.... तो जिन्होंने मूर्तियां
बनायीं उन्होंने बुद्ध
की आज्ञा तोड़ी।
लेकिन बुद्ध ने
यह भी कहा कि जो
ध्यान को उपलब्ध
होगा, समाधि जिसके
जीवन में खिलेगी,
उसके जीवन में
करुणा की वर्षा
भी होगी।
तो
जिन्होंने मूर्तियां बनायीं उन्होंने
करुणा के कारण बनायीं। बुद्ध के
चरण-चिह्न खो
न जाएं, और
बुद्ध के चरण-चिह्नों की छाया अनंत काल
तक बनी रहे।
कुछ
बात ही ऐसी थी कि
जिस आदमी ने कहा मेरी
मूर्तियां मत बनाना,
हमने अगर उसकी मूर्तियां
न बनाई होतीं
तो बड़ी भूल हो जाती।
जिन्होंने कहा था
हमारी मूर्तियां बनाना,
उनकी हम छोड़ भी देते,
न बनाते, चलता।
बुद्ध ने कहा था मेरी
पूजा मत करना,
अगर हमने बुद्ध
की पूजा न की होती,
तो हम बड़े चूक जाते।
यह
सौभाग्य की घड़ी कभी-कभी,
सदियों में आती है, जब
कोई ऐसा आदमी
पैदा होता है जो कहे
मेरी पूजा मत करना। यही
पूजा के योग्य
है। जो कहता है मेरी
मूर्ति मत बनाना,
यही मूर्ति बनाने
के योग्य है।
सारे जगत के मंदिर इसी
को समर्पित हो
जाने चाहिए। .
बुद्ध
ने कहा मेरे
वचनों को मत पकड़ना, क्योंकि
जो मैंने कहा
है उसे जीवन
में उतार लो।
दीये की चर्चा
से क्या होगा,
दीये को सम्हालो।
शास्त्र मत बनाना,
अपने को जगाना।
लेकिन जिस आदमी
ने ऐसी बात कही, अगर
इसका एक-एक वचन लिख
न लिया गया
होता, तो मनुष्यता
सदा के लिए दरिद्र रह
जाती। कौन तुम्हें
याद दिलाता ' कौन
तुम्हें बताता कि
कभी कोई ऐसा भी आदमी
हुआ था, जिसने
कहा था मेरे शब्दों को
अग्नि में डाल देना, और
मेरे शास्त्रों को
जलाकर राख कर देना, क्योंकि
मैं चाहता हूं
जो मैंने कहा
है वह तुम्हारे
भीतर जीए, किताबों
में नहीं? लेकिन
यह कौन लिखता?
तो
निश्चित ही जिन्होंने
मूर्तियां बनायीं, बुद्ध की
आज्ञा तोड़ी। लेकिन
मैं तुमसे कहता
हूं उन्होंने ठीक
ही किया। बुद्ध
की आज्ञा तोड़
देने जैसी थी।
नहीं कि बुद्ध
ने जो कहा था, वह
गलत था। बुद्ध
ने जो कहा था, बिलकुल
सही कहा था। बुद्ध से
गलत कहा कैसे
जा सकता है २ बुद्ध
ने बिलकुल सही
कहा था, मेरी
मूर्तियां मत बनाना,
क्योंकि कहीं मूर्तियों
में तुम मुझे
न भूल जाओ,
कहीं मूर्तियों में
मैं खो न जाऊं, कहीं
मूर्तियां इतनी ज्यादा
न हो जाएं कि मैं
दब जाऊं। तुम
सीधे ही मुझे देखना।
लेकिन
हम इतने अंधे
हैं कि सीधे तो हम
देख ही न पाएंगे। हम तो टटोलेंगे। टटोलकर ही
शायद हमें थोड़ा
स्पर्श हो जाए। टटोलने के
लिए मूर्तियां जरूरी
हैं। मूर्तियों से
ही हम रास्ता
बनाएंगे। हम उस
परम शिखर को तो देख
ही न सकेंगे
जो बुद्ध के
जीवन में प्रगट
हुआ। वह तो बहुत दूर
है हमसे। आकाश
के बादलों में
खोया है वह शिखर। उस
तक हमारी आंखें
न उठ पाएंगी।
हम तो बुद्ध
के चरण भी देख लें,
