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Saturday, November 7, 2020

होश आत्मा का दीया है, वही ध्यान है।

 

एक फकीर था। एक युवक उसके पास गया और उसने कहा कि मैं तो चोर हूं, मैं तो बेईमान हूं, मैं तो झूठ बोलने वाला हूं, लेकिन मैं भी परमात्मा को पाना चाहता हूं--मैं क्या करूं? और मैं जिस साधु के पास गया उसने कहाः पहले झूठ छोड़ो, पहले बेईमानी छोड़ो, फिर मेरे पास आना।

उस फकीर ने कहाः तुम गलत लोगों के पास पहुंच गए, जिन्हें कुछ भी पता नहीं। तुम ठीक ही हुआ कि यहां आ गए और मैं खुश हूं कि तुम यह स्वीकार करते हो--तुम चोर हो, तुम बेईमान हो। यह धार्मिक आदमी का पहला लक्षण है कि वह स्वीकार करता है कि वह चोर है, वह बेईमान है, वह झूठ बोलता है। अब कुछ हो सकता है। तुम्हारी तैयारी पूरी है। लेकिन इन्हें छोड़ना मत, छोड़ने की फिकर में मत पड़ जाना, नहीं तो छोड़ने की फिकर में ये बच जाएंगे; फिर तुम भागते रहोगे, और ये बचे रहेंगे। जब तुम रुकोगे, तब तुम पाओगे कि ये मौजूद हैं। ये कहीं भी नहीं जाएंगे, क्योंकि तुम अपने को छोड़ कर कहां भाग सकते हो?

उसने एक छोटी सी कहानी उस युवक को कही। उसने कहा कि एक आदमी एक दूसरे गांव के दरवाजे पर पहुंचा। उस गांव के दरवाजे पर एक बूढ़ा आदमी बैठा था, उसने उससे पूछा कि इस गांव के लोग कैसे हैं?

उस बूढ़े ने कहाः मैं ये पूछूं कि आप किसलिए ये पूछते हैं? क्या यहां बसना चाहते हैं? यदि बसना चाहते हैं तो ये बताएं कि आप जिस गांव को छोड़ कर आ रहे हैं, वहां के लोग कैसे थे?

आदमी ने कहाः उस गांव के लोगों का नाम भी मत लो। वैसे दुष्ट, वैसे पाजी लोग इस सारे संसार में कहीं भी नहीं हैं।

उस बूढ़े ने कहा: तब आप किसी और गांव में बसें। आप पाएंगे इस गांव के लोग, उस गांव से भी ज्यादा दुष्ट हैं। यह तो बहुत ही खराब गांव है। मेरा अनुभव यह है कि इस गांव जैसे आदमी, उस गांव में भी न होंगे। तुम जाओ कहीं और बस जाना। वह हटा, उसके पीछे एक दूसरा आदमी पहुंचा।

उसने भी पूछा कि मैं इस गांव में बसना चाहता हूं--उस बूढ़े आदमी से। इस गांव के लोग कैसे हैं?

उस बूढ़े ने कहा कि पहले मैं यह पूछ लूं कि तुम जिस गांव से आते हो उस गांव के लोग कैसे थे?

उसने कहाः उनका तो नाम ही मेरे हृदय को आनंद से भर देता है। उतने भले लोगों को छोड़ कर मजबूरी में मुझे आना पड़ा, इसके लिए मेरा हृदय सदा दुखी रहेगा।

उस बूढ़े ने कहाः आओ, तुम्हारा स्वागत है। तुम पाओगे इस गांव के लोग तो उस गांव से भी बेहतर हैं। इस गांव जैसे अच्छे लोग तो हैं ही नहीं जमीन पर।

उस फकीर ने उस युवक को कहा: यह कहानी मैं तुमसे कहता हूं, तुम कहीं भी भाग जाओ, तुम कहीं भी चले जाओ, तुम अपनों को छोड़ कर नहीं जा सकते। तुम जो हो, वह तुम्हारे साथ है। और उसकी शक्ल तुम्हें दूसरे लोगों में दिखाई पड़ती है--और क्या दिखाई पड़ता है!

आप, सब, मैं, आप एक दूसरे के लिए दर्पण हैं, एक दूसरे में अपनी शक्ल झांक लेते हैं।

तो तुम कहीं भी चले जाओ, तुम अपने से भाग नहीं सकते। लेकिन एक काम करना, तुम अपने प्रति जाग सकते हो। तो तुम एक काम करना कि जब भी तुम्हारे मन में चोरी का, बेईमानी का खयाल आए तो तुम होश से करना, चोरी करना होश से करना, किसी का ताला तोड़ने जाओ, तो बेहोशी में मत तोड़ना, पूरे होश से कि मैं ताला तोड़ रहा हूं, चोरी कर रहा हूं--सजगता से ताले को तोड़ना। जैसे ही मूच्र्छा आ जाए, वहीं ताला छोड़ देना। होश आए, फिर ही ताला खोलना; मूच्र्छा में ताला मत खोलना। पूरी तरह से जागे हुए हो कि ताला तोड़ना। जागे हुए को में तिजोरी से रुपये निकालना।

वह युवक पंद्रह दिन बाद लौटा। उसने कहाः यह तो बड़ी मुसीबत हो गई। जब मैं पूरे होश से भरा होता हूं तो मेरा हाथ रुपये उठाने को नहीं बढ़ता है। और जब मैं बेहोश होता हूं तो हाथ बढ़ता है। और आपने तो बड़ी मुश्किल कर दी। मैं दो दिन बहुत बढ़िया खजाने छोड़ कर आया। तोड़ ली थी दीवालेें, पहुंच गया था, तिजोरियां खोल ली थीं--हाथ उठाता था, ख्याल आता था कि चोरी होशपूर्वक करनी है। होश जैसे ही जगता था, चोरी विलीन हो जाती थी।

जैसे हम यहां दीया जलाते हैं तो अंधेरा विलीन हो जाता है, दीये के साथ अंधेरा विलीन हो जाता है। दीया बुझा दें, अंधेरा आ जाता है। ठीक वैसे ही होश जगाएं, सारी विकृति विलीन हो जाती हैं। दीया बुझा दें, विकृति लौट आती है। होश आत्मा का दीया है, वही ध्यान है। उसी को मैं मेडिटेशन कहता हूं। होश ध्यान है। निरंतर अपने जीवन के सारे तथ्यों के प्रति जागे हुए होना ध्यान है। वही दीया है, वही ज्योति है; उसको जगा लें और फिर देखें--पाएंगे, अंधेरा क्रमशः विलीन होता चला जा रहा है।

एक दिन आप पाएंगे अंधेरा है ही नहीं, एक दिन आप पाएंगे, आपके सारे प्राण प्रकाश से भर गए; और एक ऐसे प्रकाश से जो अलौकिक है; एक ऐसे प्रकाश से जो परमात्मा का है; एक ऐसे प्रकाश से जो इस लोक का नहीं, इस समय का नहीं, इस काल का नहीं--जो कहीं दूरगामी, किसी बहुत केंद्रीय तत्व से आता है और उसके आलोक में ही जीवन नृत्य से भर जाता है, संगीत से भर जाता है। तभी शांति है, तभी सत्य है। उसके पूर्व सब भटकन है, सब अंधेरा है। उस अंधेरे में आप कुछ भी करें, कुछ भी न होगा। दीये को जलाएं--फिर दीया ही कुछ करेगा। दीये को जलाएं--फिर दीया ही कुछ करेगा। ज्योति को जगाएं--होश की, फिर होश ही कुछ करेगा। होश क्रांति ले आता है।

कल मैंने कुछ तोड़ने की बात कही। आज कुछ आपसे बनाने की बात कही। अगर तोड़ने और बनाने का साहस जिस व्यक्ति में है, वह कभी भी अपने जीवन को एक अदभुत जीवन में परिवर्तित कर सकता है।

परमात्मा करे, आपका जीवन एक ज्योति बने--एक जीती हुई ज्योति। आपके लिए ही केवल ये जरूरी नहीं है, इस वक्त सारा मनुष्य संकट में है। सारा मनुष्य पीड़ा में है। अगर बहुत से लोगों के हृदय जग जाएं और ज्योति बन जाएं, तो इस सारे जगत से अंधकार दूर हो सकता है। एक नई संस्कृति पैदा हो सकती है--जो धार्मिक होगी।

अभी तक कोई धार्मिक संस्कृति पैदा नहीं हो सकी। अभी वस्तुतः धर्म ही पैदा नहीं हो सका। अभी धर्म के नाम से चर्च पैदा हुए, संप्रदाय पैदा हुए; अभी धर्म पैदा नहीं हुआ। अभी मनुष्य के हृदय में धर्म की ज्योति नहीं जगी, अभी समय है। और बहुत लोगों को श्रम करना होगा। उनके खुद के हित में भी, और सारे मनुष्य के हित में भी, उसमें ही कल्याण है। अगर हम एक संस्कृति को पैदा कर सकें--जो कि धार्मिक हो। वह कैसी होगी? धार्मिक मन से होगी। धार्मिक मन कौन सा है? जिसके भीतर होश की ज्योति जगी है, वह धार्मिक मन है।

 

धर्म की यात्रा 

 

ओशो

जगत अनित्य है।

 


अनित्य का अर्थ होता है, जो है भी और प्रतिक्षण नहीं भी होता रहता है। अनित्य का अर्थ नहीं होता कि जो नहीं है। जगत है, भलीभांति है। उसके होने में कोई संदेह नहीं है। क्योंकि यदि वह न हो, तो उसके मोह में, उसके भ्रम में भी पड़ जाने की कोई संभावना नहीं। और अगर वह न हो, तो उससे मुक्त होने का कोई उपाय नहीं।

