मन का एक ही भय हैः वह ध्यान है। ध्यान मन की मृत्यु है। ध्यान
का अर्थ हैः अपने आमने-सामने आ जाना। जैसे कोई दर्पण में अपने को देख ले, ऐसा ही कोई मन के बिल्कुल
सामने खड़ा हो जाए; इंच भर भी मन को हटने न दे, तो बड़ा चमत्कार घटित होता है। अगर मन बिल्कुल सामने आ जाए, तो तत्क्षण खो जाता है। तुम्हारी आंख काफी है, उसकी
मृत्यु के लिए।
तुमने कहानी सुनी है कि कामदेव ने शिव को कामातुर किया। और उन्होंने अपनी तीसरी आंख से कामदेव को देखा और वह भस्म हो गया; तब से वह अनंग है, उसकी कोई देह नहीं है।
ध्यान तीसरी आंख है: दि थर्ड आई। और अगर तुम कामवासना को तीसरी
आंख से देख लो, ध्यान से देख लो, तो वह
राख हो जाती है।
मन क्या है? सारी वासनाओं का जोड़ है। और मन के गहरे में कामवासना है। इसलिए ब्रह्मचर्य पर इतना जोर दिया है। अगर कामवासना चली जाए, तो शेष सारी वासनाएं अपने आप झर जाती हैं। क्योंकि जिसकी कामवासना न हो, उसका लोभ क्या होगा?
जब तक तुम्हारे मन में काम है, तब तक लोभ है।
जब तक लोभ है, तब तक क्रोध है। जब तक क्रोध है, तब तक मद-मत्सर हैं। सब जुड़े हैं। लेकिन सबसे गहरी कड़ी काम-वासना की है।
छोटा बच्चा इतना भोला मालूम पड़ता है, क्योंकि वह गहरी कड़ी अभी प्रकट नहीं हुई है; अभी शरीर तैयार नहीं है। अभी चौदह साल लगेंगे, तब शरीर तैयार होगा और कामवासना की पहली कड़ी प्रकट होगी। बस, फिर सारी वासनाएं आस-पास आने लगेंगी। जैसे ही कामवासना मन में आती है, बाकी सारी वासनाएं सहयोग के लिए खड़ी हो जाती हैं।
लोभ का अर्थ है, अगर तुम कामी नहीं हो। अगर तुम कामी नहीं हो, तो तुम क्रोध कैसे करोगे। अगर तुम कामी नहीं हो, तो अहंकार की घोषणा का कोई भी प्रयोजन नहीं है। तब तुम ऐसे जी सकते हो, जैसे तुम हो ही नहीं। और तब तुम्हारे पास कुछ हो या न हो, बराबर अर्थ होगा। तुम सारे संसार को जीत लो हजार-हजार सिंहासन तुम्हारे हों तो, और तुम्हारे पास कुछ भी न हो, सब खो जाए, तो भी तुम्हारी नींद में कोई खलल न पड़ेगी। तुम वैसे ही रहोगे, जैसे सब घटनाएं बाहर-बाहर हैं।
लेकिन अगर काम-वासना भीतर है, तो फर्क पड़ेगा। क्योंकि अगर तुम सिंहासन पर हो, तो तुम सुंदर स्त्रियों को पा सकोगे। अगर सिंहासन गया, तो वह सौंदर्य का सारा राज्य गया। तुम अगर धन वाले हो, तो तुम वासना को खरीद सकते हो। अगर तुम निर्धन हो, तो तुम क्या खरीदोगे? गरीब की क्या क्षमता है खरीद लेने की? तो आदमी धन इकट्ठा करता है, वह भी काम के लिए ही है।
फिर अगर कोई तुम्हारी वासना में बाधा डाले, तो क्रोध आता है। इसलिए हम कहते हैं कि संत अक्रोधी होगा; क्योंकि उसकी कोई वासना नहीं है। तुम बाधा किस बात में डालोगे? वह कुछ मांगता नहीं है। तुम रुकावट क्या खड़ी करोगे? अक्रोध स्वाभाविक हो जाएगा।
काम केंद्र हैसारी वासना का। मन वासना का फैलाव है।
सहज समाधि भली
ओशो
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