बुद्ध जिस दिन मरे,
एक आदमी भागा हुआ आया और उसने कहा कि मुझे आना तो बहुत पहले से था,
तीस साल से सोच रहा था आऊं-लेकिन नहीं आ सका। और आप मेरे गांव से
कितनी बार नहीं गुजरे! लेकिन कभी कोई मेहमान आ गया, कभी मैं
दुकान अभी बंद करके आपके दर्शन को आ ही रहा था कि कोई ग्राहक आ गया। बस कभी मैंने
बिलकुल तैयारी ही की थी कि पत्नी बीमार पड़ गयी, कि चिकित्सक
को बुलाने जाना पड़ा कि मेरे खुद ही सिर में दर्द हो गया।
हजार बहाने हैं। सब बहाने हैं, क्योंकि जिस जाना हो वह सिर-दर्द हो तो भी जा
सकता है और पत्नी बीमार हो तो भी जा सकता है। और जिसे जाना हो, आज नहीं सही एक ग्राहक, जिंदगी भर तो ग्राहक आए। और
जिसे जाना हो, वह मेहमान को भी साथ ले जाएगा, क्यों रुकेगा? और मेहमान को नहीं जाना हो तो मेहमान
आराम करे। लेकिन ये सब बहाने हैं। और लोग चूकते चले जाते हैं।
अब जब उसको खबर मिली कि बुद्ध मर रहे हैं, अपनी अंतिम सांस ले रहे हैं,
तब भागा हुआ आया। बुद्ध ने कहा: "तूने बहुत देर कर दी। अब तू
क्या समझ पाएगा? मैं मुझे क्या समझाऊं अब? यह बात इतनी आसान तो नहीं। यह कुछ ऐसा मामला तो नहीं कि मैं तुझे दे दूं,
कि यह ले जा, घुटी बना कर पी लेना। धर्म कुछ
ऐसी चीज तो नहीं कि मैं एक किताब पकड़ा दूं कि ले, पढ़ते रहना।'
धर्म तो जीवन साधना है। समग्र जीवन, श्वास-श्वास जब अनुप्राणित
होते हैं, तब कहीं क्रांति घटती है।
मगर यह सूत्र कीमती है--
बहुरि न ऐसो दांव,
नहीं फिर मानुष होना।
क्या ताकै तू ठाढ़,
हाथ से जाता सोना।।
पलटू कह रहे है: चूको मत,
दोबारा मौका मिले न मिले। संभावना तो यही है कि शायद ही मिले। बहुरि
न ऐसो दांव। अगर सदगुरु मिल जाए तो लुट जाओ। अगर सत्य के मिलने की कोई संभावना हो
तो सब गंवाने को राजी हो जाओ। तुम्हारे पास है भी क्या गंवाने को? क्या बचा रहे हो?
बहुरि न ऐसो दांव! कौन जाने फिर तुम मनुष्य हो सको दोबारा, न हो सको। कौन जाने मनुष्य
भी हो जाओ तो कोई बुद्ध, कोई कृष्ण, कोई
क्राइस्ट मिले न मिले। कौन जाने क्राइस्ट, बुद्ध, कृष्ण मिल भी जाएं तो तुम समझ पाओ, न समझ पाओ,
बात मन को आकर्षित करे न करे। क्या पता! आज चूक रहे हो, कल का भरोसा क्या? जैसे आज चूक रहे हो वैसे ही कल भी
चूकोगे, क्योंकि चूकने की आदत बन जाएगी।
बहुरि न ऐसो दांव
ओशो
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