 

जगत है। उसका होना वास्तविक है। लेकिन जगत नित्य नहीं है, अनित्य है। अनित्य का अर्थ है, प्रतिपल बदल जाने वाला है। अभी जो था, क्षणभर बाद वही नहीं होगा। क्षणभर भी कुछ ठहरा हुआ नहीं है।

 

इसलिए बुद्ध ने कहा है : जगत क्षण सत्य है। बस, क्षणभर ही सत्य रह पाता है। हेराक्लतु ने यूनान में कहा है, यू कैन नाट स्टेप ट्वाइस इन द सेम रिवर, एक ही नदी में दो बार उतरना संभव नहीं है। नदी बही जा रही है। ठीक ऐसे ही कहा जा सकता है, यू कैन नाट लुक ट्वाइस द सेम वर्ल्ड, एक ही जगत को दोबारा नहीं देखा जा सकता। इधर पलक झपकी नहीं कि जगत दूसरा हुआ जा रहा है।

 

इसलिए बुद्ध ने तो बहुत अदभुत बात कही है। बुद्ध ने कहा कि है शब्द गलत है। है का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए। सभी चीजें हो रही हैं। है की अवस्था में तो कोई भी नहीं है। जब हम कहते हैं, यह व्यक्ति जवान है, तो है का बड़ा गलत प्रयोग हो रहा है। बुद्ध कहते थे, यह व्यक्ति जवान हो रहा है। गति है, प्रोसेस है। स्थिति कहीं भी नहीं है। एक आदमी को हम कहते हैं, यह का है। कहने से ऐसा लगता है कि का होना कोई स्थिति है, जो ठहर गई है, स्टेगनेंट है। नहीं, बुद्ध कहते थे, यह आदमी का हो रहा है। है की कोई अवस्था ही नहीं होती। सब अवस्थाएं होने की हैं।

 

पहली बार जब बाइबिल का अनुवाद बर्मी भाषा में किया जा रहा था, तो बहुत कठिनाई हुई। क्योंकि बर्मी भाषा बर्मा में बौद्ध धर्म के पहुंचने के बाद धीरेधीरे विकसित हुई है, तो बौद्ध चिंतन की जो आधारशिलाएं हैं, वे बर्मी भाषा में प्रवेश कर गईं। तो बर्मी भाषा में 'है' शब्द के लिए कोई ठीकठीक शब्द नहीं है। जो भी शब्द हैं, उनका मतलब होता है, हो रहा है। अगर कहें नदी है, तो बर्मी भाषा में उसका जो रूपांतरण होगा, वह होगा कि नदी हो रही है। और सब तो ठीक था, लेकिन बाइबिल के अनुवाद करने में ईश्वर का क्या करें? गॉड इज, ईश्वर है। बर्मी भाषा में करें, तो उसका हो जाता है कि ईश्वर हो रहा है। बड़ी अड़चन थी।

 

और बुद्ध कहते थे, कुछ भी नहीं है, सब हो रहा है। और ठीक कहते थे। यह वृक्ष आप देखते हैं; हम कहेंगे, वृक्ष है। जब तक आप कह रहे हैं, तब तक वृक्ष हो गया कुछ और। एक नई कोंपल निकल आई होगी। एक पुरानी कोंपल और पुरानी पड़ गई होगी। एक फूल थोड़ा और खिल गया होगा। एक गिरता फूल गिर गया होगा। जड़ों ने नए पानी की बूंदें सोख ली होंगी, पत्तों ने सूरज की नई किरणें पी ली होंगी। जब आप कहते हैं, वृक्ष है, जितनी देर आपको कहने में लगती है, उतनी देर में वृक्ष कुछ और हो गया। है जैसी कोई अवस्था जगत में नहीं है। सब हो रहा हैजस्ट ए प्रोसेस।

 

उपनिषद यही कह रहे हैं।

उपनिषद का ऋषि कह रहा है, जगत अनित्य है

 

नित्य कहते हैं उसे, जो है, सदा है। जिसमें कोई परिवर्तन कभी नहीं, जिसमें कोई रूपांतरण नहीं होता। जो वैसा ही है, जैसा सदा था और वैसा ही रहेगा।

 

निर्वाण उपनिषद 

 

ओशो

Friday, September 25, 2020

भगवान, मैं प्रार्थना में बैठता हूं तो बस चुप रह जाता हूं। प्रभु से क्या कहूं, क्या न कहूं, कुछ भी सूझता नहीं है। फिर सोचता हूं कि यह कैसी प्रार्थना! आप मार्ग दिखावें।



प्रार्थना भाव है। और भाव शब्द में बंधता नहीं। इसलिए प्रार्थना जितनी गहरी होगी उतनी निःशब्द होगी। कहना चाहोगे बहुत, पर कह न पाओगे। प्रार्थना ऐसी विवशता है, ऐसी असहाय अवस्था है। शब्द भी नहीं बनते। आंसू झर सकते हैं। आंसू शायद कह पाएं लेकिन नहीं कह पाएंगे कुछ। पर शब्दों पर हमारा बड़ा भरोसा है। उन्हीं के सहारे हम जीते हैं। हमारा सारा जीवन भाषा है।






तो स्वभावतः प्रश्न उठता है कि परमात्मा के सामने भी कुछ कहें। जैसे कि परमात्मा से भी कुछ कहने की जरूरत है! हां, किसी और से बोलोगे तो बिना बोले न कह पाओगे। किसी और से संबंधित होना हो तो संवाद चाहिए।



परमात्मा से संबंधित होना हो तो शून्य चाहिए। संवाद नहीं, वहां मौन ही भाषा है। जो कहने चलेगा, चूक जाएगा। जो न कह पाएगा वही कह पाएगा।



इसे खूब गहराई से हृदय में बैठ जाने दो; नहीं तो बस तोतों की तरह रटे हुए शब्द दोहराओगे। कोई गायत्री पढ़ेगा, कोई नमोकार पढ़ेगा। ओंठ तो दोहराते रहेंगे मंत्रों को और भीतर भीतर कुछ भी न होगा, क्योंकि भीतर कुछ होता तो ओंठ चुप हो जाते। भीतर कुछ होता तो कहां गायत्री, कहां नमोकार, कहां कुरान! कब के खो गए होते! भीतर शून्य होता, शब्दों को पी जाता। भीतर शून्य होता, शब्द शून्य में लीन हो जाते। जब तक गायत्री न भूले, गायत्री पूरी न होगी। जब तक नमोकार याद रहा तब तक नमोकार याद ही नहीं। जब तक कुरान की आयत तुम दोहराते रहे तब तक जानना अभी कुरान के जगत् से तुम्हारा संबंध नहीं हुआ। वह तो उतरता है शून्य में, वह तो बोलता है मौन में।

परमात्मा से तो केवल एक ही नाता बन सकता है हमारा, एक ही सेतु--वह है, चुप्पी का। परमात्मा और कोई भाषा जानता नहीं। जमीन पर तो हजारों भाषाएं बोली जाती हैं। फिर एक ही जमीन नहीं है। वैज्ञानिक कहते हैं, कम-से-कम पांच हजार जमीनों पर जीवन होना चाहिए। होना ही चाहिए पांच हजार पर तो। इससे ज्यादा पर हो सकता है, कम पर नहीं। फिर उन जमीनों पर और हजारों-हजारों भाषाएं होंगी। इन सारी भाषाओं को परमात्मा जानेगा भी तो कैसे जानेगा? एक ही भाषा तो विक्षिप्त करने को काफी होती है। इतनी भाषाएं, एक अकेला परमात्मा! बहुत बोझिल हो जाएंगी।



भाषा सामाजिक घटना है, भाषा नैसर्गिक घटना नहीं है। भाषा प्राकृतिक घटना नहीं है, मनुष्य की ईजाद है। बड़ी ईजाद है, महत्त्वपूर्ण ईजाद है, पर प्रार्थना के जगत् में उसका कोई उपयोग नहीं है। जैसे नाव को पानी में चलाओ तो ठीक, जमीन पर घसीटो तो पागल हो। नाव पानी में ठीक है, जमीन पर खींचोगे तो व्यर्थ बोझ ढोओगे। ऐसे ही भाषा को प्रार्थना में मत ले जाओ। नाव को जमीन पर मत खींचो। भाषा को छोड़ दो। और तुम सौभाग्यशाली हो। यह अपने से हो रहा है। यह किए-किए नहीं होता।



तुम पूछते हो मैं प्रार्थना में बैठता हूं तो बस चुप रह जाता हूं। यही तो प्रार्थना है। पहचानो, प्रत्यभिज्ञा करो, यही प्रार्थना है। यह चुप हो जाना ही प्रार्थना है। मैं तुम्हारी अड़चन समझता हूं। तुम सोचते होओगे गायत्री पढ़ूं, नमोकार पढ़ूं, कुरान पढ़ूं, कुछ कहूं। प्रभु की स्तुति करूं। कुछ प्रशंसा करूं परमात्मा की। कुछ निवेदन करूं हृदय का। और नहीं कर पाते हो निवेदन; जैसे जबान पर जंजीर पड़ गयी, जैसे ओंठ किसी ने सी दिए। तो चिंता उठती है, यह कैसी प्रार्थना! न बोले न चाले, तो उस तक आवाज कैसे पहुंचेगी? उस तक आवाज पहुंचाने की जरूरत ही नहीं है। 


