एक फकीर था। एक युवक उसके पास गया और उसने कहा कि मैं तो चोर हूं, मैं तो बेईमान हूं, मैं तो झूठ बोलने वाला हूं, लेकिन मैं भी परमात्मा को पाना चाहता हूं--मैं क्या करूं? और मैं जिस साधु के पास गया उसने कहाः पहले झूठ छोड़ो, पहले बेईमानी छोड़ो, फिर मेरे पास आना।
उस फकीर ने कहाः तुम गलत लोगों के पास पहुंच गए, जिन्हें कुछ भी पता नहीं। तुम ठीक ही हुआ कि यहां आ गए और मैं खुश हूं कि तुम यह स्वीकार करते हो--तुम चोर हो, तुम बेईमान हो। यह धार्मिक आदमी का पहला लक्षण है कि वह स्वीकार करता है कि वह चोर है, वह बेईमान है, वह झूठ बोलता है। अब कुछ हो सकता है। तुम्हारी तैयारी पूरी है। लेकिन इन्हें छोड़ना मत, छोड़ने की फिकर में मत पड़ जाना, नहीं तो छोड़ने की फिकर में ये बच जाएंगे; फिर तुम भागते रहोगे, और ये बचे रहेंगे। जब तुम रुकोगे, तब तुम पाओगे कि ये मौजूद हैं। ये कहीं भी नहीं जाएंगे, क्योंकि तुम अपने को छोड़ कर कहां भाग सकते हो?
उसने एक छोटी सी कहानी उस युवक को कही। उसने कहा कि एक आदमी एक दूसरे गांव के दरवाजे पर पहुंचा। उस गांव के दरवाजे पर एक बूढ़ा आदमी बैठा था, उसने उससे पूछा कि इस गांव के लोग कैसे हैं?
उस बूढ़े ने कहाः मैं ये पूछूं कि आप किसलिए ये पूछते हैं? क्या यहां बसना चाहते हैं? यदि बसना चाहते हैं तो ये बताएं कि आप जिस गांव को छोड़ कर आ रहे हैं, वहां के लोग कैसे थे?
आदमी ने कहाः उस गांव के लोगों का नाम भी मत लो। वैसे दुष्ट, वैसे पाजी लोग इस सारे संसार में कहीं भी नहीं हैं।
उस बूढ़े ने कहा: तब आप किसी और गांव में बसें। आप पाएंगे इस गांव के लोग, उस गांव से भी ज्यादा दुष्ट हैं। यह तो बहुत ही खराब गांव है। मेरा अनुभव यह है कि इस गांव जैसे आदमी, उस गांव में भी न होंगे। तुम जाओ कहीं और बस जाना। वह हटा, उसके पीछे एक दूसरा आदमी पहुंचा।
उसने भी पूछा कि मैं इस गांव में बसना चाहता हूं--उस बूढ़े आदमी से। इस गांव के लोग कैसे हैं?
उस बूढ़े ने कहा कि पहले मैं यह पूछ लूं कि तुम जिस गांव से आते हो उस गांव के लोग कैसे थे?
उसने कहाः उनका तो नाम ही मेरे हृदय को आनंद से भर देता है। उतने भले लोगों को छोड़ कर मजबूरी में मुझे आना पड़ा, इसके लिए मेरा हृदय सदा दुखी रहेगा।
उस बूढ़े ने कहाः आओ, तुम्हारा स्वागत है। तुम पाओगे इस गांव के लोग तो उस गांव से भी बेहतर हैं। इस गांव जैसे अच्छे लोग तो हैं ही नहीं जमीन पर।
उस फकीर ने उस युवक को कहा: यह कहानी मैं तुमसे कहता हूं, तुम कहीं भी भाग जाओ, तुम कहीं भी चले जाओ, तुम अपनों को छोड़ कर नहीं जा सकते। तुम जो हो, वह तुम्हारे साथ है। और उसकी शक्ल तुम्हें दूसरे लोगों में दिखाई पड़ती है--और क्या दिखाई पड़ता है!
