प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण है, और ठीक से समझने योग्य है। साधारणत: हम जो भी जानते हैं, जो भी करते हैं, जो भी प्रयत्न होगा, वह सब चित्त से होगा, मन से होगा, माइंड से होगा। अगर आप राम—राम जपते हैं, तो जपने की क्रिया मन से होगी। अगर आप मंदिर में पूजा करते हैं, तो पूजा करने की क्रिया मन का भाव होगी। अगर आप कोई ग्रंथ पढ़ते हैं, तो पढ़ने की क्रिया मन की होगी। और आत्मा को जानना हो, तो मन के ऊपर जाना होगा। मन की कोई क्रिया मन के ऊपर नहीं ले जा सकती है। मन की कोई भी क्रिया मन के भीतर ही रखेगी।
स्वाभाविक है कि मन की किसी भी क्रिया से, जो मन के पीछे है, उससे परिचय नहीं हो सकता। यह पूछा है, यह जो साक्षीभाव है, क्या यह भी मन की क्रिया होगी? नहीं, अकेली एक ही क्रिया है, जो मन की नहीं है, और वह साक्षीभाव है। इसे थोड़ा समझना जरूरी है।
और केवल साक्षीभाव ही मनुष्य को आत्मा में प्रतिष्ठा दे सकता है, क्योंकि वही हमारे जीवन में एक सूत्र है, जो मन का नहीं है, मांइड का नहीं है।
आप रात को स्वप्न देखते हैं। सुबह जागकर पाते हैं कि स्वप्न था, और मैंने समझा कि सत्य है। सुबह स्वप्न तो झूठा हो जाता है, लेकिन जिसने स्वप्न देखा था, वह झूठा नहीं होता। उसे आप मानते हैं कि जिसने देखा था वह सत्य था, जो देखा था वह स्वप्न था। आप बच्चे थे, अब युवा हो गये। बचपन तो चला गया, युवापन आ गया। युवावस्था भी चली जायेगी,
बुढ़ापा आ जायेगा। लेकिन जिसने बचपन को देखा, युवावस्था को देखा, बुढ़ापे को देखेगा,
वह न आया, न गया; वह मौजूद रहा। सुख आता है, सुख चला जाता है; दुःख आता है, दुःख चला जाता है। लेकिन जो दुःख को देखता है और सुख को देखता है, वह मौजूद बना रहता है।
तो हमारे भीतर दर्शन की जो क्षमता है, वह सारी स्थितियों में मौजूद बनी रहती है। साक्षी का जो भाव है, वह हमारी जो देखने की क्षमता है, वह मौजूद बनी रहती है। वही क्षमता हमारे भीतर अविच्छिन्न रूप से, अपरिवर्तित रूप से मौजूद है। आप बहुत गहरी नींद में हो जाएं, तो भी सुबह कहते हैं, रात बहुत गहरी नींद आयी, रात बड़ी आनंदपूर्ण निद्रा हुई। आपके भीतर किसी ने उस निंद्रापूर्ण अनुभव को भी जाना। उस आनंदपूर्ण सुषुप्ति को भी जाना। तो आपके भीतर जाननेवाला, देखनेवाला जो साक्षी है, वह सतत मौजूद है।
मन सतत परिवर्तनशील है, और साक्षी सतत अपरिवर्तनशील है। इसलिए साक्षीभाव मन का हिस्सा नहीं हो सकता। और फिर, मन की जो—जो क्रियाएं हैं, उनको भी आप देखते हैं। आपके भीतर विचार चल रहे हैं, आप शांत बैठ जायें, आपको विचारों का अनुभव होगा कि वे चल रहे हैं; आपको दिखायी पड़ेंगे, अगर शांत भाव से देखेंगे तो विचार वैसे ही दिखाई पड़ेंगे, जैसे रास्ते पर चलते हुए लोग दिखायी पड़ते हैं। फिर अगर विचार शून्य हो जायेंगे, विचार शांत हो जायेंगे, तो यह दिखायी पड़ेगा कि विचार शांत हो गये हैं, शून्य हो गये हैं; रास्ता खाली हो गया है। निश्चित ही जो विचारों को देखता है, वह विचार से अलग होगा। वह जो हमारे भीतर देखने वाला तत्व है, वह हमारी सारी क्रियाओं से, सबसे भिन्न और अलग है।
जब आप श्वास को देखेंगे,
श्वास को देखते रहेंगे,
देखते—देखते श्वास शांत होने लगेगी। एक घड़ी आयेगी, आपको पता ही नहीं चलेगा कि श्वास चल भी रही है या नहीं चल रही है। जब तक श्वास चलेगी, तब तक दिखायी पड़ेगा कि श्वास चल रही है; और जब श्वास नहीं चलती हुई मालूम पड़ेगी, तब दिखाई पड़ेगा कि श्वास नहीं चल रही है लेकिन दोनों स्थितियों में देखने वाला पीछे खड़ा हुआ है।
यह जो साक्षी है, यह जो विटनेस है, यह जो अवेयरनेस है पीछे, बोध का बिंदु है : यह बिंदु मन के बाहर है; मन की क्रियाओं का हिस्सा नहीं है। क्योंकि मन की क्रियाओं को भी वह जानता है। जिसको हम जानते हैं, उससे अलग हो जाते हैं। जिसको भी आप जान सकते हैं, उससे आप अलग हो सकते हैं; क्योंकि आप अलग हैं ही। नहीं तो उसको जान ही नहीं सकते। जिसको आप देख रहे हैं, उससे आप अलग हो जाते हैं, क्योंकि जो दिखायी पड़ रहा है, वह अलग होगा और जो देख रहा है, वह अलग होगा।
चल हंसा उस देश
ओशो
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