दूलनदास ने कहा न अभी कुछ दिन पहले कि वह परमात्मा बहरा नहीं है! तुम चिल्लाओ इसकी कोई जरूरत नहीं है। सच तो यह है, इसके पहले कि भाव तुम्हारे हृदय में उठे, उस तक पहुंच जाता है। इसके पहले कि प्रार्थना की जाए, सुन ली जाती है। कहने का उपाय ही नहीं है। कहने के पहले ही बात पहुंच गयी। होनी चाहिए बात, हृदय में भाव होना चाहिए सघन, प्रेमसिक्त! तुम भाव से मग्न होकर मौन रह जाओ, प्रार्थना हो गयी। उसी मौन में निवेदन हो जाएगा। वही मौन निवेदन है। उस मौन में ही जो नहीं कहा जा सकता, नहीं कभी कहा गया है, नहीं कभी कहा जाएगा--कह दिया जाएगा।


प्रेम-रंग-रस ओढ़ चदरिया


ओशो


संबोधि का स्वप्न





अभी उस दिन ही मैं एक सुंदर कथा पढ़ रहा था:

एक पादरी के पास एक तोता था और उसे बोलना सिखाने के हर संभव प्रयत्न और प्रयास के बाद भी वह तोता चुप ही रहा। इस बात का जिक्र पादरी ने एक दिन एक वृद्धा से किया, जो उस से मिलने के लिए आई थी। उसे वृद्धा को कुछ दिलचस्पी हुई इस बात में और उसने तुरंत कहा: ‘मेरे पास भी एक तोता है जो कि बोलता नहीं। यह अच्छा रहेगा यदि हम इन दोनों पक्षियों को साथ-साथ रख दें और फिर देखे कि क्या होता है।

और फिर उन दोनों ने ऐसा ही किया। दोनों तोतो को एक बड़े पींजड़े में रख दिया गया, और दोनों कुछ दूरी पर जाकर बैठ गए जहां से वह उनकी बात को सून सके। शुरू में तो कुछ देर शांति छाई रही, उसके बाद कुछ पंख पड़फड़ाने की आवाज आई, और फिर वृद्ध महिला के तोते को कहते सूना गया, ‘कुछ थोड़ा सा प्रेम-श्रेम के विषय में क्या इरादा है, प्रिय आपका? जिसके उत्तर में पादरी के तोते ने कहा, ‘इसी सबके लिए तो मैं वर्षों से मौन प्रतीक्षा और प्रार्थना करता आया हूं--आज मेरा सपना पूरा हुआ। आज मैं बोल सकता हूं।’

यदि तुम प्रेम और प्रसिद्धि के लिए प्रतीक्षा और प्रार्थना कर रहे हो, सपने देख रहे हो, एक दिन यह घटना घटेगी ही। यह कोई मुश्किल बात नहीं है। बस जरा सी हठधर्मिता चाहिए...और यह होता है। व्यक्ति बस प्रयत्न करता जाए, करता ही चला जाए...यह घटेगी ही, क्योंकि यह तुम्हारा सपना है। आखिर तुम कोई न कोई ऐसा स्थान पा ही लोगे जहां तुम इसका प्रक्षेपण कर सको और तुम इसे देख सकते हो, और मानों कि यह सच ही हो गया है।

जब तुम किसी स्त्री या पुरुष के प्रेम में पड़ते हो, तुम सच में कर क्या रहे हो? तुम एक सपना अपने भीतर संजो रहे हो, उस सपने को लिए चल रहे हो, अब अचानक यह स्त्री एक पर्दे का काम करती है। और आप को लगता है कि आपका स्वप्न पूरा हुआ है। यदि तुम सपने देखते ही जाओ, एक न एक दिन तुम्हें कोई पर्दा मिल ही जाएगा, कोई न कोई तुम्हारे लिए पर्दा बन ही जाएगा और तुम्हारा सपना वहां चित्रित बन उभर आयेगा। एक सजीव सी प्रतिछाया मात्र।

परंतु संबोधि कोई सपना नहीं है। यह तो सब सपनों को छोड़ना है। इसलिए कृपया संबोधि के विषय में सपना मत देखो। प्रेम सपने के द्वारा संभव है, सच तो यह है कि यह केवल सपने के द्वारा ही देखा जा सकता है, उसी के द्वारा ही संभव है। प्रेम स्वप्नदर्शियों के लिए ही है। परंतु संबोधि सपने के द्वारा संभव नहीं है--सपने के कारण ही तो यह असंभव हो जाती है।

संबोधि का सपना देखा और आप इससे चुकते चले जाते हो। इसके लिए प्रतीक्षा करो और तुम इससे चूक जाओगे। फिर तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें करना यह चाहिए कि तुम सपने की कार्य विधि को ठीक से समझ लो। तुम संबोधि को तो अलग ही उठा कर रख दो। यह तुम्हारा काम नहीं है। तुम तो बस सपनों की कार्य प्रणाली को ठीक से समझ लो। और तुम यह देखो कि सपने किस से काम करते हैं। उसकी समझ ही तुम्हारे भीतर एक तरह की स्पष्टता लाएगी। उस स्पष्टता में तुम्हारे सपने धीरे-धीरे कम होते चले जाएंगे, और एक दिन वह अदृश्य हो जाते है।

जब सपना नहीं होता, हमारा मन सफटिक परदर्शी होता है, हमारी आंखें निर्मल हाती है, तब संबोधि का कमल खिलता है। 

 

तंत्र विज़न 

 

ओशो 

 

 

Monday, August 24, 2020

आंख विश्वास से बंद हैं

 एक बहुत बड़ा विचारक था। वह एक दिन सुबह-सुबह अपने गांव के तेली के घर तेल खरीदने गया था। उसने तेल खरीदा। तब तक तेल तेली तौल रहा था, वह देखता रहा कि उसके पीछे ही तेली का कोल्हू चल रहा था। बैल की आंखों पर पट्टियां बंधी थीं और वह बैल कोल्हू को चला रहा था। कोई चलाने वाला नहीं था। उसने उस तेली को पूछाः कोई चला नहीं रहा है, फिर भी ये बैल चल रहा है, बात क्या है? उस तेली ने बड़े मतलब की बात कही। उसने कहाः देखते नहीं हैं, उसकी आंखें हमने बंद कर रखी हैं। जब आंख बंद होती है तो बैल को पता ही नहीं चलता कि कोई चला रहा है कि नहीं चला रहा है। आंख खुली हो तो बैल पता लगा लेगा कि कोई नहीं चला रहा है, तो वह खड़ा हो जाएगा।

उस विचारक ने पूछाः लेकिन अगर वह खड़ा हो जाए, तो तुम्हें कैसे पता चलेगा? तुम तो पीठ किए बैठे हुए हो। उसने कहाः उसके गले में हमने घंटी बांध रखी है। चलता है घंटी बजती रहती है, जैसे ही घंटी रुकती, हम फिर उसे चला देते हैं। उसे कभी यह खयाल ही नहीं आ पाता कि बीच में चलाने वाला गैर-मौजूद था। उस विचारक ने कहाः लेकिन यह भी तो हो सकता है कि बैल खड़ा हो जाए और सिर हिलाता रहे, घंटी बजती रहे। उस तेली ने कहाः हाथ जोड़ते हैं आपके, कृपा करके यहां से चले जाइए, कहीं बैल ने आपकी बात सुन ली, बड़ी मुश्किल हो जाएगी। आप जाइए, और अगली बार कहीं और से तेल खरीदा करिए। बैल बिचारा सीधा काम कर रहा है, इस तरह की बात सुन ले सब गड़बड़ हो जाए। बैल का मालिक नहीं चाहता है कि विचार बैल तक पहुंच जाए।

दुनिया में कोई मालिक नहीं चाहता है कि विचार मनुष्य तक पहुंच जाए। और मनुष्य को जोता हुआ है, बहुत से, बहुत से कोल्हुओं में उससे काम करवाया जा रहा है। और उसके गले में घंटियां बांध दी गई हैं--जो बज रही हैं, और आदमी है कि आंख बंद किए चला जा रहा है। आंख किस बात से बंद हैं?

आंख विश्वास से बंद हैं। बिलीफ, आदमी की आंख पर बिलीफ की पट्टियां हैं, विश्वास की पट्टियां हैं। तभी तो एक रंग की पट्टी एक आदमी को मुसलमान बना देती है, दूसरे को हिंदू, तीसरे को जैन, चैथे को ईसाई बना देती है। अन्यथा आदमी-आदमी में कोई और फर्क है सिवाय विश्वासों के? एक आदमी और दूसरे आदमी में कोई भेद है, कोई दीवाल है, कोई खाई है उन दोनों के बीच? उनके प्रेम को रोकने वाली कोई दीवाल है? सिर्फ विश्वास के अतिरिक्त और कोई दीवाल नहीं है। मैं मुसलमान हो जाता हूं, आप हिंदू हो जाते हैं।

क्योंकि मुझे बचपन से दूसरे विश्वास का जहर पिलाया गया और आपको दूसरे विश्वास का जहर पिलाया गया। आपकी आंख पर दूसरे ढंग की पट्टियां बांधी गईं, कोई दूसरे कोल्हू में आपको जोता गया, मुझे किसी दूसरे कोल्हू में जोता गया। और चाहे हम किसी भी कोल्हू में जुते हों, एक बात तय है कि हमारी आंखें बंद कर दी गई हैं। हमारी आंख के खुलने के सारे द्वार बंद कर दिए गए हैं, हमारे भीतर खयाल भी पैदा न हो।

और अगर कभी कोई खयाल दिलाने आ जाए तो कोल्हू का मालिक कहता हैः आपके हाथ जोड़ते हैं, आप यहां से जाइए। आपकी बातें अगर बैल ने सुन ली तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी! इसलिए दुनिया में जब भी विचार को जन्म देने वाले लोग पैदा हुए तो हमने उनकी हत्या कर दी। हमने उनको सूली पर लटका दिया, या जहर पिला दिया।

जीवन दर्शन 


ओशो



ईश्वर है?