आप, सब, मैं, आप एक दूसरे के लिए दर्पण हैं, एक दूसरे में अपनी शक्ल झांक लेते हैं।
तो तुम कहीं भी चले जाओ, तुम अपने से भाग नहीं सकते। लेकिन एक काम करना, तुम अपने प्रति जाग सकते हो। तो तुम एक काम करना कि जब भी तुम्हारे मन में चोरी का, बेईमानी का खयाल आए तो तुम होश से करना, चोरी करना होश से करना, किसी का ताला तोड़ने जाओ, तो बेहोशी में मत तोड़ना, पूरे होश से कि मैं ताला तोड़ रहा हूं, चोरी कर रहा हूं--सजगता से ताले को तोड़ना। जैसे ही मूच्र्छा आ जाए, वहीं ताला छोड़ देना। होश आए, फिर ही ताला खोलना; मूच्र्छा में ताला मत खोलना। पूरी तरह से जागे हुए हो कि ताला तोड़ना। जागे हुए को में तिजोरी से रुपये निकालना।
वह युवक पंद्रह दिन बाद लौटा। उसने कहाः यह तो बड़ी मुसीबत हो गई। जब मैं पूरे होश से भरा होता हूं तो मेरा हाथ रुपये उठाने को नहीं बढ़ता है। और जब मैं बेहोश होता हूं तो हाथ बढ़ता है। और आपने तो बड़ी मुश्किल कर दी। मैं दो दिन बहुत बढ़िया खजाने छोड़ कर आया। तोड़ ली थी दीवालेें, पहुंच गया था, तिजोरियां खोल ली थीं--हाथ उठाता था, ख्याल आता था कि चोरी होशपूर्वक करनी है। होश जैसे ही जगता था, चोरी विलीन हो जाती थी।
जैसे हम यहां दीया जलाते हैं तो अंधेरा विलीन हो जाता है, दीये के साथ अंधेरा विलीन हो जाता है। दीया बुझा दें, अंधेरा आ जाता है। ठीक वैसे ही होश जगाएं, सारी विकृति विलीन हो जाती हैं। दीया बुझा दें, विकृति लौट आती है। होश आत्मा का दीया है, वही ध्यान है। उसी को मैं मेडिटेशन कहता हूं। होश ध्यान है। निरंतर अपने जीवन के सारे तथ्यों के प्रति जागे हुए होना ध्यान है। वही दीया है, वही ज्योति है; उसको जगा लें और फिर देखें--पाएंगे, अंधेरा क्रमशः विलीन होता चला जा रहा है।
एक दिन आप पाएंगे अंधेरा है ही नहीं, एक दिन आप पाएंगे, आपके सारे प्राण प्रकाश से भर गए; और एक ऐसे प्रकाश से जो अलौकिक है; एक ऐसे प्रकाश से जो परमात्मा का है; एक ऐसे प्रकाश से जो इस लोक का नहीं, इस समय का नहीं, इस काल का नहीं--जो कहीं दूरगामी, किसी बहुत केंद्रीय तत्व से आता है और उसके आलोक में ही जीवन नृत्य से भर जाता है, संगीत से भर जाता है। तभी शांति है, तभी सत्य है। उसके पूर्व सब भटकन है, सब अंधेरा है। उस अंधेरे में आप कुछ भी करें, कुछ भी न होगा। दीये को जलाएं--फिर दीया ही कुछ करेगा। दीये को जलाएं--फिर दीया ही कुछ करेगा। ज्योति को जगाएं--होश की, फिर होश ही कुछ करेगा। होश क्रांति ले आता है।
कल मैंने कुछ तोड़ने की बात कही। आज कुछ आपसे बनाने की बात कही। अगर तोड़ने और बनाने का साहस जिस व्यक्ति में है, वह कभी भी अपने जीवन को एक अदभुत जीवन में परिवर्तित कर सकता है।
परमात्मा करे, आपका जीवन एक ज्योति बने--एक जीती हुई ज्योति। आपके लिए ही केवल ये जरूरी नहीं है, इस वक्त सारा मनुष्य संकट में है। सारा मनुष्य पीड़ा में है। अगर बहुत से लोगों के हृदय जग जाएं और ज्योति बन जाएं, तो इस सारे जगत से अंधकार दूर हो सकता है। एक नई संस्कृति पैदा हो सकती है--जो धार्मिक होगी।
अभी तक कोई धार्मिक संस्कृति पैदा नहीं हो सकी। अभी वस्तुतः धर्म ही पैदा नहीं हो सका। अभी धर्म के नाम से चर्च पैदा हुए, संप्रदाय पैदा हुए; अभी धर्म पैदा नहीं हुआ। अभी मनुष्य के हृदय में धर्म की ज्योति नहीं जगी, अभी समय है। और बहुत लोगों को श्रम करना होगा। उनके खुद के हित में भी, और सारे मनुष्य के हित में भी, उसमें ही कल्याण है। अगर हम एक संस्कृति को पैदा कर सकें--जो कि धार्मिक हो। वह कैसी होगी? धार्मिक मन से होगी। धार्मिक मन कौन सा है? जिसके भीतर होश की ज्योति जगी है, वह धार्मिक मन है।
धर्म की यात्रा
ओशो
No comments:
Post a Comment