शास्त्र से पढ़ लेते हैं आत्मा की बातें, सुन लेते हैं परंपराओं से परमात्मा के विचार। और उन्हें सीख लेते हैं, और इस भांति उनकी बातें करने लगते हैं जैसे हम जानते हों। जैसे हम जानते हों ऐसे उधार ज्ञान को हम एहसास करने लगते हैं कि हमारा अपना है। यह अंतिम धोखा है जो कोई आदमी अपने को देता है। पंडित इसी भांति अपने को धोखा दे लेता है। जो उसने नहीं जाना है, जो उसने केवल सुना है और सीखा है, जो उसने पढ़ा है और स्मरण कर लिया है, उसे भी वह ज्ञान मान लेता है।
हम सारे लोग यहां बैठे हैं। हममें से कोई ईश्वर को मानता होगा, कोई आत्मा को मानता होगा, कोई मोक्ष को मानता होगा; और हममें से कोई भी नहीं जानता इन बातों की सच्चाई। लेकिन निरंतर इन बातों को दोहराते रहने से ऐसा भ्रम पैदा हो जाता है जैसे कि हम जानते हैं। और जब हम दूसरों को ये बातें समझाने लगते हैं, और उनको ऐसा एहसास होता है, उनकी आंखों में हमें ऐसा दिखाई पड़ता है कि उनकी बातें समझ में आ रही हैं। तो उनकी आंखों में ये झलक देख कर हमको खुद यह विश्वास आ जाता है कि हम जो बातें कह रहे हैं वे जरूर सच होंगी और हमने जानी होंगी।
आज ही दोपहर में एक घटना कह रहा था।
अमरीका में एक आदमी ने सबसे पहले बैंक डाला। बाद में कोई चालीस वर्षों बाद जब वह बूढ़ा हो गया, और उसकी कोई जयंती मनाई जा रही थी तो उसके एक मित्र ने उससे पूछा कि तुमने सबसे पहले बैंक किस तरह शुरू किया? उसने कहाः मैंने एक तख्ती बनवाई, जिस पर मैंने लिख दिया ‘बैंक’ और उसे घर के सामने टांग दिया और मैं एक पेटी और किताबें लेकर बैठ गया। पीछे, कोई घंटे भर बाद एक आदमी आया और उसने पचास रुपये जमा करवाए, फिर कोई दो घंटे बाद एक आदमी आया उसने भी डेढ़ सौ रुपये जमा करवाए। उन दोनों आदमियों को जमा करते देख कर मेरा आत्मविश्वास इतना बढ़ गया कि मैंने भी अपने पचास रुपये उसमें जमा कर दिए। दो आदमियों को जमा करते देख कर मेरा भी विश्वास इतना बढ़ गया कि मैंने भी अपने पचास रुपये उसमें जमा कर दिए कि जरूर यह बैंक चल जाएगा। ऐसे बैंक शुरू हो गया।
शास्त्रों से हम शब्द सीख लेते हैं। उन शब्दों को हम दूसरों को बताने लगते हैं और उनकी आंखों में अगर हमें झलक दिखाई पड़ती है कि हां बात उन्हें ठीक लग रही है तो हमारा खुद का विश्वास इतना बढ़ जाता है कि हमें लगता है कि जो हम कह रहे हैं वह बिलकुल सही है। और इस भांति शब्द ज्ञान बन जाते हैं। शब्द जो कि उधार और बासे हैं। और शास्त्र को हम स्मरण कर लेते हैं और भूल जाते हैं कि हम कुछ भी नहीं जानते। यह अंतिम धोखा है जो आदमी अपने को दे सकता है।
अगर मैं आपसे पूछूं, ईश्वर है? और अगर आप चुप रह जाएं और कहेंः मुझे कुछ भी पता नहीं, मैं निपट अज्ञानी हूं। तो मैं कहूंगाः आप एक धार्मिक आदमी हैं, आप अपने को धोखा नहीं दे रहे हैं। लेकिन अगर आप कहें कि हां, ईश्वर है और इस रंग का है, और इस शक्ल का है, और इस मंदिर वाला सच्चा ईश्वर है, और दूसरे मंदिर वाला झूठा है। तो मैं आपसे कहूंगाः आपने अपने को धोखा देना शुरू कर दिया।
ईश्वर जैसी बात कहां हमें ज्ञात है? अननोन है। अज्ञात है सत्य। और हम अपनी क्षुद्र बुद्धियों को लेकर चार शब्दों को सीख लेते हैं, और कहने लगते हैं हमें ज्ञात है। या एक आदमी कहे कि नहीं है ईश्वर, वह भी इतनी ही मतांध बात कह रहा है। बिना इस बात को जाने कि जिसका उसे पता नहीं है उसे इंकार करना ठीक नहीं है। तो जो आदमी अपने प्रति सच्चाई बरतेगा, वह कहेगा कि मैं नहीं जानता हूं, मुझे कुछ पता नहीं है। और इस सरलता से, इस सच्चाई से उसके भीतर एक अन्वेषण की शुरुआत होगी, एक खोज की शुरुआत होगी।
जीवन दर्शन
ओशो
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