मेरे प्रिय आत्मन्!
एक अत्यंत वीरानी पहाड़ी सराय में मुझे ठहरने का मौका मिला था।
संध्या सूरज के ढलते समय जब मैं उस सराय के पास पहुंच रहा था, तो उस वीरान घाटी में एक
मार्मिक आवाज सुनाई पड़ रही थी। आवाज ऐसी मालूम पड़ती थी जैसे किसी बहुत पीड़ा भरे
हृदय से निकलती हो। कोई बहुत ही हार्दिक स्वर में, बहुत दुख
भरे स्वर में चिल्ला रहा था: स्वतंत्रता, स्वतंत्रता,
स्वतंत्रता। और जब मैं सराय के निकट पहुंचा, तो
मुझे ज्ञात हुआ, वह कोई मनुष्य न था, वह
सराय के मालिक का तोता था, जो यह आवाज कर रहा था।
मुझे हैरानी हुई। क्योंकि मैंने तो ऐसा मनुष्य भी नहीं देखा जो
स्वतंत्रता के लिए इतने प्यास से भरा हो। इस तोते को स्वतंत्र होने की ऐसी कैसी
प्यास भर गई? निश्चित
ही वह तोता कैद में था, पिंजड़े में बंद था। और उसके प्राणों
में शायद मुक्त हो जाने की आकांक्षा अंकुरित हो गई थी।
उसके पिंजड़े का द्वार बंद था। मेरे मन में हुआ उसका द्वार खोल
दूं और उसे उड़ा दूं, लेकिन उस समय सराय का मालिक मौजूद था, और उसके कैदी
को मुक्त होना शायद वह पसंद न करता। इसलिए मैं रात की प्रतीक्षा करता रहा। रात आने
तक उस तोते ने कई बार वही आवाज स्वतंत्रता की, वही पुकार
लगाई। जैसे ही रात हो गई और सराय का मालिक सो गया, मैं उठा,
और मैंने जाकर उस तोते के पिंजड़े के द्वार खोल दिए। सोचा था मैंने,
द्वार खोलते ही वह उड़ जाएगा खुले आकाश में, लेकिन
नहीं, द्वार खुला रहा और वह तोता अपने पिंजड़े के सींकचों को
पकड़े हुए चिल्लाता रहा: स्वतंत्रता, स्वतंत्रता। तब मेरी कुछ
समझ में बात नहीं आई, क्या उसे खुला हुआ द्वार दिखाई नहीं पड़
रहा है? सोचा, शायद बहुत दिन की आदत के
कारण खुले आकाश से वह भयभीत होता हो। तो मैंने हाथ डाला और उस तोते को बाहर खींचने
की कोशिश की। लेकिन नहीं, उसने मेरे हाथ पर हमले किए,
चिल्लाता वह यही रहा: स्वतंत्रता, स्वतंत्रता।
लेकिन अपने पिंजड़ों के सींकचों को पकड़े रहा और छोड़ने को राजी न हुआ। बहुत कठिनाई
से उसे बाहर मैंने निकाल कर उड़ा दिया और यह सोच कर कि एक आत्मा मुक्त हुई, एक पिंजड़ा टूटा, एक कारागृह मिटा। मैं निश्चिंत होकर
सो गया।
सुबह जब मैं उठा तो मैंने देखा, वही आवाज फिर गूंज रही है। बाहर आया, देखता हूं, तोता अपने पिंजड़े में भीतर बैठा है,
सींकचे पकड़े हुए है, द्वार खुला है और वह
चिल्ला रहा है: स्वतंत्रता, स्वतंत्रता। तब बात बहुत बेबूझ
हो गई, समझ के बाहर हो गई, क्या यह
तोता स्वतंत्रता चाहता था या कि स्वतंत्रता की बात ऐसे ही पुकारे चले जा रहा था?
शायद यह स्वतंत्रता की बात भी उसने अपने मालिक से सीख ली थी। उसी
मालिक से जिसने उसे पिंजड़े में बंद किया हुआ था। शायद यह उसके अपने हृदय की आवाज न
थी। शायद उसके अपने प्राणों की प्यास न थी। उधार थी यह आवाज, अन्यथा उसका जीवन विपरीत नहीं हो सकता।
उस तोते को कभी नहीं भूल पाया हूं। और जब भी कोई मनुष्य मुझे
मिलता है तो उस तोते का स्मरण फिर दिला देता है।
हर आदमी मुक्त होने की कामना से प्रेरित दिखाई पड़ता है। हर आदमी
स्वतंत्र होने की आकांक्षा से उद्वेलित मालूम होता है। हरेक के प्राण में कारागृह
के बाहर निकल जाने की तीव्र अभीप्सा मालूम होती है। और हरेक का हृदय चिल्लाता रहता
है जीवन भर: स्वतंत्रता, स्वतंत्रता, स्वतंत्रता। लेकिन मैं बहुत हैरान हूं।
जो व्यक्ति यह स्वतंत्रता की पुकार लगाए जाता है वही पिंजड़ों के सींकचों को पकड़े
हुए है। उसके द्वार भी कोई खोल दे तो बाहर उड़ने को राजी नहीं है। ऐसी मनुष्य की
दशा है।
इस तोते की घटना से इसलिए ही शुरू करना चाहता हूं, सारी पृथ्वी पर मनुष्य की
दशा यही है। वे जो मुक्ति का आकाश खोजना चाहते हैं, मनुष्य द्वारा
निर्मित ही कारागृहों में बंद हैं। वे जो स्वतंत्रता की उड़ान भरना चाहते हैं,
अपने ही हाथों से बनाई हुई दीवालों में कैद हैं। वे जिनके प्राण गीत
गाते हैं मुक्ति के, उनके हाथ उनकी ही जंजीरों को निर्मित
करते रहते हैं। और इसका हमें कभी स्मरण भी नहीं हो पाता, इसका
हमें कभी बोध भी नहीं हो पाता, अगर हमारी परतंत्रता किसी और
के द्वारा निर्मित होती तो भी यह एक बात थी, हम खुद ही उसके
निर्माता और स्रष्टा हैं।
अंतर की खोज
ओशो
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