में खून दौड़ रहा है, पता ही नहीं चलता! तीन सौ वर्ष पहले तक चिकित्सकों को यह पता ही नहीं था कि खून शरीर में परिभ्रमण करता है। यही ख्याल था कि भरा हुआ है; जैसे कि गगरी में पानी भरा हो। यह तो तीन सौ वर्षो में पता चला कि खून गतिमान है।
 
हजारों वर्ष तक यह धारणा रही कि पृथ्वी स्थिर है। जो लोग घोषणा करते हैं कि वेदों में सारा विज्ञान है, उनको ख्याल रखना चाहिएः वेदों में पृथ्वी को कहा है..अचला’, जो चलती नहीं, हिलती नहीं, डुलती नहीं। क्या खाक विज्ञान रहा होगा! अभी पृथ्वी के अचला होने की धारणा है। अभी यह भी पता नहीं चला है कि पृथ्वी चलती है, प्रतिपल चलती है। दोहरी गति है उसकी। अपनी कील पर घूमती है..पहली गति; और दूसरा..सूर्य के चारों तरफ परिभ्रमण करती है। मगर हम पृथ्वी पर हैं, इसलिए पृथ्वी की गति का पता कैसे चले? हम उसके अंग हैं। हम भी उसके साथ घूम रहे हैं। और भी शेष सब उसके साथ घूम रहा है। तो पता नहीं चलेगा।

जैसे समझो यहां बैठे-बैठे अचानक कोई चमत्कार हो जाए और हम सब छह इंच के हो जाएं, और हमारे साथ वृक्ष भी उसी अनुपात में छोटे हो जाएं, मकान भी उसी अनुपात में छोटा हो जाए, तो किसी को पता ही नहीं चलेगा कि हम छोटे हो गए हैं। क्योंकि पुराना अनुपात कायम रहेगा। तुम्हारे सिर से छप्पर की दूरी उतनी ही रहेगी जितनी पहले थी। तुम्हारा बेटा तुमसे उतना ही छोटा रहेगा जितना पहले था। वृक्ष तुमसे उतने ही ऊंचे रहेंगे जितने पहले थे। अगर सारी चीजें एक साथ छोटी हो जाएं, समान अनुपात में, तो किसी को कभी कानों-कान पता नहीं चलेगा। तुम जिस फुट और इंच से नापते हो, वह भी छोटा जो जाएगा न! वह भी बताएगा कि तुम छः फीट के ही हो, जैसे पहले थे, वैसे ही अब भी हो।
 
कहते हैं मछली को सागर का पता नहीं चलता। चले भी कैसे? सागर में ही पैदा हुई, सागर में ही बड़ी हुई, सागर में ही एक दिन विसर्जित हो जाएगी। लेकिन मछली को सागर का कभी-कभी पता चल सकता है। कोई मछुआ खींच ले उसे, डाल दे तट पर, तप्त रेत पर, तड़फे, तब उसे बोध आए, तब उसे समझ आए। सागर से टूट कर पता चले कि मैं सागर में थी और अब सागर में नहीं हूं। जब तक सागर में थी तब तक पता नहीं चला कि मैं सागर में हूं।

मन के इस नियम को ठीक से समझ लेना। हमें उसका ही पता चलता है जिससे हम छूट जाते हैं; जिससे हम टूट जाते हैं; जिससे हम भिन्न हो जाते हैं। उसका हमें पता ही नहीं चलता जिसके साथ हम जुड़े ही रहते हैं, जुड़े ही रहते हैं। कहते हैं, मरते वक्त लोगों को पता चलता है कि हम जीवित थे। और यह बात ठीक ही है। क्योंकि जीवन जब था तो तुम सागर में थे। मृत्यु के वक्त मौत का मछुआ तुम्हें खींच लेता है, डाल देता है तट पर तड़फने को, तब पता चलता है कि अरे, हाय कितना चूक गए! कैसा अदभुत जीवन था! अब सब यादें आती हैं।

झरत दसहुं दिस मोती

 

ओशो 


Popular Posts