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Tuesday, May 4, 2021

ध्यान की विधि और जाति— स्मरण में क्या संबंध है?

 जाग्रत व्यक्ति अपने गर्भ का चुनाव करता है। वह उसकी च्वाइस है। महावीर या बुद्ध जैसे व्यक्ति हर कहीं पैदा नहीं हो जाते हैं। वे सारी संभावनाओं को देखकर ही पैदा होते हैं। कैसा शरीर मिलेगा, किस मां—बाप से, कैसी शक्ति मिलेगी, कैसी सामर्थ्य मिलेगी, कैसी सुविधा मिलेगी, क्या मिलेगा, वह सब देखकर पैदा होते हैं। उनके सामने चुनाव है स्पष्ट कि वह किसको चुनें, कहां जाएं। और इसलिए उनका जीवन पहले दिन से ही अपना चुना हुआ जीवन होता है। अपने चुने हुए जीवन का आनंद ही दूसरा है, क्योंकि वहां से स्वतंत्रता का प्रारंभ है। और मिले हुए जीवन का वह आनंद कभी भी नहीं हो सकता है, क्योंकि वह एक परतंत्रता है। हम ढकेल दिए गए हैं, एक धक्का दे दिया गया है. और जो भी हो गया है, वह हो गया है। उसमें हमारा कोई हाथ नहीं है।



यह जो जागरण संभव हो सके तो चुनाव बिलकुल ही किया जा सकता है। और अगर जन्म ही हमारा चुनाव हो, तो पूरा जीवन हमारा चुनाव हो जाता है। तब हम एक जीवन—मुक्त की तरह जीते हैं। जिस व्यक्ति की मृत्यु जागे हुए होती है, उसका जन्म जागा हुआ होता है, और फिर उसका जीवन मुक्त होता है।




जीवन—मुक्त शब्द को हम सुनते हैं बार—बार, लेकिन हमें खयाल में नहीं होगा कि जीवन —मुक्त का क्या अर्थ है। जीवन—मुक्त का अर्थ है, जिसका जन्म जागा हुआ हो। वही जीवन—मुक्त हो सकता है। अन्यथा मुक्ति की चेष्टा कर सकता है, अगला जीवन उसका मुक्त हो सकता है, लेकिन यह जीवन मुक्त नहीं हो पाएगा। इस जीवन के मुक्त होने के लिए पहले दिन से ही अपनी स्वतंत्रता का चुनाव होना चाहिए। और वह हम तभी कर सकते हैं, जब हमने पिछली मृत्यु के जागरण का उपाय किया हो।



अब वह तो सवाल न रहा। यह जीवन हमारे पास है। अभी मृत्यु नहीं आई है। आएगी, आना सुनिश्चित है। मृत्यु से ज्यादा सुनिश्चित कुछ भी नहीं है। सब संबंध में संदेह हो सकता है, मृत्यु के संबंध में कोई भी संदेह नहीं है। परमात्मा के संबंध में संदेह करने वाले लोग हैं, आत्मा के संबंध में संदेह करने वाले लोग हैं, लेकिन ऐसा आदमी आपने नहीं सुना होगा जो मृत्यु के संबंध में संदेह करता हो। वह असंदिग्ध है। वह आएगी ही। आ ही रही है। उसका आना हो ही रहा है, प्रतिपल निकट होती चली जा रही है। ये जो क्षण हमारे और उसके बीच में बचे हैं, इनका हम जागने के लिए उपयोग कर सकते हैं। ध्यान उसकी ही प्रक्रिया है। वह इन तीन दिनों में मैं आपको कोशिश करूंगा कि खयाल में आ जाए कि ध्यान उसकी ही प्रक्रिया है।



एक और मित्र ने पूछा है कि ध्यान की विधि और जाति— स्मरण में क्या संबंध है?




जाति—स्मरण का अर्थ है, पिछले जन्मों के स्मरण की विधि। पहले जो हमारा होना हुआ है, उसके स्मरण की विधि। ध्यान का ही एक रूप है जाति—स्मरण। ध्यान का ही एक प्रयोग है। स्पेसिफिक, एक खास प्रयोग है ध्यान का। जैसे नदी है, और कोई पूछे कि नहर क्या है? तो हम कहेंगे कि नदी का ही एक विशेष प्रयोग है —सुनियोजित, नदी का ही, पर नियंत्रित, व्यवस्थित। नदी है अव्यवस्थित, अनियंत्रित। नदी भी पहुंचेगी कहीं, लेकिन पहुंचने की कोई मंजिल का पक्का नहीं है। लेकिन नहर सुनिश्चित है कि कहां पहुंचानी है।




तो ध्यान तो बड़ी नदी है। पहुंचेगी सागर तक। पहुंच ही जाएगी। परमात्मा तक पहुंचा ही देगा ध्यान। लेकिन ध्यान के और अवांतर प्रयोग भी हैं। ध्यान की छोटी—छोटी शाखाओं को नियोजित करके नहर की तरह भी बहाया जा सकता है। जाति—स्मरण उनमें एक है। ध्यान की शक्ति को हम अपने पिछले जन्मों की तरफ भी प्रवाहित कर सकते हैं। ध्यान का तो मतलब है सिर्फ अटेंशन। ध्यान का मतलब है, ' ध्यान'। किस चीज पर ध्यान देना है, उसके बहुत प्रयोग हो सकते हैं। उसका एक प्रयोग जाति—स्मरण है, कि मेरे पिछले जन्मों की स्मृति कहीं पड़ी है।