शास्त्र से पढ़ लेते हैं आत्मा की बातें, सुन लेते हैं परंपराओं से परमात्मा के विचार। और उन्हें सीख लेते हैं, और इस भांति उनकी बातें करने लगते हैं जैसे हम जानते हों। जैसे हम जानते हों ऐसे उधार ज्ञान को हम एहसास करने लगते हैं कि हमारा अपना है। यह अंतिम धोखा है जो कोई आदमी अपने को देता है। पंडित इसी भांति अपने को धोखा दे लेता है। जो उसने नहीं जाना है, जो उसने केवल सुना है और सीखा है, जो उसने पढ़ा है और स्मरण कर लिया है, उसे भी वह ज्ञान मान लेता है।

हम सारे लोग यहां बैठे हैं। हममें से कोई ईश्वर को मानता होगा, कोई आत्मा को मानता होगा, कोई मोक्ष को मानता होगा; और हममें से कोई भी नहीं जानता इन बातों की सच्चाई। लेकिन निरंतर इन बातों को दोहराते रहने से ऐसा भ्रम पैदा हो जाता है जैसे कि हम जानते हैं। और जब हम दूसरों को ये बातें समझाने लगते हैं, और उनको ऐसा एहसास होता है, उनकी आंखों में हमें ऐसा दिखाई पड़ता है कि उनकी बातें समझ में आ रही हैं। तो उनकी आंखों में ये झलक देख कर हमको खुद यह विश्वास आ जाता है कि हम जो बातें कह रहे हैं वे जरूर सच होंगी और हमने जानी होंगी।

आज ही दोपहर में एक घटना कह रहा था।

अमरीका में एक आदमी ने सबसे पहले बैंक डाला। बाद में कोई चालीस वर्षों बाद जब वह बूढ़ा हो गया, और उसकी कोई जयंती मनाई जा रही थी तो उसके एक मित्र ने उससे पूछा कि तुमने सबसे पहले बैंक किस तरह शुरू किया? उसने कहाः मैंने एक तख्ती बनवाई, जिस पर मैंने लिख दिया ‘बैंक’ और उसे घर के सामने टांग दिया और मैं एक पेटी और किताबें लेकर बैठ गया। पीछे, कोई घंटे भर बाद एक आदमी आया और उसने पचास रुपये जमा करवाए, फिर कोई दो घंटे बाद एक आदमी आया उसने भी डेढ़ सौ रुपये जमा करवाए। उन दोनों आदमियों को जमा करते देख कर मेरा आत्मविश्वास इतना बढ़ गया कि मैंने भी अपने पचास रुपये उसमें जमा कर दिए। दो आदमियों को जमा करते देख कर मेरा भी विश्वास इतना बढ़ गया कि मैंने भी अपने पचास रुपये उसमें जमा कर दिए कि जरूर यह बैंक चल जाएगा। ऐसे बैंक शुरू हो गया।

शास्त्रों से हम शब्द सीख लेते हैं। उन शब्दों को हम दूसरों को बताने लगते हैं और उनकी आंखों में अगर हमें झलक दिखाई पड़ती है कि हां बात उन्हें ठीक लग रही है तो हमारा खुद का विश्वास इतना बढ़ जाता है कि हमें लगता है कि जो हम कह रहे हैं वह बिलकुल सही है। और इस भांति शब्द ज्ञान बन जाते हैं। शब्द जो कि उधार और बासे हैं। और शास्त्र को हम स्मरण कर लेते हैं और भूल जाते हैं कि हम कुछ भी नहीं जानते। यह अंतिम धोखा है जो आदमी अपने को दे सकता है।

अगर मैं आपसे पूछूं, ईश्वर है? और अगर आप चुप रह जाएं और कहेंः मुझे कुछ भी पता नहीं, मैं निपट अज्ञानी हूं। तो मैं कहूंगाः आप एक धार्मिक आदमी हैं, आप अपने को धोखा नहीं दे रहे हैं। लेकिन अगर आप कहें कि हां, ईश्वर है और इस रंग का है, और इस शक्ल का है, और इस मंदिर वाला सच्चा ईश्वर है, और दूसरे मंदिर वाला झूठा है। तो मैं आपसे कहूंगाः आपने अपने को धोखा देना शुरू कर दिया।

ईश्वर जैसी बात कहां हमें ज्ञात है? अननोन है। अज्ञात है सत्य। और हम अपनी क्षुद्र बुद्धियों को लेकर चार शब्दों को सीख लेते हैं, और कहने लगते हैं हमें ज्ञात है। या एक आदमी कहे कि नहीं है ईश्वर, वह भी इतनी ही मतांध बात कह रहा है। बिना इस बात को जाने कि जिसका उसे पता नहीं है उसे इंकार करना ठीक नहीं है। तो जो आदमी अपने प्रति सच्चाई बरतेगा, वह कहेगा कि मैं नहीं जानता हूं, मुझे कुछ पता नहीं है। और इस सरलता से, इस सच्चाई से उसके भीतर एक अन्वेषण की शुरुआत होगी, एक खोज की शुरुआत होगी।


जीवन दर्शन 


ओशो


Wednesday, July 1, 2020

तंत्र तुम्हें तुम्हारे भोग में सहारा देने के लिए नहीं है, वह तुम्हें रूपांतरित करने के लिए है।

अपने को धोखा मत दो। तंत्र के द्वारा तुम अपने को आसानी से धोखा दे सकते हो। और आत्मवचना की इसी संभावना के कारण महावीर तंत्र की बात नहीं करते। यह संभावना, यह खतरा सदा है। आदमी इतना आत्मवचक है कि वह कहेगा कुछ और करेगा कुछ और ही। वह आत्मवचना को भी तर्कसंगत बना सकता है।


उदाहरण के लिए, पुराने चीन में तंत्र जैसा ही एक गुह्य वितान था, जिसे ताओ कहते हैं। ताओ तंत्र से मिलता—जुलता है। उदाहरण के लिए, ताओ कहता है कि अगर तुम कामवासना से मुक्त होना चाहते हो तो अच्छा है कि तुम एक ही व्यक्ति से, एक पुरुष या एक स्त्री से मत चिपके रहो। अगर तुम काम से मुक्ति चाहते हो तो एक ही व्यक्ति के साथ मत रहो, अपने साथी सदा बदलते रहो।


यह बिलकुल सही है। लेकिन तुम इसकी आडू लेकर अपने को धोखा दे सकते हो। हो सकता है कि तुम मात्र काम—विक्षिप्त हो, तुम पर वासना का भूत सवार हो और तुम तर्क कर सकते हो कि मैं तंत्र—साधना कर रहा हूं इसलिए मुझे एक ही स्त्री से नहीं चिपके रहना है, अनेक का साथ चाहिए। चीन में अनेक सम्राट इस साधना की आड़ में बडे—बडे हरम और जनान खाने रखते थे।


लेकिन अगर तुम मनुष्य के मनोविज्ञान को गहराई में देखोगे तो तुम्हें ताओ की अर्थवत्ता समझ में आ जाएगी। इसमें अर्थ है। अगर तुम एक ही स्त्री से संबंधित रहते हो तो देर—अबेर उस स्‍त्री के लिए तुम्‍हारा आकर्षण क्षीण हो जाएगा, लेकिन स्‍त्रियों के प्रति तुम्हारा आकर्षण बना रहेगा। विपरीत यौन के लिए तुम्हारा खिंचाव कायम रहेगा। यह स्त्री, जो तुम्हारी पत्नी है, तुम्हारे लिए विपरीत यौन की नहीं रह जाएगी, वह तुम्हें आकर्षित नहीं करेगी, मोहित नहीं करेगी। तुम उसके आदी हो जाओगे।


ताओ कहता है कि अगर कोई पुरुष अनेक स्त्रियों का सहवास करे तो वह एक ही स्त्री से नहीं, स्त्री मात्र से ही मुक्त हो जाएगा, उसका अतिक्रमण कर जाएगा। अनेक स्त्रियों का शान उसे अतिक्रमण करने में सहयोगी होगा। और यह ठीक है, लेकिन खतरनाक भी है। खतरनाक इसलिए है कि तुम इसे सही होने के कारण नहीं, बल्कि इसलिए पसंद करोगे क्योंकि यह तुम्हें उच्छृंखल होने की अनुमति देता है।


तंत्र के साथ यही समस्या है। इसीलिए चीन में उस विद्या को दबा दिया गया, दमन जरूरी हो गया। भारत में भी तंत्र को दबाया गया, क्योंकि वह बहुत खतरनाक बातें कहता था। वे बातें खतरनाक इसलिए थीं क्योंकि तुम बड़े धोखेबाज हो। अन्यथा वे अदभुत हैं। तंत्र से ज्यादा अदभुत और रहस्यपूर्ण घटना मनुष्य की चेतना में दूसरी नहीं घटी है। अन्य कोई विद्या इतनी गहरी नहीं गई है।



लेकिन ज्ञान के खतरे हैं, सदा से हैं। उदाहरण के लिए, अब विज्ञान खतरा बन रहा है, क्योंकि उसे अनेक गहरे रहस्यों का पता चल गया है। अब उसे मालूम है कि परमाणु—ऊर्जा का सृजन कैसे किया जाता है। आइंस्टीन ने कहा है कि अगर मुझे फिर से जीवन मिले तो मैं वैज्ञानिक होने की बजाय प्लंबर होना पसंद करूंगा। क्योंकि उसने कहा कि जब मैं पीछे लौटकर देखता हूं तो मुझे अपना पूरा जीवन व्यर्थ मालूम पड़ता है। व्यर्थ ही नहीं, मनुष्यता के लिए खतरनाक मालूम पड़ता है। और आइंस्टीन ने मनुष्य को एक गहनतम रहस्य का पता दिया है। लेकिन ऐसे मनुष्य को जो आत्म—वंचक है।


