बुद्ध ने आस पर-अनापानसतीयोग, श्वास के आने-जाने का स्मृतियोग-इस पर सारी,
सारी दृष्टि बुद्ध ने इस पर खड़ी की है। बुद्ध कहते थे, इतना ही कर ले भिक्षु तो और कुछ करने की जरूरत नहीं है। यह बहुत छोटा काम
लगेगा मालूम आपको। लेकिन जब घड़ी के कांटे को देखेंगे और साठ सेक्कें में तीन दफे
चूक जाएंगे, तब पता चलेगा कि आस की इस प्रक्रिया में कितनी
चूक हो जाएगी। लेकिन, शुरू करें, तो
कभी अंत भी होता है। प्रारंभ करें, तो कभी प्राप्ति भी होती
है। यह अंतर्क्रिया है। यह राम-राम जपने से ज्यादा कठिन है। क्योंकि राम-राम जपने
में होश रखना आवश्यक नहीं है। आदमी राम-राम जपता रहता है-यंत्रवत। होश रखना आवश्यक
नहीं है। और तब ऐसी हालत बन जाती है कि वह काम भी करता रहता है, राम-राम भी जपता रहता है। उसे न राम-राम का पता रहता है कि मैं जप रहा
हूं-जप चलता रहता है, यंत्रवत हो जाता है। इसलिए अगर राम-राम
भी जपना हो, तो राम-राम जपने में दोहरे काम करने जरूरी
हैं-जप भी रहे, और जप का होश भी रहे, तो
ही फायदा है। नहीं तो बेकार है।
तो बहुत लोग जप कर रहे हैं और व्यर्थ है। उनके जप ने उनकी
बुद्धि को और मंदा कर दिया है,
तीव्र नहीं किया। और उनके जान को बढ़ाया नहीं, और
घटाया है। इसलिए अक्सर आप देखेंगे कि राम-राम जपनेवाले राम-चदरिया ओढ़े हुए लोग
बुद्धि के मामले में थोड़े कम ही नजर आएंगे। शान उनका जगता हुआ नहीं मालूम पड़ता,
और जंग खा गया हुआ मालूम पड़ता है। जंग खा ही जाएगी बुद्धि। क्योंकि
बुद्धि का वह जो बोध है, वह जो ज्ञान है, वह सिर्फ जागरण से बढ़ता है। कोई भी क्रिया अगर मूर्छित की जाए, तो घटता है। और हम सब क्रियाएं मुर्च्छित कर रहे हैं। उसी में हम राम-जप
भी जोड़ लेते हैं। वह भी एक मूर्छित क्रिया हो जाती है।
बजाय एक नयी क्रिया जोड़ने के, जो क्रियाएं चल रही हैं उनमें ही जागरण बढ़ाना
उचित है। और अगर राम की क्रिया भी चलानी शुरू कर दी हो, तो
उसमें भी जागरण ले आएं। कुछ भी करें, एक बात तय कर लें कि
उसे जागकर करने की सतत चेष्टा जारी रखेंगे। आज असफलता होगी, कल
असफलता होगी-कोई चिंता नहीं है-लेकिन हर असफलता से सफलता का जन्म होता है। और अगर
अब खयाल जारी रहा और सतत चोट पड़ती रही, तो एक दिन आप अचानक
पाएंगे कि आप किसी भी क्रिया को समग्र चैतन्य में करने में सफल हो गये हैं। जिस
दिन आप इस चैतन्य में सफल हो जाएंगे, उसी दिन सांख्य का
द्वार खुल गया। और कुछ भी जरूरी नहीं है। और कोई बाहरी क्रिया जरूरी नहीं है।
अंतर्गुहा में प्रवेश हो जाता है।
कैवल्य उपनिषद
ओशो