जो जमीन पर हैं, तो
भी बहुत। उन्हीं
के सहारे शायद
हम बुद्ध के
शिखर पर भी कभी पहुंच
जाएं, इसकी आशा
हो सकती है।
तो
मैं तुमसे कहता
हूं जिन्होंने आशा
तोड़ी उन्होंने ही
आज्ञा मानी। जिन्होंने
वचनों को सम्हालकर
रखा, उन्होंने ही
बुद्ध को समझा।
लेकिन तुम्हें बहुत
जटिलता होगी, क्योंकि
तर्क बुद्धि तो
बड़ी नासमझ है।
ऐसा
हुआ। एक युवक मेरे पास
आता था। किसी
विश्वविद्यालय में अध्यापक
था। बहुत दिन
मेरी बातें सुनीं,
बहुत दिन मेरे
सत्संग में रहा।
एक रात आधी रात आया
और कहा, जो तुमने कहा
था वह मैं पूरा कर
चुका। मैंने अपने
सब वेद, उपनिषद,
गीता कुएं में
डाल दीं। मैंने
उससे कहा, पागल!
मैंने वेद-उपनिषद
को पकड़ना मत,
इतना ही कहा था। कुएं
में डाल आना,
यह मैंने न कहा था।
यह तूने क्या
किया?
वेद-उपनिषद को
न पकड़ो तो ही वेद-उपनिषद समझ
में आते हैं।
वेद- उपनिषद को
समझने की कला यही है
कि उनको पकड़
मत लेना, उनको
सिर पर मत ढो लेना।
उनको समझना। समझ
मुक्त करती है।
समझ उससे भी मुक्त कर
देती है जिसको
तुमने समझा। कुएं
में क्यों फेंक
आया? और तू सोचता है
कि तूने कोई
बड़ी क्रांति की,
मैं नहीं सोचता।
क्योंकि अगर वेद-उपनिषद व्यर्थ
थे, तो आधी रात में
कुएं तक ढोने की भी
क्या जरूरत थी
2 जहां पड़े थे पड़े रहने
देता। कुएं में
फेंकने वही जाता
है, जिसने सिर
पर बहुत दिन
तक सम्हालकर रखा
हो। कुएं में
फेंकने में भी आसक्ति का
ही पता चलता
है। तुम उसी से घृणा
करते हो जिस से तुमने
प्रेम किया हो।
तुम उसी को छोड़कर भागते
हो जिससे तुम
बंधे थे।
एक
संन्यासी मेरे पास
आया और उसने कहा, मैंने
पत्नी-बच्चे सबका
त्याग कर दिया।
मैंने उससे पूछा,
वे तेरे थे कब? त्याग
तो उसका होता
है जो अपना हो। पत्नी
तेरी थी? सात चक्कर लगा
लिए थे आग के आसपास,
उससे तेरी हो गई थी?
बच्चे तेरे थे?
पहली तो भूल वहीं हो
गई कि तूने उन्हें अपना
माना। और फिर दूसरी भूल
यह हो गई कि उनको
छोड़कर भागा। छोड़ा
वही जा सकता है जो
अपना मान लिया
गया हो। बात कुल इतनी
है, इतना ही जान लेना
है कि अपना कोई भी
नहीं है, छोड़कर
क्या भागना है!
छोड़कर भागना तो
भूल की ही पुनरुक्ति है।
जिन्होंने
जाना, उन्होंने कुछ
भी छोड़ा नहीं।
जिन्होंने जाना, उन्होंने
कुछ भी पकड़ा नहीं। जिन्होंने
जाना, उन्हें छोड़ना
नहीं पड़ता, छूट
जाता है। क्योंकि
जब दिखाई पड़ता
है कि पकड़ने
को यहां कुछ
भी नहीं है,
तो मुट्ठी खुल
जाती है।
बुद्ध
की मृत्यु हुई-तब तक
तो किसी ने बुद्ध का
शास्त्र लिखा न था, ये
धम्मपद के वचन तब तक
लिखे न गये थे-तो
बौद्ध भिक्षुओं का
संघ इकट्ठा हुआ।
जिनको याद हो, वे उसे
दोहरा दें, ताकि
लिख लिया जाए।
.