मुझे लगता है कि वह दिन शीघ्र आने वाला है जब हमें विज्ञान को भी दबा देना पड़े। खबर है कि वैज्ञानिकों के बीच गुप्त विचार—विमर्श चल रहा है कि दुनिया को और अधिक जानकारी न दी जाए। वे विचार कर रहे हैं कि वैज्ञानिक शोध को और आगे बढ़ाए या नहीं, क्योंकि अब वह खतरनाक होती जा रही है।


सब ज्ञान खतरनाक है, केवल अज्ञान निरापद है। अज्ञान को लेकर तुम बहुत कुछ नहीं कर सकते। अंधविश्वास सदा निरापद होते हैं। उनसे कोई बड़ा खतरा नहीं हो सकता। वे होमियोपैथी की दवा जैसे हैं। होमियोपैथी की दवा कोई नुकसान नहीं करती है। उससे लाभ होगा या नहीं, यह तुम्हारी निर्दोषता पर निर्भर है, लेकिन एक बात निश्चित है, उससे कुछ नुकसान नहीं होने वाला है। होमियोपैथी निरापद है, वह एक गहन अंधविश्वास है। अगर वह काम करे तो उससे लाभ ही होगा।


और ध्यान रहे, यदि किसी चीज से लाभ ही होता हो तो वह गहरा अंधविश्वास है। अगर उससे लाभ और हानि दोनों होते हों तो ही वह ज्ञान है। सच्ची चीज दोनों करती है, वह लाभ और हानि दोनों करती है। केवल नकली चीज से लाभ ही होता है। लेकिन वह लाभ दरअसल उस चीज से नहीं आता है, वह तुम्हारे मन का प्रक्षेपण होता है। एक अर्थ में केवल भ्रामक चीजें ही अच्छी होती हैं, वे तुम्हें कभी नुकसान नहीं पहुंचाती।


तंत्र विज्ञान है और वह परमाणु—विज्ञान से भी अधिक गहन विज्ञान है। परमाणु—विज्ञान पदार्थ से संबंधित है, तंत्र तुमसे संबंधित है। और तुम सदा ही किसी भी परमाणु—ऊर्जा से ज्यादा खतरनाक हो। तंत्र जैविक परमाणु से, तुमसे, जीवंत कोशिका से, स्वयं जीवन—चेतना से संबंधित है, उसकी आंतरिक व्यवस्था से संबंधित है।

तंत्र सूत्र

ओशो

निर्बल के बल राम

लाओत्से गुजर रहा है एक बाजार से। मेला भरा है। एक बैलगाड़ी उलट गई है; दुर्घटना हो गई है। मालिक था, हड्डी-पसलियां टूट गई हैं। बैल तक बुरी तरह आहत हुए हैं। गाड़ी तक चकनाचूर हो गई है। एक छोटा बच्चा भी गाड़ी में था; दुर्घटना जैसे उसे छुई ही नहीं।

तुमने अक्सर देखा होगा, कभी किसी मकान में आग लग गई है, सब जल गया, और एक छोटा बच्चा बच गया। कभी कोई छोटा बच्चा दस मंजिल ऊपर से गिर जाता है, और खिलखिला कर खड़ा हो जाता है, और चोट नहीं लगती। लोगों में कहावत है, जाको राखे साइयां मार सके न कोए। इसमें परमात्मा का कोई सवाल नहीं है। क्योंकि परमात्मा को क्या भेद है--कौन छोटा, कौन बड़ा!


नहीं, राज कुछ और है। वह लाओत्से जानता है। बच्चा कमजोर है। अभी बच्चा सख्त नहीं हुआ। अभी उसकी हड्डियां पथरीली नहीं हुईं। अभी उसकी जीवन-धार तरल है। जितनी हड्डियां मजबूत हो जाएंगी उतनी ही ज्यादा चोट लगेगी। बैलगाड़ी उलटेगी, तो बूढ़े को ज्यादा चोट लगेगी, बच्चे को न के बराबर। क्योंकि बच्चा इतना कोमल है; जब गिरता है जमीन पर तो उसका कोई प्रतिरोध नहीं होता जमीन से। वह जमीन के खिलाफ अपने को बचाता नहीं। उसके भीतर बचाव का कोई सवाल ही नहीं होता; वह जमीन के साथ हो जाता है। वह गिरने में साथ हो जाता है। वह समर्पण कर देता है, संघर्ष नहीं। कठोरता में संघर्ष है।


जब तुम गिरते हो तो तुम लड़ते हुए गिरते हो, तुम गिरने के विपरीत जाते हुए गिरते हो, तुम अपने को बचाते हुए गिरते हो, तुम मजबूरी में गिरते हो। तुम्हारी चेष्टा पूरी होती है कि न गिरें, बच जाएं, आखिरी दम तक बच जाएं। तो तुम्हारी हड्डी-हड्डी, रोएं-रोएं में सख्ती होती है कि किसी तरह बच जाएं। और जब बचने का भाव होता है तो सब चीजें सख्त हो जाती हैं। बच्चे को पता ही नहीं होता क्या हो रहा है। वह ऐसे गिरता है जैसे कोई नदी की धार में धार के साथ बहता हो। तुम धार के विपरीत तैरते हुए गिरते हो। तुम्हारी विपरीतता में, तुम्हारी सख्ती में ही तुम्हारी चोट छिपी है। बच्चा बच जाता है।


लाओत्से खड़ा है नदी के किनारे। एक आदमी डूब गया है। लोग उसकी लाश को खोज रहे हैं। आखिर में लाश खुद ही पानी के ऊपर तैर आई है। और लाओत्से बड़ा चकित होता है: जिंदा आदमी तो डूब गया और मुर्दा ऊपर तैर आया, मामला क्या है? क्या नदी जिंदा को मारना चाहती थी और मुर्दे को बचाना चाहती है? जिंदा आदमी डूब जाते हैं और मुर्दा तैर आते हैं।


नहीं, लाओत्से समझ गया राज को। मुर्दा ऊपर तैर आता है, क्योंकि मुर्दे से ज्यादा और कमजोर क्या? मर ही गया, अब उसका कोई विरोध न रहा। जिंदा आदमी डूबता है, क्योंकि नदी से लड़ता है। अगर जिंदा भी मुर्दावत हो जाए तो नदी उसे भी ऊपर उठा देगी। तैरने की सारी कला ही इतनी है कि तुम नदी में मुर्दे की भांति हो जाओ। तो जो लोग तैरने में कुशल हो जाते हैं वे नदी में बिना हाथ-पैर तड़फड़ाए भी पड़े रहते हैं मुर्दे की तरह। नदी उनको सम्हाले रहती है। उन्होंने नदी पर ही छोड़ दिया सब। कमजोर का अर्थ यह है कि अपना बल क्या? इसलिए अपने पर भरोसा क्या? छोड़ देते हैं।



ऐसा लाओत्से जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं से सारभूत को चुनता रहा है। उसने किसी वेद से और उपनिषद से ज्ञान नहीं पाया है। उसने जीवन का शास्त्र सीधा समझा है; जीवन के पन्ने, जीवन के पृष्ठ पढ़े हैं। और उनमें से उसने जो सबसे सारभूत सूत्र निकाला है वह है कि इस संसार में अगर तुमने शक्तिशाली होने की कोशिश की तो तुम टूट जाओगे, और अगर तुमने निर्बल होने की कला सीख ली तो तुम बच जाओगे।



भक्त गाते हैं: निर्बल के बल राम। जो बात स्वभावतः घटती है वह राम पर आरोपित कर रहे हैं। भक्त की भाषा में राम का अर्थ सारा अस्तित्व है।



लाओत्से कोई भक्त नहीं है। वह राम और परमात्मा जैसे शब्दों का प्रयोग नहीं करता। पर बात वह भी यही कह रहा है: निर्बल के बल राम। जितना जो निर्बल है उतना ही राम का बल उसे मिल जाता है। लाओत्से भी यही कह रहा है कि जो जितना कमजोर है, अस्तित्व उसे उतनी ही ज्यादा शक्ति दे देता है। और जो अकड़ा हुआ है अपनी शक्ति से, अस्तित्व उससे उतना ही विमुख हो जाता है। जब तुम अकड़े तब तुम अकेले; जब तुम विनम्र तब सारा अस्तित्व तुम्हारे साथ।


ताओ उपनिषद


ओशो

Saturday, June 27, 2020

आत्मा की यात्रा

सब यात्रा बीज से शुरू होती है और सब यात्रा बीज पर अंत होती है। ध्यान रहे, जो प्रारंभ है, वही अंत है। जो बिगनिंग है, वही ऐंड है। जहां से यात्रा शुरू होगी, वहीं यात्रा का वृत्त पूरा होगा। एक बीज से हम शुरू होते हैं और एक बीज पर हम पुन: अंत हो जाते हैं।


वह जो चेतना मरते वक्त अपने को सिकोड़ लेगी, बीज बनेगी, वह किस केंद्र पर इकट्ठी होगी? जिस केंद्र पर आप जीए थे! जो आपके जीने का सर्वाधिक मूल्यवान केंद्र था, वहीं इकट्ठी हो जाएगी। क्योंकि जहां आप जीए थे, वही केंद्र सक्रिय है। जहां आप जीए थे, कहना चाहिए, वहीं आपके जीवन का प्राण है।