स्मृतियां मिटती नहीं, ध्यान रहे। कोई स्मृति कभी नहीं मिटती है, सिर्फ स्मृति दबती है या उभरती है। दबी हुई स्मृति, मिटी हुई मालूम पड़ती है। अगर मैं आपसे पूछूं कि उन्नीस सौ पचास की एक जनवरी को आपने क्या किया था? तो ऐसा तो नहीं है कि आपने कुछ भी न किया होगा, लेकिन बता आप कुछ भी न पाएंगे कि एक जनवरी उन्नीस सौ पचास को क्या किया। एकदम खाली हो गया है एक जनवरी उन्नीस सौ पचास का दिन। पर खाली न रहा होगा जिस दिन बीता होगा, उस दिन भरा हुआ था। लेकिन आज खाली हो गया है। आज का दिन भी कल इसी तरह खाली हो जाएगा। दस साल बाद आज के दिन का भी कोई पता नहीं चलेगा। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि एक जनवरी उन्नीस सौ पचास नहीं था। न इसका यह मतलब है कि एक जनवरी उन्नीस सौ पचास को आप नहीं थे। न इसका यह मतलब है कि चूंकि आप स्मरण नहीं कर पाते हैं, इसलिए उस दिन को हम कैसे मानें। वह था और उसे जानने का भी उपाय है। ध्यान को उसकी तरफ भी ले जाया जा सकता है। और जैसे ही ध्यान का प्रकाश उस पर पड़ेगा, आप हैरान हो जाएंगे, वह उतना ही जीवंत वापस दिखाई पड़ने लगेगा, जितना जीवंत उस दिन भी न रहा होगा। जैसे कि कोई टार्च को लेकर एक अंधेरे कमरे में आए और घुमाए। तो वह बाईं तरफ देखे, तो दाईं तरफ अंधेरा हो जाता है, लेकिन दाईं तरफ मिट नहीं जाता। वह टार्च को घुमाए और दाईं तरफ ले आए, तो दाईं तरफ फिर जीवित हो जाता है लेकिन बाईं तरफ छिप जाता है।



ध्यान का एक फोकस है और अगर विशेष दिशा में प्रवाहित करना हो तो टार्च की तरह प्रयोग करना पड़ता है ध्यान का। और अगर परमात्मा की तरफ ले जाना हो, तो दीये की तरह प्रयोग करना पड़ता है ध्यान का। इसको ठीक से समझ लें।



दीये का कोई फोकस नहीं होता, दीया अनफोकस्‍ड है। दीया सिर्फ जलता है। चारों तरफ रोशनी उसकी फैल जाती है। रोशनी किसी एक दिशा में नहीं बहती है, बस बहती है, चारों तरफ एक—सी। दीये का कोई मोह नहीं कि यहां बहे वहां बहे, यहां जाए वहां जाए। इसलिए जो भी है वह दीये की रोशनी में प्रकट हो जाता है। लेकिन टार्च दीये का फोकस के रूप में प्रयोग है। उसमें हम सारी रोशनी को बांधकर एक तरफ बहाते हैं। इसलिए यह हो सकता है कि दीये के कमरे में जलने पर चीजें साफ दिखाई न पड़े; दिखाई पड़े, लेकिन साफ दिखाई न पड़े। साफ दिखाई पड़ने के लिए दीये की रोशनी को हम एक ही जगह बांधकर डालते हैं, वह टार्च बन जाती है। तब फिर एक चीज पूरी तरह साफ दिखाई पड़ती है। लेकिन एक चीज पूरी साफ दिखाई पड़ती है, तो शेष सब चीजें दिखाई पड़नी बंद हो जाती हैं। असल में एक चीज को अगर साफ देखना हो, तो सारे ध्यान को एक ही दिशा में बहाना पड़ेगा, शेष सब तरफ अंधेरा कर लेना पड़ेगा।




तो जिसे सीधे जीवन के सत्य को ही जानना है, वह तो दीये की तरह ध्यान को विकसित करेगा। अन्य कोई प्रयोजन नहीं है उसे। और सच तो यह है कि दीये का प्रयोजन इतना ही है कि दीया अपने को ही देख ले, बस इतना ही प्रकाशित हो जाए तो काफी है। बात खतम हो गई। लेकिन अगर कोई विशेष प्रयोग करने हों, जैसे पिछले जन्मों के स्मरण का, तो फिर ध्यान को एक दिशा में प्रवाहित करना होगा। और उस दिशा में प्रवाहित करने के दो —तीन सूत्र आपसे कहता हूं। पूरे सूत्र नहीं कहता हूं क्योंकि शायद ही किसी को प्रवाहित करने का खयाल हो। 



जिनको खयाल हो, वे मुझसे अलग से मिल ले सकते हैं। लेकिन दो —तीन सूत्र कहता हूं। समझ में भर बात आ जाये। उतने से आप प्रयोग न कर सकेंगे, लेकिन बात भर समझ सकेंगे। और सबके लिए प्रयोग करना शायद उचित भी नहीं है, इसलिए पूरी बात नहीं कहूंगा। क्योंकि कई बार प्रयोग आपको खतरे में उतार दे सकता है।


मैं मृत्यु सिखाता हूँ 


ओशो 


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