चूंकि हम अपनी व्यक्तिगत समस्याएं स्वयं हल नहीं कर पाते, क्या इस कारण लिया गया संन्यास उचित है?
पूछा है डाक्टर राजेंद्र आई. देसाई ने। डाक्टर देसाई, संन्यास का संबंध समस्याओं को हल करने से है ही नहीं। मैं समस्याएं हल नहीं करता। मैं व्यक्तिगत समस्याएं हल नहीं करता, मैं तो व्यक्ति को मिटाने का उपाय बताता हूं जिससे सारी समस्याएं पैदा होती हैं।
तुम कहते हो: चूंकि हम अपनी व्यक्तिगत समस्याएं स्वयं हल नहीं कर पाते...
तुम तो पैदा करते हो, हल कैसे करोगे? तुम्हीं तो पैदा करने वाले हो, हल कैसे करोगे? तुम्हीं तो समस्या हो, हल कौन करेगा? स्व जाए, तो स्वयं से पैदा होने वाली समस्याएं जाएं। इसलिए तुम यह मत सोचना कि संन्यास कोई समस्याओं को हल करने की विधि है। हम तो जड़ काटते हैं, शाखाएं नहीं। पत्ते—पत्ते क्या काटना! और एक पत्ता काटो तो तीन निकल आते हैं। एक समस्या हल करो, तीन पैदा हो जाएंगी। यही रिवाज है। तुमने देखा न, वृक्ष को घना करना हो तो पत्ते काट देता है माली। क्यों? क्योंकि जानता है, वृक्ष क्रोध में आ जाएगा; एक पत्ता काटा, वृक्ष उत्तर में तीन पत्ते पैदा करता है। माली को हराने की चेष्टा शुरू हो जाती है—कि समझा क्या है तूने अपने को! एक शाखा काटो, तीन शाखाएं निकल आती हैं। वृक्ष घना होने लगता है। वृक्ष भी जवाब देता है, चुनौती अंगीकार कर लेता है।
अहंकार में समस्याएं लगती हैं, अहंकार के वृक्ष पर समस्याओं के पत्ते लगते हैं, शाखाएं—प्रशाखाएं ऊगती हैं। तुम एक समस्या हल करो, और तीन समस्याएं उसकी जगह खड़ी हो जाएंगी। तुम एक प्रश्न का उत्तर खोजो, और उसी उत्तर में से तीन नए प्रश्न खड़े हो जाएंगे। यही तो पूरे मनुष्य का इतिहास है। जाल छूटता नहीं, बढ़ता चला जाता है।
हम तो जड़ काटते हैं, हम तो मूल काटते हैं। हम कहते हैं, पत्ते—पत्ते क्या उलझना? और मजा यह है कि जड़ दिखाई नहीं पड़ती। वह भी वृक्ष की तरकीब है, क्योंकि दिखाई पड़े तो कोई काट दे। तो वृक्ष जड़ को छिपाकर रखता है, उसको जमीन में छिपाकर रखता है—अंधेरे में दबी रहती है जड़। पत्ते ऊपर भेज देता है, कोई डर नहीं—कट भी जाएंगे, लुट भी जाएंगे, पक्षी ले जाएंगे, जानवर चर लेंगे, आदमी छांट देंगे—कोई फिक्र नहीं। अगर जड़ें शेष हैं, तो फिर पत्ते निकल आएंगे। पत्ते मूल्यवान नहीं हैं। पत्तों का आना—जाना होता रहता है। पतझड़ में अपने—आप गिर जाएंगे, अगर किसी ने न भी छीने तो। वसंत में फिर पुनः अंकुरित हो जाएंगे। बस जड़ें बची रहनी चाहिए।
देखते हो, वृक्ष जड़ों को कैसे छिपाकर रखता है! किसी को पता ही नहीं होने देता। अगर तुम पूरा वृक्ष भी काट दो तो भी कोई फिक्र नहीं है वृक्ष को। जड़ें शेष हैं, तो नए अंकुर निकल आएंगे। ऐसी ही अवस्था तुम्हारी है। समस्याएं ऊपर हैं, समस्याओं की जड़ भीतर है। जड़ है—अहंकार।
संन्यास का अर्थ होता है—अहंकार का समर्पण। संन्यास का और क्या अर्थ है? संन्यास का इतना अर्थ है—मैं थक गया, अब मैं अपने मैं को छोड़ता हूं।
और डाक्टर देसाई को वही अड़चन हो रही है। संन्यास लेना चाहते होंगे, नहीं तो प्रश्न ही न उठता। डाक्टर हैं, पढ़े—लिखे हैं, सम्मानित हैं। सूरत के डाक्टर हैं, प्रसिद्ध हैं वहां, डरते होंगे—लोग देखेंगे गैरिक वस्त्रों में, कहेंगे कि एक अच्छा भला आदमी और पागल हुआ! मरीज भी संदिग्ध हो जाएंगे कि अब इनसे आपरेशन करवाना? क्या भरोसा संन्यासियों का! आपरेशन करते—करते कुंडलिनी ध्यान करने लगें! इनसे दवा लेनी? क्या भरोसा पागलों का! डर लगता होगा।
मैं डाक्टर देसाई की तकलीफ समझता हूं, डर लगता होगा। संन्यास का मन में भाव तो उठा है, नहीं तो प्रश्न ही नहीं उठता। लेकिन अब बचना भी चाहते हैं। और बचना इस ढंग से चाहते हैं, जिसमें सम्मान भी शेष रहे।
तो वे पूछ रहे हैं: चूंकि हम अपनी व्यक्तिगत समस्याएं स्वयं हल नहीं कर पाते, क्या इस कारण लिया गया संन्यास उचित है?