अगर एक आदमी का सारा जीवन सेक्स से ही भरा हुआ जीवन था, उसके पार उसने कुछ भी नहीं जाना, कुछ भी नहीं जीया, अगर धन भी इकट्ठा किया तो भी काम के लिए, यौन के लिए, अगर पद भी पाना चाहा तो काम और यौन के लिए, स्वास्थ्य भी पाना चाहा तो काम के लिए और यौन के लिए, अगर उसकी जिंदगी का वह सबसे बहुत एमफैटिक केंद्र सेक्स था, तो सेक्स के केंद्र पर ही ऊर्जा इकट्ठी हो जाएगी और उसकी यात्रा फिर वहीं से होगी। क्यों? क्योंकि अगला जन्म भी उसकी सेक्स की केंद्र की ही यात्रा की कंटीन्यूटि होगा, उसका सातत्य होगा। तो वह व्यक्ति सेक्स के केंद्र पर इकट्ठा हो जाएगा। और उसके प्राण का जो अंत है, वह सेक्स के केंद्र से ही होगा। उसके प्राण जननेंद्रिय से ही बाहर निकलेंगे।


अगर वह व्यक्ति दूसरे किसी केंद्र पर जीया था, तो उस केंद्र पर इकट्ठा होगा। यानी जिस केंद्र पर हमारा जीवन घूमा था, उसी केंद्र से हम विदा होंगे। जहां हम जीए थे, वहीं से हम मरेंगे। इसलिए कोई योगी आज्ञा—चक्र से विदा हो सकता है। कोई प्रेमी हृदय—चक्र से विदा हो सकता है। कोई परम ज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति सहस्रार से विदा होगा। उसका कपाल फूट जाएगा, वह वहां से विदा होगा। हम कहां से विदा होंगे, यह हमारे जीवन का पूरा सारभूत सबूत होगा।


और इन सबके सूत्र खोज लिये गए थे कि मरे हुए आदमी को देखकर कहा जा सकता है कि वह कहां से विदा हुआ। इस सबके सूत्र खोज लिए गये थे। मरे हुए आदमी को देखकर, उसकी लाश को देखकर कहा जा सकता है कि वह कहां से निकला है, किस द्वार का उपयोग किया उसने बहिर्गमन के लिए। ये सब चक्र द्वार भी हैं। ये प्रवेश के द्वार भी हैं, ये विदा होने के द्वार भी हैं। और जो जिस द्वार से निकलेगा, उसी द्वार से प्रवेश करेगा। एक मां के पेट में वह जो नया अणु बनेगा, उस अणु में आत्मा उसी द्वार से प्रवेश करेगी जिस द्वार से वह पिछली मृत्यु में निकली थी। वह उसी द्वार को पहचानती है।


और इसीलिए मां—बाप का चित्त और उनकी चेतना की दशा संभोग के क्षण में निर्णायक होगी कि कौन —सी आत्मा वहां प्रवेश करेगी। क्योंकि मां —बाप की चेतना संभोग के क्षण में जिस केंद्र के निकट होगी, उसी केंद्र को प्रवेश करने वाली चेतना उस गर्भ को ग्रहण कर सकेगी, नहीं तो नहीं कर सकेगी। अगर दो योगस्थ व्यक्ति बिना किसी संभोग की कामना के सिर्फ किसी आत्मा को जन्म देने के लिए प्रयोग कर रहे हैं, तो वे ऊंचे से ऊंचे चक्रों का प्रयोग कर सकते हैं।


इसलिए अच्छी आत्माओं को जन्म लेने के लिए बहुत दिन तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है, क्योंकि अच्छा गर्भ मिलना चाहिए। बहुत कठिनाई हो जाती है कि उन्हें ठीक गर्भ मिल सके। इसलिए बहुत सी अच्छी आत्माएं सैकड़ों सैकड़ों वर्षों तक दोबारा जन्म नहीं ले पातीं। बहुत सी बुरी आत्माओं को भी बड़ी कठिनाई हो जाती है, क्योंकि उनके लिए भी सामान्य गर्भ काम नहीं करता। साधारण आत्माएं तत्काल जन्म ले लेती हैं। इधर मरी, उधर जन्म हुआ, उसमें ज्यादा देर नहीं लगती। क्योंकि उनके योग्य बहुत गर्भ उपलब्ध होते हैं सारी पृथ्वी पर। प्रतिदिन उनके लिए हजारों लाखों मौके हैं। बहुत मौके हैं इस वक्त। कोई एक लाख अस्सी हजार लोग रोज पैदा होते हैं। मरने वालों की संख्या काटकर इतने लोग बढते हैं। कोई दो लाख आत्माओं के लिए रोज प्रवेश की सुविधा है। लेकिन ये बिलकुल सामान्य तल पर यह सुविधा है।


असामान्य आत्माओं को अगर हम पैदा न कर पाएं तो यह भी हो सकता है, और बहुत बार हुआ है......। इसकी थोड़ी बात खयाल में लेनी अच्छी होगी।


बहुतसी आत्माएं जो इस पृथ्वी ने बड़ी मुश्किल से पैदा कीं, उनको जन्म किसी दूसरी पृथ्वियों पर लेने पड़े हैं। यह पृथ्वी उनके लिए वापिस जन्म देने में असमर्थ हो गई। ऐसा ही समझो तुम कि जैसे हिंदुस्तान में एक वैज्ञानिक को हम पैदा कर लें, लेकिन नौकरी उसको अमरीका में ही मिले। पैदा हम करें; मिट्टी, भोजन, पानी हम दें; जिंदगी हम दें; लेकिन हम उसे कोई जगह न दे पाएं उसके जीवन के लिए। उसको जगह लेनी पड़े अमरीका में। आज सारी दुनिया के अधिकतम वैज्ञानिक अमरीका में इकट्ठे हो गए हैं। हो ही जाएंगे। ऐसे ही इस पृथ्वी पर जिन आत्माओं को हम तैयार तो कर लेते हैं, लेकिन दोबारा जन्म देने के लिए गर्भ नहीं दे पाते, उनको स्वभावत: दूसरे ग्रहों पर खोज करनी पड़ती है।

मैं मृत्यु सिखाता हूँ


ओशो



ईसप की एक कथा



एक लोमड़ी अंगूर पाने के लिए कूदने का प्रयास कर रही थी। वे पके हुए और ललचाने वाले थे और उनकी सुगंध लोमड़ी को करीब करीब पागल किए दे रही थी, लेकिन अंगूरों का गुच्छा उसकी पहुंच से बहुत दूर था। लोमड़ी उछली, और उछली, पहुंच न सकी, असफल रही, फिर उसने चारों ओर देखा कहीं किसी ने उसकी असफलता को देख तो नहीं लिया है?

एक नन्हा खरगोश एक झाड़ी के नीचे छिपा हुआ था, और उसने कहा : क्या हुआ मौसी? आप अंगूरों तक पहुंच नहीं सकीं?

वह बोली : नहीं, बेटा यह बात नहीं है, अंगूर अभी तक पक नहीं पाए हैं, वे खट्टे हैं।

यही तो है जो तुमने अब तक धर्म के नाम पर जाना है अंगूर खट्टे हैं क्योंकि उन लोगों को वे मिल नहीं पाते, वे उन तक पहुंच नहीं सकते। ये लोग असफल हैं।

धर्म का असफलता से कुछ भी लेना देना नहीं है। यह परितृप्ति, फलित होना, पुष्पित होना, परम ऊंचाई, शिखर है। अब्राहम मैसलो जब कहता है कि धर्म का संबंध 'शिखर अनुभवों' से है, तो वह सही है।

लेकिन जरा चर्चों में, आश्रमों में, मंदिरों में बैठे अपने धार्मिक लोगों की सूरतें देखो, उदास ऊबे हुए लंबे चेहरे बस मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे हैं कि वह कब आकर उनको ले जाए। जीवन निषेधक, जीवन विरोधी, मतांधतापूर्वक जीवन के विरोध में, और जहां कहीं भी उन्हें जीवन दिखाई देता है वे उसे मार देने और नष्ट करने के लिए आतुर हो जाते हैं। वे तुम्हें चर्च में हंसने की अनुमति नहीं देंगे, वे तुम्हें चर्च में नृत्य न करने देंगे, क्योंकि जीवन का कोई भी लक्षण दिखाई दिया और वे परेशानी में पड़ जाते हैं, क्योंकि जीवन का कोई भी लक्षण दिखाई दिया और वे जान जाते हैं कि हम इससे चूक गए, हम इस तक नहीं पहुंच पाए।

धर्म असफलताओं के लिए नहीं है। यह उनके लिए है जो जीवन में सफल हुए हैं, जिन्होंने जीवन को इसके गहनतम तल तक, इसे इसकी गहराई और ऊंचाई तक, समस्त आयामों में जीया है, और जो इस अनुभव से इतना अधिक समृद्ध हो गए हैं कि वे इसका अतिक्रमण करने को तैयार हैं, ये लोग कभी जीवन विरोधी नहीं होंगे वे जीवन को स्वीकार करने वाले होंगे। वे कहेंगे, जीवन दिव्य है। वस्तुत: वे कहेंगे, 'परमात्मा के बारे में सब कुछ भूल जाओ, जीवन परमात्मा है।’ वे प्रेम के विरोध में नहीं होंगे क्योंकि प्रेम जीवन का परम रस है। वे कहेंगे, 'प्रेम परमात्मा के दिव्य शरीर में संचारित होते हुए रक्त की भांति है। जीवन के लिए प्रेम ठीक ऐसा ही है जैसा कि तुम्हारे शरीर के लिए रक्त। वे इसके विरोध में कैसे हो सकते हैं?'

