......एक, जो दूसरों को सताते हैं। और
एक, जो अपने को सताते हैं। और ध्यान रखना, पहले तरह के दुष्ट उतने खतरनाक नहीं हैं। क्योंकि दूसरा कम से कम अपनी
रक्षा तो कर सकता है। दूसरे प्रकार के दुष्ट बहुत खतरनाक हैं, जो अपने को सताते हैं। वहां कोई रक्षा करने वाला भी नहीं है।
अब अगर तुम अपने ही शरीर में कांटे चुभाओ, तो कौन रक्षा करेगा?
खुद को ही भूखा मारो, कौन रक्षा करेगा?
अंग काट डालो, आंखें फोड़ लो, कान फोड़ दो, कौन रक्षा करेगा? सडाओ
अपने को, कौन रक्षा करेगा?
लेकिन ये दूसरे तरह के दुष्ट बड़े तपस्वी हो जाते हैं। इनके जीवन
में सिवाय मूढ़ता के कुछ भी नहीं होता। तुम कोई लपट न देखोगे इनके जीवन में प्रतिभा
की।
जाओ, काशी की सड्कों पर बैठे लोगों को देखो। तीर्थों में तुम्हें इस तरह के मूढ़
मिल जाएंगे। तुम उनके चेहरे पर सिर्फ जघन्य अंधकार पाओगे, घनीभूत
अंधकार पाओगे। उनकी आंखों में तुम्हें कोई ज्योति न मिलेगी। तुम उन्हें दुष्ट
पाओगे।
तुमने कभी नागा संन्यासी देखे कुंभ के मेले पर! ये उसी तरह के
लोग हैं, जिस
तरह के लोग अपराधी होते हैं। इनमें—उनमें कोई फर्क नहीं है।
और बड़े मजे की बात है, अपने अखाड़े में तो वे
कपड़ा पहनते हैं और जब वे जुलूस निकालते हैं, तब वे नंगे हो जाते हैं। और
भाला और छुरे और तलवारें लेकर चलते हैं। तुम उनकी आंखों में पाओगे, महापाप, घृणित भाव, हिंसा,
मूढ़ता। और खतरनाक हैं वे। वे किसी भी वक्त झगड़े के लिए तैयार हैं।
कोई बीस वर्ष पहले कुंभ में जो भयंकर उत्पात हुआ, वह उन्हीं के कारण हुआ।
क्योंकि वे किसी को पहले स्नान नहीं करने देते। अहंकारी की वही तो दौड़ है। वे पहले
स्नान करेंगे। फिर दूसरे कोई व्यक्ति प्रवेश कर सकते हैं। और दूसरे लोगों ने
प्रवेश करने की कोशिश की, तो उपद्रव मच गया। उसी उपद्रव में
सैकड़ों लोग मरे। साधुओं को जरा गौर से देखना, क्योंकि उनमें
तीन तरह के साधु हैं। नब्बे प्रतिशत तो उसमें सिर्फ हठी हैं। हठ ही उनका गुणधर्म
है। इसलिए वे कुछ भी कर सकते हैं, यह खयाल रखना। क्योंकि हठी
व्यक्ति कुछ भी कर सकता है। उसमें से नौ प्रतिशत तुम पाओगे कि राजसी हैं, जो मान—प्रतिष्ठा के लिए कर रहे हैं। कभी भूल से
तुम्हें वह एक आदमी मिलेगा, जो सात्विक है। जो उपवास कुछ
पाने के लिए नहीं कर रहा है, जिसका उपवास आनंद है। जिसका
उपवास परमात्मा के निकट होने की सिर्फ एक दशा है।
फर्क समझ लो। सात्विक व्यक्ति उपवास करता है। उपवास का अर्थ है, उसके पास होना, आत्मा के पास होना या परमात्मा के पास होना। शब्द का भी वही अर्थ है। उसका
भूखे मरने से कोई लेना—देना नहीं है सीधा। लेकिन जब सात्विक
व्यक्ति उसके निकट होता है, तो शरीर को भूल जाता है। कुछ
घड़ियों के लिए न भूख लगती है, न प्यास लगती है। भीतर ऐसी धुन
बजने लगती है। जैसे तुम भी कभी—कभी नृत्य देखने बैठे हो,
कोई सुंदर नर्तक नाच रहा है; या कोई गीत गा
रहा है, और गीत ऐसा प्यारा है कि धुन बंध गई, तारी लग गई; तो तीन घंटे तुम्हें न भूख लगती है,
न प्यास लगती है। तुम सब भूल ही जाते हो। जब संगीत बंद होता है,
अचानक तुम्हें पता चलता है कि पेट में तो हाहाकार मचा है, भूख लगी है, कंठ सूख रहा है। इतनी देर तक पता क्यों
न चला! ध्यान लीन था।
सात्विक व्यक्ति का उपवास ऐसा है कि उसका ध्यान इतना भीतर
परमात्मा में लीन होता है कि वह भूल ही जाता है, प्यास लगी है, भूख लगी
है। जब लौटता है अपने ध्यान से, तब भूख और प्यास का पता चलता
है। इसलिए उसका नाम उपवास है, परमात्मा के निकट वास।
गीता दर्शन
ओशो
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