बड़े शानी भिक्षु
थे, समाधिस्थ भिक्षु
थे। लेकिन उन्होंने
तो कुछ भी याद न
रखा था। जरूरत
ही न थी। समझ लिया,
बात पूरी हो गई थी।
जो समझ लिया,
उसको याद थोड़े
ही रखना पड़ता
है। तो उन्होंने
कहा कि हम कुछ कह
तो सकते हैं,
लेकिन वह बड़ी दूर की
ध्वनि होगी। वे
ठीक-ठीक वही शब्द न
होंगे जो बुद्ध
के थे। उसमें
हम भी मिल गये हैं।
वह हमारे साथ
इतना एक हो गया है
कि कहां हम,
कहां बुद्ध, फासला
करना मुश्किल है।
तो
अज्ञानियों से पूछा
कि तुम कुछ कहो, इतनी
तो कहते हैं
कि मुश्किल है
तय करना। हमारी
समाधि के सागर में बुद्ध
के वचन खो गये। अब
हमने सुना, हमने
कहा कि उन्होंने
कहा, इसकी भेद-रेखा नहीं
रही। जब कोई स्वयं ही
बुद्ध हो जाता है, तो
भेद-रेखा मुश्किल
हो जाती है।
क्या अपना, क्या
बुद्ध का ' अज्ञानियों
से पूछो।
अज्ञानियों
ने कहा, हमने
सुना तो था, लेकिन समझा
नहीं। सुना तो था, लेकिन
बात इतनी बड़ी
थी कि हम सम्हाल न
सके। सुना तो था, लेकिन
हम से बड़ी थी घटना,
हमारी स्मृति में
न समाई, हम
अवाक और चौंके
रह गये। घड़ी
आई और बीत गई, और
हम खाली हाथ
के खाली हाथ
रहे। तो कुछ हम दोहरा
तो सकते हैं,
लेकिन हम पक्का
नहीं कह सकते कि बुद्ध
ने ऐसा ही कहा था।
बहुत कुछ छूट गया होगा।
और जो हमने समझा था,
वही हम कहेंगे।
जो उन्होंने कहा
था, वह हम कैसे कहेंगे?
तो
बड़ी कठिनाई खड़ी
हो गई। अज्ञानी
कह नहीं सकते,
क्योंकि उन्हें भरोसा
नहीं। ज्ञानियों को
भरोसा है, लेकिन
सीमा-रेखाएं खो
गई हैं।
फिर
किसी ने सुझाया,
किसी ऐसे आदमी
को खोजो जो दोनों के
बीच में हो। बुद्ध के
साथ बुद्ध का
निकटतम शिष्य आनंद
चालीस वर्षों तक
रहा था। लोगों
ने कहा, आनंद
को पूछो! क्योंकि
न तो वह अभी बुद्धत्व
को उपलब्ध हुआ
है और न वह अज्ञानी
है। वह द्वार
पर खड़ा है। इस पार
संसार, उस पार बुद्धत्व, चौखट पर खड़ा है,
देहली पर खड़ा है। और
जल्दी करो, अगर
वह देहली के
पार हो गया, तो उसकी
भी सीमा-रेखाएं
खो जाएंगी।
आनंद
ने जो दोहराया,
वही संगृहीत हुआ।
आनंद की बड़ी करुणा है
जगत पर। अगर आनंद न
होता, बुद्ध के
वचन खो गये होते। और
बुद्ध के वचन खो गये
होते, तो बुद्ध
का नाम भी खो गया
होता।
एस धम्मो सनंतनो
ओशो
No comments:
Post a Comment