यदि तुम प्रेम विरोधी हो जाओ तो तुम सिकुडने लगोगे। वास्तविक रूप से धार्मिक व्यक्ति विस्तीर्ण होता है, फैलता चला जाता है। यह चेतना का फैलना है, सिकुड़ना नहीं।

भारत में हमने परम सत्य को ब्रह्म कहा है।’ब्रह्म' शब्द का अर्थ है : जो विस्तीर्ण होता चला जाता है, आगे और आगे, और आगे, और इसका कोई अंत नहीं है। यह शब्द ही सुंदर है, इसमें एक गहन अर्थवत्ता है। आगे बढता हुआ विस्तार—जीवन, प्रेम, चेतना का यह अनंत फैलाव, यही तो है परमात्मा।

सावधान रहो, क्योंकि जीवन निषेधक धर्म बहुत सस्ता है; तुम्हें यह बस ऊब जाने से ही मिल सकता है। यह बहुत सस्ता है, क्योंकि यह तुमको बस असफल होने से ही, बस असृजनात्मक होने से ही, बस आलसी, निराश, उदास होने से मिल सकता है। यह वास्तव में सस्ता है। लेकिन असली धर्म प्रमाणिक धर्म बड़ी कीमत पर मिलता है; तुम्हें जीवन में स्वयं को ही देना होगा। तुम्हें मूल्य चुकाना पड़ेगा।


इसे अर्जित किया जाता है, और इसे कठिन पथ से अर्जित किया जाता है। व्यक्ति को जीवन से होकर गुजरना पड़ता है—इसकी उदासी, इसकी प्रसन्नता जानने के लिए; इसकी असफलता, इसकी सफलता जानने के लिए; धूप के दिन और बादलों का मौसम जानने के लिए; गरीबी और अमीरी जानने के लिए; प्रेम को और घृणा को जानने के लिए; जीवन की गहनतम चट्टानी तलहटी नरक को छू पाने के लिए और ऊपर उड़ान भर कर उच्चतम शिखर स्वर्ग को स्पर्श कर पाने के लिए जीवन में से होकर जाना पड़ता है। व्यक्ति को सभी आयामों में, सभी दिशाओं में गति करनी पड़ती है, कुछ भी ढंका हुआ नहीं रहना चाहिए। धर्म है अनावृत करना, यह जीवन से आवरण हटाना है।


पतंजलि योगसूत्र


ओशो

Saturday, May 23, 2020

एक दिन बुद्ध से एक शिष्य ने पूछा कि आप कहते हैं कि मैं कुछ बोलता हूं, तुम कुछ समझते हो—इसके लिए कोई उदाहरण दें।

बुद्ध ने कहा अच्छा, आज ही उदाहरण दूंगा।


उस रात जब बुद्ध बोले, तो वे नियम से, हर प्रवचन के बाद, रात में कहते थे अब जाओ; रात्रि का अपना अंतिम कार्य पूरा करो, और फिर विश्राम में जाओ।


उस रात एक चोर भी आया था सभा में, और एक वेश्या भी आयी थी। जब बुद्ध ने यह कहा कि भिक्षुओ! अब जाओ। अंतिम कार्य करके सो जाओ। चोर ने समझा कि ठीक! बुद्ध को भी खूब पता चल गया कि मैं भी चोर हूं यहां मौजूद। मुझसे कह रहे हैं कि जाओ; अब अपनी चोरी वगैरह करो। अब रात बहुत हो गयी! और —वेश्या भी चौंकी। उसने कहा हद्द हो गयी! कि बुद्ध को मेरा पता चल गया इतनी भीड़ में! और उन्होंने मुझसे भी कह दिया कि अब जाओ। अपना रात का अंतिम कार्य करो!


दूसरे दिन सुबह जब बुद्ध ने समझाया, तो उन्होंने कहा रात एक चोर भी था। और वह यहां से उठकर सीधा चोरी करने गया। और एक वेश्या थी, यहां से जाकर उसने अपनी दुकान खोली।


भिक्षु ध्यान करने चले गए। चोर चोरी करने चले गए। वेश्याओं ने दुकानें खोल लीं। और बुद्ध ने एक ही वचन कहा था कि अब जाओ; रात्रि का अंतिम कृत्य पूरा करके सो जाओ। इतना ही भेद हो जाता है!


जितने सुनने वाले, उतने अर्थ हो जाते हैं। उन अर्थों पर धर्म बनते हैं। धर्म यानी संप्रदाय। ये धर्म तो जराजीर्ण होते हैं। ये तो सड़ जाते हैं। इनसे बड़ी दुर्गंध उठती है। यह पृथ्वी इन्हीं की दुर्गंध से भरी है।



हिंदू मुसलमान से लड़ रहे हैं, ईसाई हिंदुओं से लड़ रहे हैं, जैन बौद्धों से लड रहे हैं। सब तरफ संघर्ष है। धर्म में कहां संघर्ष हो सकता है?


धर्म दो नहीं हैं, धर्म एक है। जिसको बुद्ध ने कहा है—एस धम्मो सनंतनो—वे किसी धर्म को सनातन नहीं कह रहे हैं। वे कह रहे हैं, धर्म सनातन है।


और सारे धर्म जो धर्म के नाम पर खड़े हो जाते हैं, वे सिर्फ अभिव्यक्तियां हैं, और अभिव्यक्तियां भी विकृत हो गयी हैं, रुग्ण हो गयी हैं। समय की धार ने उन्हें खराब कर दिया है, खूब धूल जम गयी है। इसीलिए तो जिसे सच में ही धर्म की तलाश करनी हो, उसे बुद्धपुरुष को खोजना चाहिए, शास्त्र नहीं। उसे सदगुरु खोजना चाहिए, शास्त्र नहीं। कहीं कोई जीवंत मिल जाए, जहां अवतरण हो रहा हो धर्म का अभी; जहां गंगा अभी उतर रही हो, कहीं कोई भगीरथ मिल जाए, जहां गंगा अभी उतर रही हो—तो ही तुम्हें आशा रखनी चाहिए कि तुम्हें थोड़ा—बहुत जल मिल जाएगा, जो तुम्हारी प्यास को सदा के लिए तृप्त कर दे

एस धम्मो सनंतनो

ओशो

नियम और तरकीबें

बुद्ध ने कहा है कि कोई किसी पशु को भोजन के लिए न मारे। सोचा भी नहीं होगा कि आदमी कितना होशियार है। बुद्ध का वचन है कि कोई किसी पशु को भोजन के लिए न मारे। उनको पता नहीं था कि इसका मतलब यह भी हो सकता है कि अगर पशु अपने आप मर जाए, तो फिर उसका भोजन किया जा सकता है! मारा नहीं। तो जो पशु अपने आप मर जाएं, उनका बौद्ध भिक्षु भोजन करने लगे। क्योंकि बुद्ध ने कहा है मारे न कोई भोजन के लिए। मगर अपने से जो मर गया हो!


फिर अब चीन में, और जापान में, और थाईलैंड में—जहां बौद्धों की बड़ी संख्या है—होटलों में तुम इस तरह की तख्तियां लगी देखोगे कि यहां मारे हुए जानवर का मांस नहीं बिकता, यहां अपने से मरे जानवर का मांस बिकता है।
अब अपने से कितने जानवर मर रहे हैं? अब भिक्षु को या बौद्ध को कोई चिंता नहीं है। वह कहता है. हम क्या करें! दुकान पर साफ लिखा है कि यहां तो अपने आप मरे जानवरों का मांस मिलता है।


इतने जानवर अपने आप रोज नहीं मरते कि हर होटल में मांस मिल सके, और हर गांव में मास बिक सके। लेकिन अब बौद्ध मुल्कों में सब मांस इसी तरह बिकता है। तो बूचड़खाने क्यों हैं वहा? लाखों जानवर रोज काटे जाते हैं। लेकिन बौद्ध कहता है : यह उसका पाप है। अगर दुकानदार ने धोखा दिया है, तो हम क्या करें! जैसे अपने यहां लिखा रहता है कि यहां शुद्ध घी बिकता है। अब इसमें हम क्या करें! अगर दुकानदार ने कुछ मिला दिया, तो अब हमारी तो जिम्मेवारी नहीं है। हमने तो भरोसा कर लिया! ऐसा होशियार है आदमी। अपने को ही नष्ट करने में बड़ा कुशल है। और तरकीबें सदा निकाल लेता है।


एक नियम बनाओ, उसमें से दस तरकीबें निकाल लेता है। और जितने ज्यादा नियम बनाओ, उतनी ज्यादा बात उलझती जाती है, सुलझती नहीं। इस तरह से जो धर्म निर्मित होते हैं, उनका धर्म के मूलस्रोतों से कोई संबंध नहीं। बिलकुल असंबंधित हैं।


एस धम्मो सनंतनो

ओशो

Thursday, May 21, 2020

एक मित्र ने पूछा है कि अगर हम बच्चों को कोई भी शिक्षा न दें, तब तो बच्चे बिगड़ जाएंगे। अगर हम उनको आदर्श न सिखाएं, अगर हम उनको सिद्धांत न सिखाएं, तो वे बिगड़ जाएंगे।



बड़े मजे की बात है कि आप तीन हजार साल से सिखा रहे हैं, फिर भी वे बिगड़ क्यों गए हैं? आदर्श भी सिखा रहे हैं, शिक्षा भी दे रहे हैं, सिद्धांत भी, गीता भी पिला रहे हैं, रामायण, कुरान, बाइबिल भी पिला रहे हैं और फिर भी वे बिगड़ गए? तीन हजार साल से आप क्या कर रहे हैं और?


