कबीर गुरु का नाम तो लेते ही नहीं। गुरु का कोई नाम होता भी नहीं। गुरु चेतना की एक दशा है। नाम जानना चाहो तो कबीर के गुरु रामानंद थे। लेकिन कबीर उसका नाम भी कभी लेते नहीं हैं। सिर्फ एकाध जगह कहा हैः "रामानंद चेताये।" बाकी साधारणतः वे नाम भी नहीं लेते कि कौन गुरु हैं। प्रश्न है ही नहीं कि कौन गुरु हैं।
गुरु तो एक पद है, एक चैतन्य की दशा है, एक अवस्था है, और गुरु तो एक संबंध है, शिष्य का एक भाव है और शिष्य की एक आंतरिक निकटता है, सामीप्य है।
गुरु शिष्य का एक अनुभव है।
तो वे जो कहते हैं बार-बार, गुरु के प्रसाद से मिला, गुरु के प्रसाद से मिला--वे यह कह रहे हैं कि मेरे प्रयास से नहीं मिला। इसमें किस गुरु के प्रसाद से मिला, यह गौण है। गुरु के प्रसाद से मिला, "प्रसाद" से मिला, यह महत्त्वपूर्ण है। सारी एम्फेसिस, सारा जोर प्रसाद पर है। किस गुरु के प्रसाद से मिला, यह फिजूल की बात है। किस नदी में तुमने पानी पीया और प्यास बुझायी, यह कोई अर्थ की बात है? किस कुएं पर पानी पीया, उसका नाम याद रखने की क्या जरूरत है? लेकिन एक बात पक्की है कि कुएं से प्यास बुझी। बस उतना कहना जरूरी है।
इसलिए कबीर कहते हैं : गुरु-प्रसाद से सब हुआ। जोर इस बात का है कि अपनी चेष्टा से जो न हो पाया, वह उसकी कृपा से हुआ। और गुरु तो एक ही है। अब इसे थोड़ा समझना मुश्किल होगा।
समझो, बुद्ध हैं और उनका एक शिष्य है सारिपुत्र। सारिपुत्र समर्पित हो गया, शिष्य हो गया। जैसे ही सारिपुत्र शिष्य हुआ, सारिपुत्र मिट गया, शिष्य रह गया। शिष्य का मतलब होता है, जो सीखने को तैयार हो। और सीखने को वही तैयार हो सकता है जो सारिपुत्र न रह गया हो। क्योंकि सारिपुत्र का तो मतलब होता है अतीत, कल, तो कुछ जाना, समझा, बूझा, जो-जो सिर पर बोझ लेकर आया, वही सारिपुत्र। वह तो मिट गया, शिष्य रह गया, खाली रह गया, एक शून्य, एक कोरा कागज--कि लिखो, जो लिखना हो लिख दो; अब मेरी तरफ से कोई लिखावट न बची।
और जब शिष्य इतना खाली हो जाता है नाम-रूप से, तो उसे बुद्ध में भी नाम-रूप थोड़ी दिखाई पड़ती है फिर! तुम्हें अपना नाम मालूम होता है तो गुरु का भी नाम दिखाई पड़ता है। तुम्हें अपना रूप दिखाई पड़ता है तो गुरु का भी रूप दिखाई पड़ता है। जिस दिन तुमने अपना नाम-रूप छोड़ दिया उस दिन तुम्हें गुरु में वह अखंड ज्योति दिखाई पड़ती है, जिसका कोई नाम-रूप नहीं है। वह तो ऊपर की खोल है बुद्ध अब। वह जो गौतम सिद्धार्थ है, वह जो ऊपर की खोल है। उसके लिए थोड़े ही समर्पण किया है। समर्पण तो भीतर की ज्योति के लिए किया है, जिसका कोई नाम नहीं है। वह है गुरु।
और जब यह प्रसाद बटेगा, जब इस ज्योति का तुम्हारी भीतर की ज्योति से मिलन होगा। कबीर कहते हैं : ज्योति में ज्योति समानी--वह ज्योति ज्योति में समाएगी, जब तुम्हारा बुझा दीया अचानक जल उठेगा। एक लपक--और गुरु की ज्योति तुममें समा जाएगी, और तुम शिष्य न रह जाओगे, तुम स्वयं भी गुरु जैसे हो गए, गुरु हो गए--उस घड़ी में तुम क्या कहोगे--बुद्ध की कृपा से? वह ठीक न होगा, क्योंकि वह तो गुरु का एक नाम हो गया गुरु की कृपा से!
फिर रामानंद के पास कबीर बैठा है। फिर कबीर समर्पित हो गया। अब रामानंद भी रामानंद न रहे; वही अखंड ज्योति भीतर जलने लगी, जो सारिपुत्र को गौतम बुद्ध में दिखाई पड़ी। वही कबीर को रामानंद में दिखाई पड़ी। वही अनंत-अनंत काल में अनंत-अनंत शिष्यों को अनंत-अनंत गुरुओं में दिखाई पड़ी। वह ज्योति एक है; वह जैसे ही शिष्य खोता है, वह अनुभव में आ जाती है, दिखाई पड़ने लगती है, प्रतीत होने लगती है।
हजारों शिष्य हुए, हजारों गुरु हुए; लेकिन घटना तो एक ही है--वह शिष्य और गुरु के बीच समान घटती है। उसका कोई भेद ही नहीं पड़ता। हजारों कंठ, हजारों प्यासे कंठ, हजारों कुएं--और जब पानी गले में कंठ से मिलता है तो प्यास बुझती है, जो तृप्ति होती है, वह तो एक ही है। उसका क्या कोई नाम है?तुम्हारे कंठ में जब प्यास लगती है और पानी की बूंद जाती है तो तुम सोचते हो, कोई अलग तरह की तृप्ति होती है जैसा किसी दूसरे को नहीं होती? वही तृप्ति है। कंठ होंगे अलग-अलग, प्यास तो एक है। जल के घाट होंगे अलग-अलग, जलधार तो एक है, जल का स्वभाव तो एक है। और जब जल और प्यास का मिलन होता है तो जो तृप्ति होती है, उसका स्वभाव कैसे भिन्न हो सकता है?
तो, जो सारिपुत्र को अनुभव हुआ बुद्ध के पास, जो गौतम को अनुभव हुआ महावीर के पास, जो ल्यूक को मैथ्यू को अनुभव हुआ जीसस के पास, जो अली को अनुभव हुआ मुहम्मद के पास, वही कबीर को अनुभव हुआ रामानंद के पास।
नामरूप की बात सब व्यर्थ है।
मेरा मुझ में कुछ नहीं
ओशो
No comments:
Post a Comment