फिर संन्यास कब लोगे? जब सारी व्यक्तिगत समस्याएं हल कर लोगे तब! फिर संन्यास की जरूरत क्या होगी? यह तो ऐसे ही हुआ कि कोई मरीज डाक्टर के पास तब जाए, जब स्वस्थ हो जाए। डाक्टर देसाई डाक्टर हैं, इसलिए यह उदाहरण ठीक होगा। कोई मरीज कहे कि क्या हम अपनी बीमारी खुद ठीक नहीं कर सकते, इसलिए डाक्टर के पास जाना उचित होगा? जाएंगे, जब बीमारी चली जाएगी। मगर तब जाने का अर्थ क्या होगा? क्या प्रयोजन होगा?
बुद्ध ने कहा है, मैं वैद्य हूं। नानक ने भी कहा है कि मैं चिकित्सक हूं। दुनिया के बड़े ज्ञानी वस्तुतः दार्शनिक नहीं हैं, चिकित्सक हैं। बुद्ध ने कहा है। मुझसे व्यर्थ के प्रश्न मत पूछो, अपनी मूल बीमारी कहो और इलाज लो। अपनी जड़ उघाड़ो और मुझे काट देने दो।
मैं भी चिकित्सक हूं। आखिर डाक्टरों को भी तो चिकित्सक की जरूरत पड़ती है न! समस्याएं हल करके आओगे, फिर तो कोई जरूरत न रह जाएगी।
भय क्या है? अहंकार बाधा डालता है। अहंकार कहता है, किसी के सामने जाकर अपनी समस्याएं प्रगट करना? छिपाए रहो भीतर, मत कहो किसी से। ऊपर एक मुखौटा लगाए रहो कि अपनी कोई समस्याएं नहीं हैं। ऊपर चाहे दूसरों को धोखा दे लो, भीतर तो समस्याएं हैं और तुम तो जलोगे उनकी आग में, तुम तो तड़पोगे उनकी आग में।
डाक्टर देसाई, तुम अपने को बचाना चाहते हो—अच्छे शब्दों के जाल में कि क्या यह संन्यास लेना उचित होगा? फिर कब उचित होगा? अभी औषधि की जरूरत है!
और तुम्हें अभी यह भी पक्का पता नहीं है कि तुम्हारी समस्या क्या है। समस्याएं समस्या नहीं हैं। समस्याएं तो पत्ते हैं, समस्या तो भीतर छिपी है, वह अहंकार है। और संन्यास उसी जड़ को काटने की प्रक्रिया है।
संन्यास का अर्थ होता है—समर्पण, किसी के चरणों में जाकर अपने को समर्पित कर देना। जिससे प्रेम हो जाए।
जिसके भीतर थोड़ी—सी उसकी बांसुरी बजती सुनाई पड़ जाए। जिसके भीतर से थोड़ी—सी उसकी हवा की
झलक मिलने लगे। जिसके पास उसके सौंदर्य का थोड़ा—सा आभास हो। बस, उसके चरणों में सब छोड़ देना। उस छोड़ने में क्रांति घट जाती है। क्योंकि उस छोड़ने में तुम्हारा अहंकार पहली दफा झुकता है। वही झुकना जड़ का कट जाना है।
हां, अगर न झुके, तो संन्यास से भी कुछ न होगा। संन्यास फिर ऊपर—ऊपर रह गया। वर्षा भी हो गई, मगर तुम भीगे नहीं। कुछ सार न हुआ। भीतर झुकना! तो समस्याओं की समस्या, सारी समस्याओं का मूल आधार विसर्जित हो जाता है।
डरो मत! संन्यास की आकांक्षा उठी हो, तो आने दो प्रभु को भीतर। उसने पुकारा है, इसलिए उठी होगी, डाक्टर देसाई! उसकी पुकार को समझो। उसकी पुकार में अपनी पुकार भी जोड़ दो।
कहे वाजिद पुकार
ओशो
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