तो मैं यह नहीं कहता हूं कि कुछ भी न सिखाएं। मैं यह कहता हूं कि उनके ऊपर थोपें नहीं, उनके भीतर जो छिपा है, उसके सहारे बनें, उसे विकसित करें।


दो बातें हैं। एक बच्चे पर हम थोप दें कोई बात, तो बच्चे की आत्मा हमेशा के लिए परतंत्र हो जाती है। और बच्चे के भीतर जो छिपी हुई शक्तियां हैं, उनको सहारा दें, उनको विकसित होने का मौका दें, समझें उस बच्चे को और उन-उन ताकतों को जो उसके भीतर सोई हैं, जगाएं, तो बच्चा विकसित होगा। बच्चे के ऊपर ढांचे नहीं देने होते, उसकी चेतना को दिशा देनी होती है। और हम ढांचे देते रहे हैं।


हम छोटे-छोटे बच्चों को क्या कहते हैं? हम उनसे कहते हैंः महावीर जैसे बनो, बुद्ध जैसे बनो, गांधी जैसे बनो। यह बात एकदम गलत है। कोई बच्चा क्यों महावीर जैसा बने? वह खुद बनने को पैदा हुआ है। कोई महावीर की ट्रू कॉपी बनने को पैदा हुआ है? उसकी जिंदगी अपनी है, वह अपनी आत्मा लेकर आया है, क्यों बने महावीर जैसा? क्यों बुद्ध जैसा बने? क्यों गांधी जैसा बने? वह खुद अपने जैसा बनेगा। लेकिन हम उसे सिखा रहे हैं कि फलां जैसे बनो, उस जैसे बनो। और इस सिखाने का परिणाम यह होगा कि अगर बच्चा बुद्ध, महावीर और राम जैसा बनने की कोशिश में पड़ गया, तो एक बात तय है, वह जो होने को पैदा हुआ था, वह नहीं बन पाएगा। और वही होता उसका विकास, वही होती उसकी आत्मा, वह नहीं हो पाएगा। और जब उसका विकास नहीं हो पाएगा, उसकी आत्मा पूर्णता को नहीं पा पाएगी, तो वह होगा दुखी, पीड़ित, परेशान, चिंतित, हैरान। उसकी समझ में नहीं आएगा कि यह क्या हो रहा है?


और क्या आपको पता है, आज तक जमीन पर कोई एक आदमी दूसरे आदमी जैसा हुआ है? बुद्ध को हुए ढाई हजार साल हो गए, फिर दूसरा बुद्ध क्यों नहीं पैदा हुआ अब तक? ढाई हजार साल कोई कम वक्त है? राम को हुए और भी वक्त हो गया, अब तक दूसरा राम क्यों पैदा नहीं हुआ? कोई कम समय मिला है राम को होने में फिर दुबारा? लेकिन सच्चाई यह है... और हमारी आंखें इतनी अंधी हैं कि हम देखते नहीं, फिर भी हम दोहराए चले जा रहे हैं--राम जैसे बनो, कृष्ण जैसे बनो, क्राइस्ट जैसे बनो। सच्चाई यह है कि कोई आदमी कभी किसी दूसरे जैसा न बन सकता है, न बनने की जरूरत है। हर आदमी यूनीक है, हर आदमी बेजोड़ है, हर आदमी अद्वितीय है। परमात्मा अदभुत कलाकार मालूम होता है, वह एक ही चीज को दुबारा पैदा ही नहीं करता। इतना इनवेंटिव मालूम होता है, इतना आविष्कारक। उसकी आविष्कार की बुद्धि चुकती ही नहीं है। वह एक ढांचे को बनाता है और तोड़ देता है, फिर नये आदमी बनाता है। वह कोई फैक्ट्री नहीं खोली हुई है उसने कि जहां ढांचे लगे हुए हैं, सांचे लगे हुए हैं, एक सी मॉडल की फोर्ड गाड़ियां निकलती जा रही हैं हजारों। एक-एक आदमी अद्वितीय और बेजोड़ है। सृष्टि की अदभुत से अदभुत लीलाओं में यह एक लीला है कि हर आदमी बेजोड़ और अलग है। हर आदमी अपने जैसा है, और किसी जैसा भी नहीं है।


लेकिन हम बच्चों को सिखाते हैंः दूसरों जैसे हो जाओ। यह शिक्षा बुनियादी रूप से गलत है। इसका फल क्या होगा? उस बच्चे का व्यक्तित्व मर जाएगा। उधार होगा उसका व्यक्तित्व। और अगर वह बन भी गया किसी जैसा, तो वह नकल होगी, सच्चाई नहीं। राम तो नहीं बन पाएगा, रामलीला का राम जरूर बन सकता है। और रामलीला के राम की कोई भी जरूरत दुनिया में नहीं है। क्योंकि रामलीला का राम एकदम झूठा आदमी है, एकदम झूठा, उसमें कोई भी मतलब नहीं है। पाखंड इसी से पैदा हुआ दुनिया में, दूसरे जैसे बनने की कोशिश से।


अपने माहीं टटोल

ओशो


अतियों पर क्रांति होती है

चित्त जिसका परतंत्रता में है, वह सत्य को कैसे जानेगा? यह मैंने पहले चरण में विस्तार से बात की। दूसरे चरण में मैंने कहा कि चित्त सरल हो। और सरलता का मैंने अर्थ नहीं किया कि आप कम कपड़े पहनें या कम भोजन करें तो आप सरल हो जाएंगे। या कि आप घर-द्वार छोड़ दें तो आप सरल हो जाएंगे। सरलता बहुत गहरी बात है। इन छोटी सी बातों से सरलता का कोई विशेष संबंध नहीं है। और यह भी हो सकता है कि बहुत जटिल लोग, जिनका चित्त बहुत जटिल, बहुत कठिन है, जिनका चित्त बहुत कठोर और पत्थर की तरह ग्रंथियों से भरा है, वे लोग भी इस तरह के वेशभूषा के परिवर्तन को कर लें। वे लोग भी कम खाएं, कम कपड़े पहनें, घर-द्वार छोड़ दें। कोई जटिल मनुष्य भी इस भांति की सरलता को थोप सकता है। इस सरलता का कोई मूल्य नहीं है।


सरलता का मैंने अर्थ किया: चित्त द्वंद्व-शून्य हो जाए और चित्त के खंड-खंड हिस्से विलीन हो जाएं और चित्त अखंड हो जाए, इंटीग्रेटेड हो जाए, समग्र हो जाए। मेरे भीतर बहुत से व्यक्ति न रहें, एक व्यक्ति का जन्म हो जाए। मैं इंडिविजुअल हो जाऊं। मेरे भीतर एक स्वर रह जाए। मेरे भीतर प्रेम हो तो घृणा न रहे। घृणा और प्रेम जिसके साथ-साथ हैं, उस आदमी का चित्त सरल नहीं हो सकता। जिस आदमी के भीतर शांति और अशांति दोनों हैं, उस आदमी का चित्त सरल नहीं हो सकता। दोनों में से एक रह जाए तो चित्त सरल हो सकता है। अगर मात्र अशांति रह जाए तो भी चित्त सरल हो जाएगा या मात्र शांति रह जाए तो भी चित्त सरल हो जाएगा।


आप जानते हैं, अगर कोई आदमी इतना अशांत हो जाए कि उसके भीतर शांति का कण भी न रहे, तो भी क्रांति हो जाएगी। उतनी अशांति में भी क्रांति हो जाएगी। उस क्लाइमेक्स पर भी, उस चरम बिंदु पर भी अशांति की अंतिम सीमा पर पहुंच कर एकदम से सब विलीन हो जाएगा और वह चित्त एकदम शांत हो जाएगा। जैसे कोई तीर को चलाता है तो प्रत्यंचा को पीछे खींचता है। तीर को फेंकना तो आगे है, खींचते पीछे हैं। उलटा दिखेगा। कोई आदमी कहेगा, तीर को फेंकना तो आगे है और खींचते पीछे हैं! आगे फेंकना है तो आगे फेंकें, पीछे क्यों खींचते हैं? उलटा क्यों कर रहे हैं? लेकिन अपनी प्रत्यंचा को धनुर्धारी खींचता चला जाता है। एक सीमा आती है अंतिम कि और आगे नहीं खींचा जा सकता। खींचने का अंतिम बिंदु आता है और प्रत्यंचा छूट जाती है, और तीर जो कि पीछे गया था, वह विपरीत दिशा में गति कर जाता है। ठीक वैसे ही अगर चित्त पूरा अशांत हो, तो अशांति के अंतिम बिंदु पर पहुंच कर तीर छूट जाता है और शांति की दिशा में गति हो जाती है।


धन्य हैं वे जो पूरे अशांत हैं, क्योंकि शांति उनका भाग्य होगी। लेकिन हम बहुत अधूरे लोग हैं। हम अशांत पूरे नहीं हैं। हम काफी संतुष्ट हैं और काफी शांत हैं। यह जो बीच का मन है, यह कठिन मन है, यह जटिल मन है। इसमें दोनों हैं। इसमें शांति भी, अशांति भी; प्रेम भी, घृणा भी; और सारी बातें। यह जो द्वंद्व है, यह द्वंद्व सत्य तक नहीं जाने देता। या चित्त पूरा शांत हो जाए, तो जीवन में सत्य का अनुभव हो सकता है। अतियों पर क्रांति होती है, एक्सट्रीम पर क्रांति होती है। बीच में कोई क्रांति नहीं होती। इसलिए जो मध्य में है, वह हमेशा सत्य से दूर बना रहता है। अति पर क्रांति होती है। दुख का अति मनुष्य को दुख के बाहर फेंक देता है। लेकिन हम कभी अति तक दुखी नहीं होते। हम हर दुख को भुला लेते हैं और हर दुख को समझाने का कोई मार्ग निकाल लेते हैं।


अमृत की दिशा

ओशो



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