प्रश्नकर्ता ने अपना नाम नहीं लिखा है। पता नहीं किस गधे ने यह
प्रश्न पूछा है। मालूम पड़ता है जरूर कोई गधा नाराज हो गया है। नाराज होना भी चाहिए, क्योंकि गधे इतने गये-बीते
नहीं। मुझसे भूल तो हो गयी।
गधे तो बड़े शालीन होते हैं। गधों का मौन देखो। यूं कभी-कभी रेंक
देते हैं, मगर
रेंकने में भी बड़ी अटपटी वाणी है, जिसको सधुक्कड़ी भाषा कहते
हैं, कि कोई समझने वाला ही समझे तो समझे। कुछ ऐसी गहरी पते
की बात कहते हैं कि जो शब्दों में आती ही नहीं; शास्त्र
जिसको कह-कह कर थक गए...। ऐसा कभी-कभी। नहीं तो यूं मौन रहते हैं।
और गधों के चेहरे देखो--कैसे उदासीन, कैसे विरक्त! न कोई लाग,
न कोई लगाव। अनासक्त भाव से चले जा रहे हैं। और कुछ बोझा लाद
दो--कुरान लाद दो, गीता लाद दो, वेद
लाद दो--कोई किसी तरह की धार्मिक मतांधता नहीं। कुरान लादो तो ठीक, वेद लादो तो ठीक, गीता रख दो तो ठीक, तो ऐसा सर्व-धर्म-समन्वय...अल्लाह-ईश्वर तेरे नाम, सबको
सन्मति दे भगवान! कुछ भेद-भाव नहीं करते, अद्वैतवादी हैं।
और गधे इतने गधे नहीं होते जितना कि आमतौर से लोग सोचते हैं।
पता नहीं क्यों गधे बदनाम हो गए! कैसे बदनाम हो गए!
मुझे बचपन से ही गधों में रुचि रही। मेरे गांव में बहुत गधे
थे--सभी जगह होते है। गधों की कहां कमी है?
घोड़े तो मेरे गांव में बहुत कम थे; बस जितने
तांगे थे, थोड़े से...। और बिलकुल मरियल घोड़े, गरीब गांव, गरीब तांगे, उनके
गरीब घोड़े। किसी के ऊपर घाव बन गए हैं, हड्डी-हड्डी हो रहे
हैं। खच्चर तो बिलकुल ही नहीं थे, क्योंकि खच्चर तो पहाड़ी
इलाकों में काम आते हैं। वह कोई पहाड़ी इलाका न था।
मगर गधे काफी थे। अच्छे मस्त गधे थे!
और मुझे बचपन से ही गधों पर चढ़ने की धुन थी। शाम हुई कि मैं
गधों की तलाश में निकला। और तभी मुझे पता चला कि गधे इतने गधे नहीं, जितना लोग समझते हैं। गधे
मुझे पहचानने लगे। मुझे दूर से ही देख कर एकदम रेंकने, लगते,
भागने लगते। मैं भी चकित हुआ। मैं पहले यही सोचता था कि गधे सच मैं
गधे होते हैं। रात के अंधेरे में, जैसे मेरी बास भी उन्हें
समझ में आने लगी। मैं कितना ही धीमे-धीमे उनके पास जाऊं...। दूसरे लोग निकल जाएं
उनके बगल से, बराबर खड़े रहें। मैं उनके पास गया नहीं कि वे
भागे। तब मुझे पता चला कि इतने गधे नहीं हैं। बड़े पहुंचे हुए सिद्ध हैं! अपनी मतलब
की बात पहचान लेते थे, अब बाकी ऐरे-गैर नत्थू-खैरे निकल रहे
हैं तो निकलने दो। इनसे क्या लेना-देना? जैसे ही उनको दिखा
कि यह आ रहा है खतरनाक आदमी और उन्होंने रेंकना शुरू किया।
इसलिए मैंने कहा कि अभी गुजरात के गधों की मैं जनगणना कर रहा
हूं। मेरे हाथ तो एक सूत्र लग गया। अब मैं सारे भारत के गधों की जनगणना कर लूंगा
यहीं बैठे-बैठे, न कहीं गए न कहीं उठे। जब गुजरात के सब गधे रेंक चुके होंगे, तब में जाऊंगा कटक। फिर उड़ीसा के गधों की रेंक शुरू होगी। फिर चले
कलकत्ता। अपना बिगड़ता क्या है? फिर बंगाली गधों की
जांच-पड़ताल कर लेंगे। जितने भी गधा बाबू होंगे उनका पता लगा लेंगे। फिर चले बिहार।
अरे न कहीं आना न जाना! मगर यूं बैठे-बैठे गधों की जनगणना तो हो ही जाएगी। अपने-आप
गधे बोल देंगे। यह बचपन से ही मेरा उनसे नाता है। वे मुझे देख कर एकदम छड़कते हैं,
एकदम भागते हैं।
तो गधे इतने तो गधे नहीं होते। इसलिए एक लिहाज से तो ठीक ही है।
जिस गधे ने भी यह पूछा है, उससे मैं काफी मांगता हूं कि मुझे साधु-संतों को, मुनि-महात्माओं
को गधा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि गधों ने बेचारों ने किसी का
कभी कुछ नहीं बिगाड़ा। गधे बिलकुल निर्दोष हैं। इनके ऊपर कोई हिंदू-मुसलमान
दंगे-फसाद का, मसजिद-मंदिर को जलाने का कोई आरोप नहीं कर
सकता। मगर गधा शब्द का मेरा अर्थ भी समझ लो। उससे तुम्हें आसानी होगी। कम से कम
मेरे संन्यासियों को आसानी होगी; कोई गधा पूछ ही बैठा तो
तुमको आसानी रहेगी। कोई गधा पूछ बैठे तो उसको कहना कि है गधाराम जी...। राम तो लगा
ही देना पीछे। राम लगाने से बड़ी बचत हो जाती है। जैसे ही किसी के नाम के पीछे राम
लगा दो तो चित्त प्रसन्न हो जाता है उसका। तो कहना: हे गधाराम जी आपको नाराज वगैरह
होने की कोई जरूरत नहीं है। क्योंकि मेरा जो गधा शब्द का प्रयोग है, वह शार्ट फार्म है। ग अर्थात गंभीर और धा अर्थात धार्मिक। जो बहुत गंभीर
रूप से धार्मिक है, उसको मैं गधा कहता हूं।
और गधों को बिगाड़ना मेरा धंधा है। धा को तो रहने देता हूं, ग को मिटाता हूं। गंभीरता
मिटानी है। मस्ती लानी है। नृत्य लाना है। धार्मिकता तो अच्छी है। धा यानी मेधा,
प्रतिभा। ग को मिटा देना है। ग मिटाने की कोशिश करेंगे, ताकि सिर्फ धा बचे, धार्मिकता बचे, मेधा बचे। अपने से जो भी सेवा बन सकेगी, करेंगे।
इसलिए गधों से मेरी प्रार्थना है, नाराज न होना। जिसकी सूरत पर सदा बारह बजे रहते
हों और जो धर्म की बकवास करता फिरे--भावार्थ पंडित-पुरोहित, साधु-महात्मा
संयमीत्तपस्वी, मुनि-मौलवी इत्यादि-इत्यादि। मेरा तात्पर्य
कोई चौपाया गधे से नहीं था। उस बेचारे ने तो किसी का कुछ भी नहीं बिगाड़ा। ये जो
दोपाये गधे हैं, इन्होंने मनुष्य-जाति का बहुत अहित किया है।
इनसे छुटकारे की आवश्यकता है।
बहुरि न ऐसो दांव
ओशो
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